अभी हाल में पत्नी जी के साथ उनकी माँ के घर जाने
का मौका मिला| उनका वहाँ पर बेसब्री से इन्तजार हो रहा था| वैसे भी भारतीय
मानसिकता में विवाहित पुत्री बेहद लाडली, प्यारी, स्वागतयोग्य और इष्ट देवी सदृश्य
होती है| जैसे ही हमने घर में प्रवेश किया, पड़ोस से कोई चाची-ताई-बुआ-मामी-मौसी आ
पहुँची; पूछने लगी “ससुराल से आ गईं बिटिया?” पत्नी जी ने हाँ में जबाब दिया पर
मैंने विरोध किया;”ससुराल तो अलीगढ में है ये तो दिल्ली से आयीं है”| इसपर वह
चाची-ताई-बुआ-मामी-मौसी कहने लगीं, “ चलो ठीक है, पति के घर से सही, बेटा अब आराम
कर लो, मायका मायका होता है, मायके जैसा सुख कहीं नहीं”| मैं सोचने लगा, मेरी
बेचारी पत्नी जी का घर कहाँ है? उनके पास, माँ, पति और सास का घर है, अपना नहीं|
क्या भारतीय स्त्री को घर का कोई सुख है या सब
जगह से वह बाहर है|
एक बात और; माँ और सास के पास घर है, नव-विवाहिता
बेचारी… बच्चों की शादी तक.. बेघर हैं|
क्यों?
क्यों??
क्यो???
तब क्या जब एक नौकरी पेशा नव-विवाहिता महानगर में
पति के साथ रहती है और किराए में उसकी आधी भागीदारी है?
क्या इसके लिए क़ानून लाना होगा? क्या इसके लिए
सरकार दोषी है? क्या इसके लिए लड़की दोषी है? क्या पडोसी दोषी है? क्या सास ससुर
दोषी है? क्या माँ-बाप दोषी है? क्या समाज दोषी है?
माँ बाप अपने घर को लड़की का मायका बता कर अपने घर
को बेटे के लिए बचा लेते है|
सास-ससुर अपने घर को इस बाहरी औरत से तब तक के
लिए बचा लेते है, जब तक वो इस घर में पुरानी, विश्वस्त, अपनी और अभिन्न न हो जाए|
मायके और ससुराल से दूर रोजी रोटी की जिद-ओ-जहद वाले
रैन-बसेरे को कोई भी स्वीकारने नहीं देता|
क्या करे?
कोई तो जबाब दे??
कोई तो जिम्मा ले???