रवीश कुमार कह रहे है, किताब जितनी मेरी है उतनी ही विक्रम नायक की भी है| जब किताब खोली तो विक्रम नायक सबसे पीछे दिखाई दिए तो मैंने उन्हें आगे करते हुए, पीछे से किताब पढ़ना शुरू किया|
यूँ क़ुतुब मीनार पर दूरबीन लगी है, इश्क़ दूर जाना चाहता है, दूर तलक जाना चाहता है|
किताब शुरुआत में जंतर मंतर सी लगती है और अन्ना महसूस होते हैं लवपाल की चाहत मेट्रो सी लगती है| जब मेट्रो वैशाली के जंगल में प्रवेश करती है मंगल कलश के बराबर रखा दीपक उम्मीद सा लगता है| बारीकी से पकड़ा गया है, उस वैशाली से इस वैशाली तक का सफ़र|
अन्ना, रैली, मीडिया पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के बीच प्रेम पसीज रहा है| प्रेम का झंडा छितरा रहा है, दिमाग का पर्चा उड़ रहा है मगर जोड़ा नहीं बन पा रहा है| मैं अभिभूत हूँ अभिव्यक्ति पर|
बाइक वाला चित्र गूगल ग्लास हो गया है| साऊथ दिल्ली आँखों में बस गयी है और बाइक हकीकत की ओर जा रही है| साथ जा रहे है मगर साथ भी तो नहीं जा रहे, मगर जो तो रहे ही हैं| जोरबाग छूट रहा है, मगर दिल्ली मुड़ कर भी तो नहीं देखने देती| दिल्ली शतरंज ही तो नहीं है, दिल्ली में प्यादे नहीं खेलते|
दिल्ली की निगाहें आपको देखती नहीं है तो अकेले भी तो नहीं छोड़तीं| सीसीटीवी कैमरे हों या ऑटो| दिल्ली एक पिंजड़ा ही तो है जिसे आप पकड़ना चाहते हो और जहाँ से आप उड़ जाना चाहते हो| दिल्ली जहाँ कोई आप नहीं आता मगर हर कोई देख लेना चाहता है|
कुल मिला कर दिल्ली के तमाम पुल फ्लाईओवर और मेट्रो दिल्ली को जोड़ ही नहीं पाते| दिल्ली दिल सी तो लगती है मगर रहती दिल्ली ही है| दिल ऑटो सा छोटा है, फुर्र हो जाना चाहता है|
मैं विक्रम नायक की नजर से दिल्ली देख रहा हूँ| उनकी दिल्ली इश्क़ नहीं है, दिल्ली इश्क़ हो जाना चाहती है| मैं आखिरी चित्र तक पहुँच गया हूँ| दिल्ली शहर नहीं दिल्ली हो गई है| यह चित्र विक्रम नायक की दिल्ली का भव्य दुखद प्रारूप है| मैं इस चित्र एक अलग किताब की घुटन महसूस करता हूँ, मगर यही एक कौने ने रवीश कुमार अपने हस्ताक्षर कर देते हैं| यहाँ मेट्रो की आवाजाही में प्रेम लप्रेक हो रहा है| मुखपृष्ठ पर रवीश हाशिये पर है| आखिर जिस प्रेम को वो लिख रहें हैं, वो खुद हाशिये पर ही तो खड़ा है| रवीश कुमार का प्रेम करावल नगर सा ही महसूस हो रहा है| अब रवीश कुमार को पढूंगा मगर लिखूंगा नहीं| मैं बुराड़ी नहीं होना चाहता|
यह पुस्तक अमेज़न पर यहाँ उपलब्ध है|
पुनश्च:
विक्रम नायक के लोगों के लिए किताब रोहिणी है, रवीश कुमार वालों के लिए द्वारिका| जिन्हें दोनों को पढ़ना है, उनके लिए जोरबाग| मगर पढ़ने से पहले अगर पैदल ही कनॉट प्लेस से चांदनी चौक का चक्कर लगा आयें, तो किताब रायसीना हिल्स सी लगने लगेगी|
बहुत सुन्दर कल्पना और शब्दों का प्रयोग ..तहे दिल से धन्यवाद ऐश्वर्य मोहन गहराना ji.रवीश से विक्रम का सफर तो सभी कर रहे थे ..विक्रम से रवीश का सफर कुछ अलग अंदाज मे है .. कई बार मीठे से खाने की शुरआत ..आखिर मे एक बार ओर मीठा खाने का मौका देती है ! वैसे इस शहर के सफर के 90 पेज बीच मे से हटाओगे तो रवीश जी ओर विक्रम आमने-सामने खड़े मिलेंगे !.. बहुत सारा आभार ओर शुभमनाएं ..
पसंद करेंLiked by 1 व्यक्ति
पिगबैक: इश्क़ का माटी होना | गहराना
पिगबैक: इश्क़ कोई न्यूज़ नहीं | गहराना