उमराली में भगौरिया
उमराली में भगौरिया
उमराली में भगौरिया
बालपुर में भगौरिया
बालपुर में भगौरिया
सभी चित्र: ऐश्वर्य मोहन गहराना
विचार वेदना की गहराई
मुद्दा तो यही है न, इश्क़ और हँसी पर लिखना है| वो भी अपने “बैटर हाफ” वाला इश्क़; यानि, वो इश्क़ जो होता है तो कोई बताता नहीं, नहीं होता तो सब बताते हैं| तो भाई, बैटर हाफ के साथ, इश्क़ की ईमानदार बात उन्हीं दिनों सो सकती है जब वो वास्तव में बैटर हाफ न हों|
दरअसल, बात उन दिनों की है जब न इश्क़ था, न इश्क़ की बातें, न शादी थी, न बेग़म| घर वाले जान के पीछे पड़े थे| और सारे नाते रिश्तेदार सब साजिश में शमिल थे| कहा गया, मिल लो, बाद में चाहो तो मना कर देना|
लाला की नौकरी में छुट्टी मिलना भी बोनस मिलने की तरह होता है| दोनों तरफ से कहा गया, हम आते हैं किसी इतवार| जिस शहर में मैं नौकरी करता था वहाँ, रहने का ठिकाना सब गड़बड़ था| तो मुलाकत के लिए कॉफ़ी हाउस तय हुआ| साथ में बता दिया गया कि लड़की हमारी चाय कॉफ़ी तक नहीं पीती, तो उसके लिए पानी, दूध या जूस का इंतज़ाम किया जाये| पहली बार कोई आ रहा था मुझे से मिलने और वो भी शिकार फांसने; उस पर खातिरदारी के भी नखरे उठाने थे|
दुआ – सलाम हाय – हेलो के बाद आप बैठिये आप बैठिये हुआ| मेजबानी करने की जिम्मेदारी मेरी थी| सेल्फ सर्विस कॉफ़ी हाउस में मैं सबके लिए पानी और कॉफ़ी लाकर रखने लगा| मेरी होने वाली सासू माँ अपनी बिटिया जी के चाय-कॉफ़ी तक को हाथ न लगाने के किस्से बता बता कर माहौल बनाने की कोशिश कर रहीं थी| मेरे पिताजी डर कर बैठे थे कि कहीं ये लड़की शादी के बाद घर में चाय – कॉफ़ी पीना भी न बंद करा दे| सबके लिए कॉफ़ी लाते लाते मुझे डर लगा कि कहीं घर में नुक्सानदेय काली – पीली बोतलें न आने लगें| सर्विस काउंटर पर सेल्स गर्ल ने चुहल की, सर, शादी के बाद तो आपको बराबर के ठेके वाला ड्रिंक ही पीना पड़ा करेगा|
जब में होने वाली पत्नी जी के लिए मौसमी का ताजा जूस लेकर सर्विस काउंटर से वापिस मुड़ा, तो मेरे पिताजी मुस्करा रहे थे, ससुर साहब कॉफ़ी हाउस का मीनू उल्टा ही पढ़ रहे थे, उनका भाई मोबाइल में स्नेक खेल रहा था, मेरी बहन अपनी होने वाली भाभीजी को अजीब से देख रही थी| सासू माँ, अपनी साड़ी के पल्लू से वो कॉफ़ी साफ कर रहीं थी जो अभी तक नहीं गिरी थी|
मेरी सीट हाथ से जा चुकी थी, मेरी पसंदीदा कॉफ़ी हाथ से जा चुकी थी| उस दिन इश्क़ तो हुआ, समय की नज़ाकत देखकर हँसी बाद के लिए टाल दी गई|
मेरी सासू माँ आज भी कायम है कि उनकी बेटी चाय – कॉफ़ी नहीं पीती| ससुर साहब को लगता है शादी के बाद लड़कियों में कुछ परिवर्तन हो जाता है| पत्नी के ससुराल वाले जब तब इस किस्से को लेकर हम दौनों पर हँसते हैं|
