जिरहुल – बाल कविताएं


काफी समय से भारत में हिन्दू मध्यवर्गीय सवर्ण दृष्टिकोण से देश के हर तथ्य को देखने का चलन है। हिन्दू मध्यवर्गीय सवर्ण समाज के बाहर आने वाले विभिन्न समुदाय भले ही अपने निज के बारे में हिन्दू मध्यवर्गीय सवर्ण की धारणाओं से सहमत न हो मगर शेष समुदायों के लिए प्रायः उन्हीं धारणाओं को आत्मसात करता है। ऐसे समय में उचित साहित्यिक संवाद के लिए यह आवश्यक है कि सभी समुदाय, खासकर हिन्दू मध्यवर्गीय सवर्ण, अन्य समुदायों के जीवन को निकट से देखे, समझे लिखे पढ़े और इसके साथ वह उन समुदायों के आत्मानुभूतिजन्य लेखन को भी अपने लिखने पढ़ने मनन चिंतन में शामिल करे। परंतु, हमारे पूर्वग्रह प्रायः जानने समझने की भावना पर हावी रहते हैं।

मुझे जंसिता करकेट्टा की कविताएं पढ़ने में सरल और शुद्ध लगतीं है। यहाँ शुद्ध से मेरा विचारधारा या आस्था का अनावश्यक ज्ञानवान तड़का उनमें मुझे नहीं दिखाई देता। शायद ऐसा इसलिए है कि वह वास्तव में जमीनी स्तर पर कार्यरत हैं और उन्हें इस प्रकार के तड़के की आवश्यकता नहीं है। मैंने अभी तक अपने लिए उनका कोई काव्य संकलन नहीं खरीदा है परंतु अपनी बेटी के लिए उसकी सहमति से “जिरहुल” खरीदा। मेरी बेटी ने पहली दो कविताएं सुनकर उसे पसंद किया। आम तौर पर बच्चे तथाकथित बाल कविताओं से दूर भागते हैं।

इसका कारण मेरी समझ में यह है कि अधिकांश बाल कविताएं बाल भावनाओं और कल्पनाओं से शून्य होतीं हैं। इन सब में, बड़ों की बच्चों के लिए भावनाएं होती हैं या बड़ों की बचकानी भावनाएं (जो उन्हें लगता है बच्चों की भावना ऐसी होती होंगी, भरी होतीं हैं। सौभाग्य से हाल में इकतारा प्रकाशन ने इस समस्या पर कुछ हद तक नियंत्रण किया है और योग्य कवियों से बढ़िया कविताएं लिखवाने ने सफलता पाई है। मेरे बच्चे इकतारा प्रकाशन की दो पत्रिकाओं के वार्षिक ग्राहक हैं और बिटिया ने उनकी कई पुस्तकें उनके यहाँ से खरीदी हैं।

जिरहुल में वन पुष्पों पादपों पर बात हुई है और सरल शब्दों में बात हुई है। एक को छोड़ कर कविताएं मात्र उतनी ही लंबी है, कि बच्चे उसे पकड़ सकें और उनका ध्यान भंग होने से पहले कविता उनमें उतार जाए। बेटी के साथ यह संकलन पढ़ते हुए मुझे समझ आया कि छह वर्ष और सात वर्ष की बालिका की समझ और पसंद में एक वर्ष नहीं एक प्रकाश वर्ष का अंतर होता है। जंसिता ने बाल मन को बहुत अच्छे से पकड़ कर लिखा है।

बेटी को एक कविता “महुआ” थोड़ी कठिन लगी। वह उसके अनुभव और कल्पना से बाहर थी। परंतु समझने के बाद वह बहुत देर उचित ही बेचैन रही। यह कविता की सफलता है। वह देर तक जागी रही। उसने कहाँ, उसे महुआ का पेड़ दिख रहा है। “और न पेड़ भूख से मरे थे” पंक्ति पर वह अटकी हुई थी। हम सबने पेड़ों की हत्या देखीं है पर कवि की कलम की दूरबीन उन्हें दिल के पास लाकर दिखातीं हैं तो बात मार्मिक हो जाती है और समझ में भी आती है। बेटी ने पेड़ के इस प्रकार मरने पर दुःख व्यक्त किया। और उसके बदले एक पेड़ लगाने के लिए कहकर सो गई।

