इक्कीसवीं सदी में मध्ययुगीन भारत के सतयुगी सपने – १


 

हम भारतवासी हमेशा उन प्राचीन सपनों में खोये रहते हैं जिनमें हम “सोने की चिड़िया” और “विश्वगुरु” के रूप में बखानते रहे हैं| हमारी प्राचीन संस्कृति और समृद्धि कभी दूसरों के सपने में उन्हें लुभाती है मगर आज हमें भी लुभाती है| यह प्रवृत्ति शायद उत्तर भारत में अधिक है, जहां विदेशी आक्रमणों और लूटपाट का अधिक असर रहा| हम आदतन, प्राचीन संस्कृति और समृद्धि का नाम जरूर एक साथ लेते है, मगर हम मध्ययुगीन संस्कृति और प्राचीन युगीन समृद्धि को एक साथ जोड़ देते हैं|

पहले समृद्धि के बारे में मत स्पष्ट कर लेते हैं| हमें मौर्य, शक, कुषाण, गुप्त, और वर्धन वंश द्वारा भारत, विशेषकर उत्तर भारत के विकास और समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान का सदा ही विश्वास रहा है| हम जब भी किसी अखंड भारत की बात करते हैं तो हमारे पास मौर्य वंश और आज के भारत का मिला जुला मानचित्र होता है| हमारा सारा प्राचीन ज्ञान विज्ञान इसी समय में विकसित हुआ था| मगर दुर्भाग्य से इसके बाद देश ने विकास की राह नहीं पकड़ी और विनाश की ओर बढ़ता गया|

इस बात पर हम एक मत होंगे कि भारत पर हुए सभी विदेशी आक्रमणकर्ता देश से कुछ न कुछ लूट कर ले गए और देश को लगातार खोखला करते रहे हैं| हमारी प्राचीन समृद्धि का नाश कन्नौज के हर्षवर्धन के वंश के साथ 700 इस्वी संवत से होने लगा था| उसी समय 711 इस्वी में उम्मायत खिलाफत के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने बोद्ध बहुल सिंध के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा कर देश में मध्य युग का प्रारम्भ कर दिया|[i] अगले छः सौ वर्षों तक कोई भी ऐसा उल्लेखनीय राजा हमें नहीं मिलता जिसने देश में विकास और समृद्धि का कोई महत्वपूर्ण कार्य किया हो| कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि परशुराम द्वारा सभी क्षत्रियों को समाप्त कर दिए जाने की कथा इसी अवस्था का द्योतक रही है| उसके बाद कुछ समय राजपूतों के राज्य का प्रारंभ होता है, जो अपनी तमाम महत्वपूर्ण कोशिशों के बाद भी राजपूत रह जाते हैं, राजा नहीं हो पाते| देश में आपसी लूटपाट और लड़ाई झगड़े बने रहते हैं और कोई भी अपने प्रभाव क्षेत्र से आगे बढ़कर भारतीय पहचान नहीं बना पाता| इसके बाद भले ही कोई भी राज रहा हो देश का इतिहास मुगलों के आने तक गहन अन्धकार में जीता रहा| यह अन्धकार इनता जबरदस्त है कि अनपढ़ और अधपढ़ भारतीय समुदाय बाबर को पहला विदेशी आक्रमणकारी मानता है|

सिंध पर सन 711 इस्वी में प्रारंभ हुए बाहरी शासन का विस्तार धीरे धीरे दिल्ली और फिर पूरे देश में फैलने लगा| दिल्ली के प्रारंभिक मुस्लिम शासक गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुग़लक वंश, सय्यद वंश और लोदी वंश के बारे में आम जनता में प्रायः जानकारी नहीं है| इन लोगों ने दिल्ली को सल्तनत बना दिया, जिसका अर्थ वास्तव में अपने को बड़ा, बाहरी, और अलग शासक समझना था| इस लोगों ने दिल्ली में सन 1206 से 1526 तक राज किया| इसके बाद मुग़ल शासकों में देश में राज्य किया मगर यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि उन्होंने अपने को, तमाम कट्टरपंथी विरोधों के बाद भी, स्वतंत्र सत्ता माना और देश में प्रवेश करते समय ही यहाँ रुकने, रहने और अपनाने की बात की| मगर उस समय एक नयी साम्राज्यवादी ताकत यूरोपियन विशषकर अंग्रेजों के रूप में सर उठा रही थी| जिन्हें मुगलों के इस देश में घुलने मिलने से ही सबसे बड़ी चुनोती थी| उनका इस देश के प्रति समझ का दायरा भी मुग़लों तक था| यही कारण है कि देश के इतिहास में हमें अरब, तुर्क, और अफ़गान शासकों की आलोचना से अधिक मुग़लों की आलोचना सुनने को मिलती है| इसी दुष्प्रचार के प्रारंभिक चरण के रूप में बाबर को देश के पहले बाहरी शासक के रूप में प्रचारित किया गया और आज भी किया जाता है| क्या केवल मुगलों को प्राचीन भारतीय संस्कृति का नाश करने का दोष देकर हम उनसे पहले के सभी विदेशी शासकों को बिना सोचे विचारे दोष मुक्त नहीं कर देते?