मैं रोज पत्नी के लिए भी कभी कभी चाय – कॉफ़ी बनाता हूँ और मुस्कराहट के साथ सर्वे करता हूँ| पत्नी जी आज भी मेरे साथ हँस हँस कर दावा रखतीं हैं कि वो चाय कॉफ़ी नहीं पीतीं|
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शहर में पले बढ़े बाबू साहब लोग गाँव – देहात के बारे में इस तरह बात करते हैं जैसे किसी जंगल की बात कर रहे हों| हम एक अनपढ़, असभ्य, अविकसित, लोक की कल्पना करते हैं जिसमें घासफूस खाने वाले जानवर आदमखोर आदमियों के साथ रहते है|
गाँव का एक अलग लोक होता है| परन्तु हमारी कल्पनाशीलता उस कच्चे माल से बनती है जिसे गाँव से आने वाले लोग अनजाने में ही हमें दे जाते हैं| बड़ी बड़ी ऊँची इमारतें, कंक्रीट की सड़कें, फ्लाईओवर, ब्लीच और क्रीम से नहाये हुए चिकने चुपड़े चहरे उन्हें शहर में परीलोक का आभास देते हैं| भौचक ग्रामीण अक्सर उन बातों और चीजों के बारे में बताते हैं जो शायद उनके पास नहीं होतीं हैं|
जब तक शहरी लोग गाँव नहीं जाते तब तक हमें उन बातों और चीजों का अहसास नहीं होता जो शहर में नहीं बचीं है|
अक्सर हम शहर की भागदौड़, भीड़, अकेलेपन और बनावट को दुत्कारना चाहते है और यह चीजें गाँव से लौटें पर खटकने लगतीं है|
लगभग पंद्रह वर्ष पहले मैं उस गाँव में गया था जहाँ आजादी के समय पुरखों की जमींदारी हुआ करती थी| गाँव में कुल जमा सत्तर घर थे, शायद चालीस से भी कम घरों में खेतीबाड़ी का काम होता था| दस घरों के लोग सरकारी नौकरी और मास्टरी की नौकरी में थे| बाकी के घरों में अन्य काम थे, जिन्हें हम प्रायः छोटा मोटा काम कहते हैं|
गाँव में एक चीज बहुत थी; प्रेम| हमारे गाँव में घुसते ही हमारे आने की खबर सारे गाँव को लग चुकी थी| सोशल नेटवर्क आज के फेसबुक और ट्विटर से तगड़ा था| जिन लोगों को हमारे उस गाँव से रिश्ते के बारे में नहीं पता था वो शर्मिंदा होकर किस्से सुन रहे थे और गाँव में हमारे परिवार के पुराने निशान पहचान रहे थे| हम गाँव के बीचों बीच के बड़े घेर में बैठे थे और किसी एक घर के मेहमान नहीं थे| हर घर में कुछ न कुछ हमारे लिए पक रहा था| जो लोग हमारे पुराने पडोसी थे उनमे खींचा तान थी कि कों हमने दोपहर का भोजन कराएगा| हमने नाश्ते का तो इतना ही पता है की हमने खाया कम बिगाड़ा ज्यादा; मगर दोपहर खाना हमने तीन घरों में खाया|
लेकिन सबसे मजेदार बात थी पानी!!
जी हाँ, हमें गाँव का पानी बहुत पसंद आया उसमें एक खारी – मीठा सा स्वाद था| हम उस पानी को पीकर तृप्त हो जाना चाहते थे| जब बहुत पी चुके तो हमने उस पानी की तारीफ करनी शुरू कर दी| मगर जो लड़की हमें पानी पिलाने पर लगी हुई थी वो हँसते हँसते लोट पॉट ही गयी, “शहर वाले तो बहुत सीधे होते हैं, खारे भारी पानी में चीनी मिला कर पिलाया जा रहा है|”
आज की शहरी भाषा में कहें तो “एक्स्ट्रा रिच मिनरल वाटर”!!