यह कविताएं न सिर्फ बच्चों के स्तर पर जाकर लिखी गईं हैं बल्कि सरलता से बच्चों को जंगल, पेड़, फूल और बेहद साधारण आदिवासी सरोकार से जोड़ पाती हैं। हमें याद रखना होगा, पर्यावरण बचाने के लिए हो रहे करोड़ों रुपए के सामाजिक ज़िम्मेदारी खर्चों के मुक़ाबले यह बाल कविताएं जंगल बचाने की वास्तविक ताकत रखतीं हैं।

प्रदूषण का त्योहार


क्या खूब त्योहार है? हर साल अपने पूरे जलवे के साथ आता है| दो साला कोविड के बाद एक बार फिर पूरे शबाब पर है| दिल्ली के आसपास इसे मनाते हुए हमें तकरीबन पच्चीस साल हो गए है| मगर आदतन हमारे मुँह बने हुए है कि त्योहार न हुआ फूफा की बारात हो गई|
#FestivalofPollution

खासमखास अदीब बताते हैं कि इस त्योहार की गहरी जड़ें उस दौर में पाई जाती हैं जब पांडवों ने खांडवप्रस्थ के जंगलात जलाकर इंद्रप्रस्थ बसाया तो किसी झक्की नाग ने यहाँ कि फिजाँ के जहर हो जाने का श्राप दिया था| वैसे इस पहलू पर व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी वाले खास पर्चे बना रहे हैं, जो जल्द पेश किया जाएगा|

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हर त्योहार के अपने अपने रिवाज होते हैं, इसके भी है| हर त्योहार में बलि देने का चलन आदिम काल से रहा है, यहाँ भी है| बलि पर अनलिखा ईश्वरीय नियम है – बलि कमजोर या बेकार की होती है या फिर वह जिसके चट हो जाने से स्वाद पूरा आए और सेहत पर कुछऊ फर्क न पड़े| यह त्योहार तो शुरू ही बलि से हुआ| 

पहले पहल हजारों लाखों टैक्सी बलि चढ़ा दी गईं, चलो जी पेट्रोल डीजल पीती हो न डायन, कटाओ अपनी गर्दन| किसी ने न पूछा जो नामुराद गाड़ियां बड़के लोग के यहाँ इतराती खड़ी है वो कौन सा अमृत पीती हैं| कोई कैसे पूछे, अमीर की तो कुटनी भी हमें ईमान की नानी लगती है|

फिर भी इस शुरुआती बलि से यह तय जाना गया कि गाड़ियां इस फसाद की जड़ है मगर तुर्रा यह जुड़ गया कि अमीर की गाड़ियां तमाम कमाई-महकमाई इम्तिहान पास करती हैं तो उन्हें कुछ ना कहा जाए| फिर भी यह फ़सादी वक़्त त्योहार की शक्ल में हर साल आता रहा| इस पर शेरोसुखन कहे जाते रहे और पर्चे छपते छपाते रहे| कुछ साल में मामला जस का तस|

फिर बढ़ती महंगाई की तरह इंसानी कुनबे बढ़ते रहे, गाड़ियां भी कदम मिलाती रहीं मगर सवाल यह कि अब कौन सा अश्वमेध किया जाए| तो सबकी निगाह अपने दुश्मन ओ खास यानि सरहद की तरफ घूमी और शायद उनके बाप और हमारे ताएं, उनका नाम क्या बताएं, के खौफ से कहिए कि शर्मों लिहाज से, ये निगाहें सरहद से कुछ पहले अपनी ही जमीन पर जा टकराई| 

दिल्ली के बाशिंदों को साल में इसी त्योहार पर इल्म होता है कि अनाज सब्जियां फैक्ट्रीज़ में नहीं बनतीं वरन कुछ नियायत ही वाहियात किस्म के लोग इन्हें बिहार से आकर पंजाब हरियाणा में उगा देते हैं| ये तो भला हो हाल किसान आंदोलन का, और वो भी क्या भला हो, दिल्ली वाले अचानक समझे कि ये खेत मजदूर कौम और किसान कौम कोई अलग अलग जमात हैं| फिर तय यह रहा कि अरे वही साडा पंजाब जहां लस्सी भंगड़ा संगड़ा होता है, जब उड़ता पंजाब बनता है तो हवा में जहर बनकर इत दिल्ली आ मरता है नासपीटा| बस इत्ती सी है दिल्ली वालों की समझ| पर इस समझ पर उंगली कौन उठाए, बुजुर्ग कह गए है दिल्ली ऊंचा सुनती हैं| किसे पता समझती भी ऊंचा ही हो| 

