हम क्यों तड़पते हैं!!
दूर छोर पर रहते,
किसी अनजान के लिए|
अपना अस्तित्व,
अपनी चेतना,
समाहित करने के लिए||
क्यों खो देते हैं,
अपना आप,
अपना स्व,
अपना स्वाभिमान|
निरे दंभ के बाद भी,
चारण बन जाते हैं,
किसी के||
अपनी प्रोढ़ता को
क्यों बचपन में बदलते हैं|
दूसरों को हम
अपने लिए
दौड़ाते दौड़ाते,
खुद,
टहलने लगते हैं;
प्रतिपल, प्रतिक्षण,
आस पास, आजू बाजू|
अपना स्थापित सा
परिचय
क्यों भुला देते हैं,
मिटने मिटाने जैसा|
नए क्षितिज की ओर
नए परिचय का
अन्वेषण,
क्यों करते हैं|
क्यों मिट जाती हैं,
हमारी;
आशाएं, आकांक्षाएं, अभिलाषाएं|
समुद्री रेत के महलों की तरह
आती जाती लहरों पर
सवार होने के लिए|
हमारा ह्रदय!
हमारा अपना ह्रदय,
क्यों भर जाता है,
ज्वार से,
उन समुद्री दुष्चरित
आती जाती लहरों से|
हमारी अपनी लक्ष्मण रेखाएं,
क्यों राख हो जाती हैं
हमारे अपने स्पर्श से|
जलतरंग
हमारे ह्रदय की
जलतरंग!
क्यों बदल जाती है
शहनाई में|
शहनाई जो
बधाई की होती है
सुख की होती है
दुःख की होती है
सन्नाटे की होती है|
अपने ही हाथों
हम अपना क्यों
नृशंस संहार करते हैं|
आखिरकार;
आखिर क्यों
हम प्यार करते हैं?
ऐश्वर्य मोहन गहराना
(मूल कविता अब से १९ वर्ष पूर्व अप्रेल 1994 में लिखीं गयीं थी, उन्हें अब पुनः व्यवस्थित कर कर
प्रस्तुत कर रहा हूँ| आशा हैं, प्राचीनता का अनुभव नहीं देगी|
मेरे बचपन के साथी मुझे उस समय प्रोढ़ कहते थे और आज बहुत से लोग मुझ में बचपन खोज लेते हैं,
ऐसे ही किसी प्रसंग में इस कविता की याद हो आई|
इसकी कुछ पक्तियां बार बार मेरे दिल को छू रही हैं: “अपनी प्रोढ़ता को, क्यों बचपन में बदलते हैं”
शायद उस समय भी सत्य थीं और आज भी हैं| मित्र बताएँगे|)
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