हर पल
मेरी बातें करता|
सुबह शाम
मोबाइल मचलता|
जागना, सोना, खाना, पीना,
बिन मेरे न जीना|
चल दीं, पहुँचीं,
हर जगह पर क्यों होती हो,
बारिश धूप में क्यों रोती हो|
चिंता, हर दम हर पल,
नींद उड़ा बैठा है|
सुबह छोड़ना दफ्तर तक,
लेने आना रोज,
हरपल उसकी आँखें
करती मुझको खोज|
न चिंता खुद के खाने की
न अपने दफ्तर जाने की|
कितना ही अच्छा है,
कितना ही भोला है,
कितना प्यार भरा है,
कितना ध्यान धरा है||
न पूछो उसकी बातें,
सोचती हूँ,
क्या होगा जब पाऊँगी,
उसने जीवन में सिर्फ प्यार करा है,
मुझको पाने की खातिर,
सोंप सका क्या मुझको,
अपने जीवन की थाती?
क्या माता की आशा,
क्या पिता का तप,
क्या भाई के बल,
क्या बहन का स्नेह,
कुछ मान रख पाया है?
पढ़ न सके तुम मेरी खातिर,
कर न सके तुम मेरी खातिर,
उन्नति के पथ की बातें?
प्रेम की पोथी बांची थी जब,
ज्ञान की पोथी क्यों छोड़ी?
करते थे आने जाने का क्रम,
कर न सके तुम थोड़ा श्रम?
मैं प्रेम तुम्हारा हूँ,
जीवन का धिक्कार नहीं,
जो उन्नति को रोके,
वो सच्चा प्यार नहीं||
एक प्रसिद्ध फ़िल्मी संवाद है; “अगर लड़की स्कूटी पर हो तो प्यार हो जाता है, मगर मर्सडीज़ में हो तो करना पड़ता है|”
साथ ही एक पुरानी कहावत भी है; “लडकियों का सच्चा दोस्त हीरा ही होता है”|
अपने विद्यार्थी जीवन से ही हम उन युगल को देखते आयें हैं जिनमें एक पक्ष प्रायः पढाई, कमाई, या चमकाई में अपने साथी के मुकाबले बहुत कम होता है| परन्तु इन सभी मामलों में दूसरा साथी, प्रायः, पहले साथी को बहुत ही हंसमुख, ध्यान रखने वाला, पूर्णकालिक वफादार साथी मानता है| इन जोड़ों के बारे में प्यार अँधा है वाली कहावत का हम उदाहरण हमेशा देते रहते हैं|
मगर क्या यह जोड़े सदा साथ रहते है; शायद नहीं| मुझे लगता है बराबरी के प्रेम विवाह ज्यादा सफल होते हैं| प्रायः समाज असमान विवाह नहीं होने देता और अगर किसी प्रकार यह विवाह होते हैं तो कई समस्या आतीं हैं| मैं मानता हूँ कि यह समस्याएं परिवार द्वारा तयशुदा भारतीय शादियों में भी उतनी ही होतीं हैं, मगर पारिवारिक विवाहों में सारे लड़ाई- झगड़ें, मान- मुअव्वल और समझौते पूरे परिवार के होते हैं|
बेमेल प्रेम संबंधों पर भले ही परिवारों ने मुहर लगा दी हो तब भी परिवार कभी भी इन जोड़ों के आपसी समस्या सुलझाने के लिए आगे नहीं आते|
यह प्रेममयी सप्ताह है| प्रेम आज सबसे कम चर्चित और सबसे अधिक विवादास्पद शब्द है| धार्मिक कट्टरपंथियों ने इसे ममता, वात्सल्य, स्नेह, मित्रता और आदर का पर्याय बनाने का प्रयास किया है तो सांसारिक अतिवादियों ने कामुकता का|
विवाह और प्रेम की आपसी स्तिथि तो और भी खराब है| विवाह जहाँ धार्मिक या अधिक से अधिक सामाजिक सम्बन्ध है तो प्रेम हार्दिक या आत्मिक|
प्रेम विवाह के बाद भी प्रेम बरकरार रहेगा अथवा विवाह में प्रेम उत्पन्न होगा?
