उस दिन मैं भी देर तक जागा रहा था। मुझे भी महुआ के लाल खूनी आँसू दिख रहे थे। मैंने सोने जाने से पहले मनीषा कुलश्रेष्ठ कि कहानी “एक थी लीलण” आधी पढ़ ली थी। कहानी के एक वाक्य, “जहाँ मेरे नाखूनों से छाल छिली थी महुए के पेड़ की वहाँ से आँसू बहा रहा था।” इस वाक्य तक मुझे पढ़ते रहने के लिए हिम्मत करनी पड़ी थी।
मैंने जैसे तैसे अगले दिन यह कहानी पूरी कर ली। नहीं, शायद एक दो वाक्य रह गए थे। अगले दिन पढ़ा अंतिम वाक्य कुछ इस तरह था, “लाश का अपमान नहीं करना चाहिए।”
यदि किसी संग्रह की कोई एक कहानी भी पाठक अंतर में कोई सोया हुआ मानवीय भाव जागा दे तो वह अपने मकसद में सफल कहा जाएगा। लीलण, न जाने कितनी लीलण, हमारी असभ्य पुरुष सत्ता की भेंट चढ़ती हैं। यह कहते हुए मैं इस बात की आशंका को सामने रखता हूँ कि संवेदना और समझ की कमी में स्त्रीसत्ता और पुरुष सत्ता दोनों खराब हो सकती है। जिस समाज में मृत पुत्र का अस्तित्व और सम्मान मुआवजे की रकम से अधिक न रह जाता हो, वहाँ किसी लीलण को कौन पूछता है। हमारे पुरुषों और परिवारों को पत्नी, प्रेयसी, बहन और बेटी के तौर पर हजारों लीलण मिल जाएंगी, कुछ मर खप जायें तो किसे फर्क पड़ता है। कम से कम होश वालों को तो नहीं। होश वालों को सौदा करना आता है। जो बेहोश हैं उनकी अपनी समस्या है – वह दरिंदे हैं या दिलदार। इस कहानी में जो अकेला इंसान खड़ा है वह बेहोश नहीं है तो तकनीकि रूप से होशमंद भी तो नहीं है।
इस कहानी संग्रह में नौ पठनीय कहानियाँ हैं।
“ऑर्किड” कहानी को हम आदिवासी स्त्री संघर्ष के साथ भारत और उसके “अभिन्न अंगों” के बीच के संघर्ष के बारे में बात करती है। इस कहानी में आप ज़मीनी समाज और केन्द्रीय सत्ता के संघर्ष को देख पाते हैं। यह कहानी आपसी संवाद, समझ और विश्वास की कमी को रेखांकित करती है। वास्तव में यह कहानी भारत के किसी भी भाग कि की हो सकती है। यहाँ मणिपुर की बात हो रही है। एक कहानी के एक पात्र का कथन, “डेवलपमेंट जो है न इंडियन गवर्नमेंट का, वह ईस्टर्न यूपी के बाद खत्म हो जाता है।“ अपनी सच्चाई के अधिक अलग नहीं है। यह सच्चाई ही वास्तव में देश भर में फैले बहुत से संघर्षों का आधार है जिनमें से कई हिंसक हो गए हैं।
अगर मैं कहानी में होता होता तो, इस पात्र को टोकता और कहता, “डेवलपमेंट जो है न इंडियन गवर्नमेंट का, जेवर से आगे उसकी हड्डी ही बचती है जिसे कुछेक बड़े शहर चुभलाते रहते हैं”। खैर कहानी अपने मूल में कहीं अधिक गंभीर मुद्दे पर बात कर रही है। इस कहानी को पढ़कर समझा जाना चाहिए।
पहली कहानी “नर्सरी” का शिल्प मुझे प्यारा लगा। यह एक गेंद के चाय बागान और उसके आसपास भटकने के बहाने बागान के जीवन के भटकावों से हमारा परिचय कराती है। इस प्रकार यह कहानी तथाकथित भोगे हुए यथार्थ का कोई दावा नहीं पेश करती। दूसरी कहानी “नीला घर” अरुणाचल के एक आदिवासी से सुनी गई कहानी है, जो वहाँ के जीवन के बारे में एक झरोखा खोल देती है। “ज़मीन” राजस्थानी आदिवासी लड़की के पारिवारिक संघर्ष की कथा है तो “एक थी लीलण” यौन अपराध की शिकार आदिवासी लड़की की मृत-देह के मार्फत अपनी कथा कहती है। यह दोनों कहानियाँ कुछ कमीवेशी के साथ किसी भी नागर लड़की की कहानी हो सकती थीं। हमारा समाज जड़-जोरू-ज़मीन के मामले में आज भी आदिम ही है वह सभ्यता के मोड़ पर आदिम से आदिवासी की यात्रा भी पूरी नहीं कर सका है।
“कुरंजा” कहानी विशेष है क्योंकि यह किसी आदिवासी या ग्रामीण लड़की की कहानी ही हो सकती थी। यह किसी अन्य समाज की स्त्री के लिए भोगा नहीं पर समझने योग्य यथार्थ है। वहीं “अवशेष” आदिवासी लड़कियों के साथ हमारे “असभ्य” समाज के व्यवहार का चित्रण है। संग्रह की अंतिम कहानी, “रक्स की घाटी और शब-ए-फ़ितना” न सिर्फ स्त्री वरन अपने पूरे समाज के दुःख की कहानी है।