शब्दहीन संवाद मेरे
जाने कितने सार्थक हैं
जाने कितने कारगर हैं
जाने कितने नाटकीय हैं?
परन्तु हैं अवश्य
कुछ न कुछ|
सुनता है कोई
आँखों से, ह्रदय से,
पर कैसे, कितना
जाने किस अर्थ में?
उनकी सरलता और गूढता के मध्य
संघर्ष रत ह्रदय के साथ,
साथ साथ नहीं चल पाता
मैं सदा मष्तिष्क के|
या मष्तिष्क पिछड़ता है
ह्रदय के इस दौर में|
शब्द हीन संकेत कहता हूँ
शब्द परक संकेत करता हूँ,
कंगाली के गीले आते सी
दुविधा बढ़ जाती है|
दूरियों के इस ओर मेरा साकार
दूरियों के उस ओर निराकार
कोई समझ नहीं पाता कुछ
सही, सटीक, सार्थक|
जो कि मैं समझाना चाहता हूँ
दूरियों के इस पार से|
क्योकि मेरे संवाद
शब्दहीन होते हैं बेशक
संकेत हीन नहीं रह पाते
हीनता के चंगुल में|
मेरा ह्रदय और मष्तिष्क
ढूंढता हैं क्रिया – प्रतिक्रिया
सुसमय, सटीक, सम्पूर्ण,
प्रतिक्रियाएँ सदा नहीं आतीं|
तपता रहता है ह्रदय
टीपता सा उस पार|
दूरियों के उस पार का
धुंधला सा प्रकाश बिंदु
निराशा मुक्त रखता है
आभायुक्त रखते हुए|
मुझे आशा है निरंतर
यह क्षितिज का सूर्य है
शिशु – बाल से यौवन तक
विस्तार पायेगा, उठते हुए|
ह्रदय में टिमटिमाता है भय
यह दिशा पश्चिम न हो|
संवाद प्रेषित करता हूँ निरंतर
शब्द हीन, यदा-कदा संकेत हीन
बेखबर इस भय से, कहीं
अन्धकार में न पाया जाऊं||
ऐश्वर्य मोहन गहराना
(यह कविता अप्रेल 1994 में लिखी थी, उस समय नव युवक के
मन में उमड़ती प्रेम की व्यथा, दिमाग में घुमती ईश्वर की सम्भावना,
जीवन की नितांत अनिश्चितता की कथा कहीं थी शायद मैंने|
उस समय जो टिप्पणी लिखी थी, प्रस्तुत है:
“यह कविता किसी भी वाक्य में मेरी
मेरी बात का एक वाक्य भी पूर्णता से
नहीं कह पाती| परन्तु लिखने के बाद मुझे
निश्चिंतता है, मैं भाव व्यक्त कर सका|
भले ही उस से नहीं, उन से नहीं जिनसे
व्यक्त करना चाहता हूँ|”)
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Very nice catpre of youth moments. Loved every paragraph of it.
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धन्यवाद दिवाकर नारायण जी! आशा है आप इस ब्लॉग पर मेरी पुरानी कविताओं को भी पढना पसंद करेंगे|
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