प्रेम में कामुकता आएगी या कामुकता में भी प्रेम बना रहेगा?
जीवन की वास्तिविकता को स्वीकार करें या न करें, परन्तु स्तिथि कुछ इस प्रकार है:
सप्रेम अवैवाहिक कामुक सम्बन्ध!
अप्रेम अवैवाहिक कामुक सम्बन्ध!
सप्रेम वैवाहिक कामुक सम्बन्ध!
अप्रेम वैवाहिक कामुक सम्बन्ध!
सप्रेम वैवाहिक सामाजिक सम्बन्ध!
अप्रेम वैवाहिक सामाजिक सम्बन्ध!
सप्रेम विवाहेतर कामुक सम्बन्ध!
अप्रेम विवाहेतर कामुक सम्बन्ध!
सप्रेम विवाहेतर सामाजिक सम्बन्ध!
अप्रेम विवाहेतर सामाजिक सम्बन्ध!
मैं न तो विवाह की संस्था पर प्रश्न उठता हूँ, न प्रेम की वास्तविकता पर| परन्तु क्यों प्रेमपूर्ण सम्बन्ध समाज की वयवस्था दम घोंट दिया जाता है|
क्या हमें प्रेम की कद्र करना नहीं आना चाहिए?
यदि विवाह बहुत पवित्र है तो संन्यास का पलायन क्यों है?
यदि संन्यास संसार की पूर्णता है तो स्त्री का त्याग क्यों है? घर छोड़कर भागना क्यों है?
यदि विवाह की संस्था इतनी पवित्र है तो तलाक का बबाल क्यों है?
यदि तलाक, विवाह का कलंक है तो विवाह में कुंठा क्यों है?
प्रेम को जीवन की पूर्णता मानने से हमारा इन्कार क्यों हैं? केवल विवाह को ही प्रेम मानने की हठ क्यों है?
शब्दहीन संवाद मेरे जाने कितने सार्थक हैं जाने कितने कारगर हैं जाने कितने नाटकीय हैं? परन्तु हैं अवश्य कुछ न कुछ| सुनता है कोई आँखों से, ह्रदय से, पर कैसे, कितना जाने किस अर्थ में? उनकी सरलता और गूढता के मध्य संघर्ष रत ह्रदय के साथ, साथ साथ नहीं चल पाता मैं सदा मष्तिष्क के| या मष्तिष्क पिछड़ता है ह्रदय के इस दौर में| शब्द हीन संकेत कहता हूँ शब्द परक संकेत करता हूँ, कंगाली के गीले आते सी दुविधा बढ़ जाती है| दूरियों के इस ओर मेरा साकार दूरियों के उस ओर निराकार कोई समझ नहीं पाता कुछ सही, सटीक, सार्थक| जो कि मैं समझाना चाहता हूँ दूरियों के इस पार से| क्योकि मेरे संवाद शब्दहीन होते हैं बेशक संकेत हीन नहीं रह पाते हीनता के चंगुल में| मेरा ह्रदय और मष्तिष्क ढूंढता हैं क्रिया – प्रतिक्रिया सुसमय, सटीक, सम्पूर्ण, प्रतिक्रियाएँ सदा नहीं आतीं| तपता रहता है ह्रदय टीपता सा उस पार| दूरियों के उस पार का धुंधला सा प्रकाश बिंदु निराशा मुक्त रखता है आभायुक्त रखते हुए| मुझे आशा है निरंतर यह क्षितिज का सूर्य है शिशु – बाल से यौवन तक विस्तार पायेगा, उठते हुए| ह्रदय में टिमटिमाता है भय यह दिशा पश्चिम न हो| संवाद प्रेषित करता हूँ निरंतर शब्द हीन, यदा-कदा संकेत हीन बेखबर इस भय से, कहीं अन्धकार में न पाया जाऊं|| ऐश्वर्य मोहन गहराना