तो हजरात, फिर सिलसिला हुआ कि किसान, मजदूर और उसकी पराली की बलि ली जाए| मगर इस बार मामला टेढ़ा पड़ गया| किसी को पता नहीं था कि यह बलि कौन से फरसे से ली जाए| हाकिम और हुक्मरान अपने अपने महकमे हाँकते रह गए और तू तू तूतक तूतक तूतिया करते रह गए| लगता है कि साहिबान लीडर इस तू तू तूतक तूतक तूतिया को भी इस त्योहार का कोई रिवाजेखास बना कर ही बिठालेंगे| इस बलि की मद (कीबोर्ड बार बार मैड क्यों लिखता है?) में सेटलाइट, सर्चलाइट, ट्यूबलाइट और न जाने और कौन से फ्यूज़लाइट सब लगा दिए| फिलहाल सरकारी पैसे की बलि चल रही है और नतीजा सिफर के बढ़कर दो सिफर तक जा पहुँचा है| खैर कुछ तो तरक्की हुई| 

हर साल रिवाजन कोई औडईविन साहब भी चर्चा में आते हैं| दिल्ली शहर की आधी गाड़ियां उपवास पर चली जाती हैं| हर साल इनका मजाक उड़ता है और मजा यह हर कोई दिल से आधी गाड़ियों के इस उपवास का समर्थन करता है खासकर बड़के लोग जिन्हें अनजान रिश्तेदारों के दूर के मामा-फूफा को टोरंटो के आगे लंडन तक फॉन फ़ून करने का मौका मिलता है कि दो गाड़ियां ले रखीं हैं वरना तो मफ़लर ने तो हमारे काम धाम और उस से ज्यादा नाम पर शिकंजा कस देना था| 

रिवाज ही तो है कि साहिबे साहिबान, जिनके होने से साहब शैतान साहिबे औलाद हुए, भी हर बरस इस पर चर्चा खास करते हैं| बड़ी बड़ी आर्जियां, फर्द, तफ़सीस और तकरार होती हैं| सुना या कहिए समझा जाता है कि इस बरस तो बा कायदा यह खास बहस दुनिया के सामने सीधे परोसी जाएगी| अब घर पर मास्क लगाकर बैठिए, अदरक इलायची का काढ़ा घोंटिए और मजे ले के कर खास अदालती बहस सुनिए| यह तो खैर पक्का ही है कि तमाम अक्लमंद हजरात टीवी स्क्रीन के सामने बैठे होते है और न जाने किन किन को कैमरे के सामने बैठा दिया जाता है| 

इस त्योहार का एक चलन यह भी है कि हर कोई इस वक़्त खाँसता रहता है, कभी कभी उल्टी मतली करता है और दिल्ली गालियां छोड़ देने के लिए मीर के नक्शे कदम ढूँढता है| कुछ अरसा गुजरते गुजरते रोजगार याद आता है और जिंदगी को भी पेंशन समझकर काटने लगता है| 

फिलहाल बच्चों को हफ्ते रोज की छुट्टियाँ दी गई हैं, दफ्तरों में घर का काम करने वालों को घर से दफ्तर का काम करने की सहूलियत दी गई है और सरकारों के सर्कस में नुक्ताचीनी की रस्म अदायगी हो रही है| और आखिर में, यह पर्चा लिखे जाने तक मेरे गले में खराश जारी है| 

कोई पानी नहीं भरना चाहता


कोई पानी नहीं भरना चाहता| 

“किसी के सामने पानी भरना” सिर्फ ऐसे ही तो मुहावरा नहीं बन गया| एक मुहावरा और है “हुक्का भरना”| शहरी लोग सोचते हैं कि “चिलम भरना” और “हुक्का भरना” एक बात होगी पर हुक्का भरने में चिलम भरना और पानी भरना दोनों ही श्रम व सजा हैं| 