क्या केवल मुगलों को प्राचीन भारतीय संस्कृति का नाश करने का दोष देकर हम उनसे पहले के सभी विदेशी शासकों को बिना सोचे विचारे दोष मुक्त नहीं कर देते?

यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि कोई भी शासक समूह अपनी संस्कृति और भाषा को श्रेष्ठ मानता है और अपनी शाषित – शोषित जनता की सभी संस्कृति को निम्न और गलत सिद्ध करने के लिए साम दाम सब प्रयोग करता है| जब देश पर मात्र 200 वर्ष राज्य करने वाले अंग्रेज हमारी गंगा जमुनी संस्कृति को नष्ट करने में सारा जोर लगा देते हैं और काफी हद तक सफल होते हैं तो क्या कुल जमा हजार साल राज करने वाले अरब और तुर्क साम्राज्यवादियों ने क्या कोई प्रयास नहीं किये होंगें?

किस तरह के प्रयास रहे होंगे? क्या जजिया ही काफी रहा होगा? नहीं! अरब भारत के साथ बहुत पहले से, इस्लाम के पहले से ही भारत के साथ व्यापार कर रहे थे| उन्हें न केवल भारत की समृद्धि की जानकारी थी बल्कि उसकी वैज्ञानिक और गणितीय उन्नति से विश्व का परिचय करा रहे थे| अगर भारत को विश्व- गुरु कहना है तो अरब उस विश्व-गुरु के संदेशवाहक थे| उस स्तिथि में जब वह भारत पर राज करने आये तो स्वाभाविक रूप से या तो वो इस देश के ज्ञान – विज्ञान को बढ़ावा देते या अपना वर्चस्व बनाने के लिए उसे नष्ट करते| इस समय में बाहरी मुस्लिम शासक अपने को मुस्लिम खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में बनाये रखने के कारण कभी पूरी तरह से स्वतंत्र शासन नहीं कर पाए तो राजपूत अपने खुद की फूट और अदूरदर्शिता में उलझे रहे| इस समय में जनता के पास करने के लिए, रोजी रोटी जुटाने के अलावा कुछ नहीं था| जिस समय यूरोप अपने अंध युग से बाहर निकल कर विकास कर रहा था, भारतीय अंधे कुएं में थे| सांस्कृतिक आदान – प्रदान के साथ विनाश और विकास की लम्बी प्रक्रिया चलती रही| वह समय आज का तेज कंप्यूटर युग नहीं था इसलिए यह एक धीमी और सतत प्रक्रिया रही होगी| यह प्रक्रिया जितनी लम्बी रही होगी उनता ही इसमें दो तरफ़ा संवाद की सम्भावना बनती है और नयी अवधारणा और विचार पैदा होते है| प्राचीन अवधारणा अपनी नयी व्याख्याओं के साथ प्रस्तुत हुई होंगी| शासित भारतीय समाज ने शासकों के कई मत अपनाये होंगे और अपने विचारों की नवीन व्याख्या कीं होंगीं|

जिस समय मुग़ल भारत आये, भारत में नए सांस्कृतिक विचार जन्म ले रहे थे और यह जन जागरण का समय था| भारतीय समाज में से बोद्ध वर्चस्व समाप्त हो चुका था| जैन किसी प्रकार की मजबूती नहीं पकड़ पाए थे| वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय एक नयी व्याख्या रचते हुए हिन्दू समाज को नए अर्थ दे रहे है| पश्चिम से आते नए विचार भी कहीं न कहीं जनता तक पहुँच रहे थे| उस समय के घटना क्रम को कई प्रकार से संजो कर रखा जा सका| परन्तु इस समय तक भारत की प्राचीन संस्कृति, सांस्कृतिक आदान – प्रदान और राज शक्ति के समक्ष लगभग रक्षात्मक रुख अपना चुका भारतीय जन मानस उस समय अपने लिए रक्षात्मक जीवन शैली और विचार अपना चुका था| एक गंगा – जमनी तहजीब पैदा हो रही थी जो आज भी तमाम कशमकस के बीच अपने पूरे रंगढंग में मौजूद है|

भारतीय मुस्लिम समाज, अपने को कितना ही अरब और तुर्क से जोड़े, आज पसमांदा मुस्लिम (जाति प्रथा), दहेज़, और अनेक प्रथा – कुप्रथा इसी लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा है| इस समय भारतीय हिन्दू समाज के पास जो अवधारणा निकल कर आयीं उनमे से कई आज भी जिन्दा हैं| हमने अपनी कई प्राचीन परम्पराओं को न सिर्फ त्याग करना शुरू कर दिया वरन उनके ऐतिहासिक और मिथिकीय वर्णनों के लिए नयी रक्षात्मक व्याख्या देना भी शुरू कर दिया| आज इनमे से कई चीजें हमारे भारतीय समाज में घुल मिल गयीं है|

इस पर हम अगले आगामी चिठ्ठे में चर्चा करेंगे|

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