(यह कविता अप्रेल 1994 में लिखी थी, उस समय नव युवक के मन में उमड़ती प्रेम की व्यथा, दिमाग में घुमती ईश्वर की सम्भावना, जीवन की नितांत अनिश्चितता की कथा कहीं थी शायद मैंने| उस समय जो टिप्पणी लिखी थी, प्रस्तुत है: “यह कविता किसी भी वाक्य में मेरी मेरी बात का एक वाक्य भी पूर्णता से नहीं कह पाती| परन्तु लिखने के बाद मुझे निश्चिंतता है, मैं भाव व्यक्त कर सका| भले ही उस से नहीं, उन से नहीं जिनसे व्यक्त करना चाहता हूँ|”)
हम क्यों तड़पते हैं!! दूर छोर पर रहते, किसी अनजान के लिए| अपना अस्तित्व, अपनी चेतना, समाहित करने के लिए|| क्यों खो देते हैं, अपना आप, अपना स्व, अपना स्वाभिमान| निरे दंभ के बाद भी, चारण बन जाते हैं, किसी के|| अपनी प्रोढ़ता को क्यों बचपन में बदलते हैं| दूसरों को हम अपने लिए दौड़ाते दौड़ाते, खुद, टहलने लगते हैं; प्रतिपल, प्रतिक्षण, आस पास, आजू बाजू| अपना स्थापित सा परिचय क्यों भुला देते हैं, मिटने मिटाने जैसा| नए क्षितिज की ओर नए परिचय का अन्वेषण, क्यों करते हैं| क्यों मिट जाती हैं, हमारी; आशाएं, आकांक्षाएं, अभिलाषाएं| समुद्री रेत के महलों की तरह आती जाती लहरों पर सवार होने के लिए| हमारा ह्रदय! हमारा अपना ह्रदय, क्यों भर जाता है, ज्वार से, उन समुद्री दुष्चरित आती जाती लहरों से| हमारी अपनी लक्ष्मण रेखाएं, क्यों राख हो जाती हैं हमारे अपने स्पर्श से| जलतरंग हमारे ह्रदय की जलतरंग! क्यों बदल जाती है शहनाई में| शहनाई जो बधाई की होती है सुख की होती है दुःख की होती है सन्नाटे की होती है| अपने ही हाथों हम अपना क्यों नृशंस संहार करते हैं| आखिरकार; आखिर क्यों हम प्यार करते हैं? ऐश्वर्य मोहन गहराना (मूल कविता अब से १९ वर्ष पूर्व अप्रेल 1994 में लिखीं गयीं थी, उन्हें अब पुनः व्यवस्थित कर कर प्रस्तुत कर रहा हूँ| आशा हैं, प्राचीनता का अनुभव नहीं देगी| मेरे बचपन के साथी मुझे उस समय प्रोढ़ कहते थे और आज बहुत से लोग मुझ में बचपन खोज लेते हैं, ऐसे ही किसी प्रसंग में इस कविता की याद हो आई| इसकी कुछ पक्तियां बार बार मेरे दिल को छू रही हैं: “अपनी प्रोढ़ता को, क्यों बचपन में बदलते हैं” शायद उस समय भी सत्य थीं और आज भी हैं| मित्र बताएँगे|)
हिंदुस्तान में जब भी बात होती है तो इश्क की होती है| जब तक खुद को इश्क न हो तो बस बातें बनायीं जा सकतीं हैं|
नशा –> जुनून –>इश्क
प्यार –> मुहब्बत –> इश्क
दो और सूत्र जोड़ रहा हूँ:
ध्यान –> धारणा –> समाधि
वो –> तुम –> हम –> मैं
.