शर्त लगा कर कहा जा सकता है, पानी भरना दुनिया का सर्वाधिक श्रम का काम है| किसी कूप-तालाब-नहर-नदी से पानी भरकर लाना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है, मगर अपनी अंजलि में पानी भरना और उसे अर्पण कर देना ऐसे ही पुण्य कर्म नहीं माना गया है| इसके पीछे तार्किक सोच समझ नजर आती है| जीवन के आधार जल की प्राप्ति और फिर उसका अर्पण अपने आप में महत्वपूर्ण है| हम सब को जल प्राप्त हो, हम सब को जल अर्पण कर सकें|

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बड़े बड़े राजे-महाराजे जो कर्म पुण्य तालाब, बाबड़ी, नदी, नहर खुदवा कर न पा सके, वही पुण्य अंजलि भर जल भरकर उसे इष्टदेव को अर्पित करने पर इहलोक से स्वर्ग लोक की यात्रा सुगम हो जाने की मान्यता है| अतिथि देव को जलपान करवाने में जो पुण्य है वह भोजन-दावत-लंगर- भंडारे करवाने से किसी प्रकार भी कम नहीं माना गया| शिव अपने शीर्ष पर गंगा को धारण करते हैं, जटाओं में गंगा जल भरते हैं, अपने आप में गंगा को भर लेना, जटाओं में गंगाजल भर लेना, उसे बांध लेना, उसकी गति साध लेना कोई सरल कार्य नहीं है| बहुत ही गंभीर रूपक है| 

वर्तमान में जल भरना बेहद कठिन काम हो गया है| मानवता जलसंकट के कगार पर खड़ी है| आधे से अधिक आबादी पीने के पानी के संकट से गुजर रही है| दुनिया भर में स्त्रियाँ पानी भरने के लिए दस दस कोस तक के चक्कर लगा कर घर-परिवार के लिए पानी भर रहीं हैं| पुरुषों के लिए यह संकट इतना बड़ा है कि उनकी आँखों तक का पानी सूखने लगा है| इसे आँसू सूखने से न जोड़े, वह अलग और सामान्य बीमारी है| पुरुषों को पानी भरने से बचने के लिए बड़े जतन करने पड़ रहे हैं| जलवधू (पानी भरवाने के लिए गरीब लड़कियों से होने वाला विवाह) जैसे कर्म किए जा रहे हैं| सोचिए मात्र पानी भरने की समस्या स्त्रियॉं के लिए एक अलग और अतिरिक्त शोषण का जरिया बन रही है| दुनिया भर के छायाचित्रकार सिर पर दस दस मटके और कलश लादे स्त्रियों के छायाचित्र उतार कर वास्तविकतावाद के प्रणेता बन गए हैं| कवि लचकती कमर और दचकती गर्दन पर संग्रह लिख रहे हैं| 

पानी भरने का श्रम सिर्फ ग्रामीण हल्कों की ही समस्या नहीं है| हालिया चुनावों में मुफ्त जल और मुफ्त विद्युत बेहद बड़े चुनावी मुद्दे बने हैं| दिल्ली जैसे शहरी राज्यों में जल बेहद महत्वपूर्ण है| यहाँ जल मुख्यतः आयातित है, क्योंकि वर्षाजल का कोई संरक्षण नहीं है और यमुना से मिलने वाला जल जल संधि के कारण ही उपलब्ध है| यहाँ का भूमिगत जल किसी भी क्षण समाप्त होने जा रहा है| दिल्ली के लिए जल अस्तित्व का संकट बन सकता है और पाँच नहीं तो एक हजार साल लंबे इसके राष्ट्रिय प्रभुत्व को समाप्त कर सकता है| 

मगर जल को हम आम जीवन में महत्व नहीं देते| यह इस से स्पष्ट है कि जल संरक्षण तो दूर गर्मियों में फ्रिज़ बोतलों तक में पानी भरना हम सब को कठिन लगता है| प्रतीकात्मक रूप से ही सही, पर फ्रिज़, मटके, सुराही आदि में पानी भरने को गंभीरता से लिया जाए तो बात आगे बढ़े|