कहते है, नशा होता है, कुछ दुनियावी चीजों में| मगर नहीं, वो नशा, तब तक नहीं होगा, जब तक आप नशा न करें| ये आप की शिद्दत है, किस शिद्दत से नशा करें| किसी को प्याली – दो प्याली से हो जाता है, और कोई दस प्याली में भी नशे से महरूम रहता है| (अगर अंग्रेजीदां हो तो प्याली को “पैग” पढ़ें|) जो भी है, नशा आपको करना पड़ता है, तब होता है| जैसा चाहें नशा करें, शौक की बात है| भांग, अफीम, बीयर, वोडका, व्हिस्की, रम, वाइन, का| आप कुछ भी स्वाद चखते हैं| कई बार कॉकटेल भी हो जाता है| मगर हम इस नशे की बात आगे नहीं बढ़ा रहे हैं| क्योंकि इस नशे का जुनून, लत कहलाता है और बर्बाद कर देता है|
हमारी बात तो दुसरे नशे की है| दौलत, शौहरत, नाम, धाम का नशा| काम और सफलता का नशा| ये जुनून में बदलता है| जब जुनून सर चढ़ कर बोलता है, तो कुछ और नहीं दीखता| आपकी आँख होती है और चिड़िया की आँख होती है| जैसे महाभारत में अर्जुन की आँख देखती है, चिड़िया की आँख| तीर तो निशाने पर ही जाएगा| अगर एक नशेडी का तीर चूकता है तो उसे अगली बार चिड़िया दिखती है| मगर जब जुनून में तीर चूकता है तो अगली बार आँख की पुतली दिखाई देते है|
यही हाल है प्यार का| लड़कों को हर राह चलती लड़की से हो जाता है और लड़की को हर दुसरे फिल्मस्टार या क्रिकेटर से| कुछ को पढाई से होता है, कुछ को फिल्मों से, तो कुछ को काम से| प्यार में भटकन है; सच्चाई नहीं|
जब आप सही से प्यार कर बैठते हैं तो कहते है; मुहब्बत है| अब कौन दीखता है, मुहब्बत के सिवा| सच्ची मुहब्बत दिन भर का नशा है, प्यार है| आपकी मुहब्बत खुदा हो जाती है, कण कण में राम बसते है| बुत – परस्ती की जरूरत नहीं पड़ती है| सच्ची भक्ति है, जहाँ खड़े है, मंदिर समझते हैं तेरा| हर पल वह ख्याल में रहता है|
जुनून और मुहब्बत में एक बात रहती है; आप बाकि दुनिया से भी जुड़े रहते हो| मगर आपका लक्ष्य सामने रहता है, आपका जुनून, आपकी मुहब्बत|
मगर इश्क उसका अगला पड़ाव है| जब इश्क होता है; तो नफा नुक्सान, समझ, बूझ, गणित, हिसाब किताब, पैसा नहीं देखा जाता| सत्यजीत रे और दादासाहब फाल्के ने बिना पैसे के फ़िल्में बना लीं, ये इश्क है| आप अगर काम से इश्क करते है तो आप काम करते हैं, दाम नहीं देखते| आपको लैला से इश्क है तो आप पत्थर में लैला देखते है, पत्थर नहीं देखते| अगर भगवान से इश्क है, तो कण कण में ही नहीं खुद में भी, भगवान देखते हैं| इश्क में आप मंजिल देखते है, राह के कांटे नहीं देखते|
ये इश्क होना मुश्किल बात है|
..
दो सूत्र और जोड़े है:
ध्यान हम सब जानते हैं| ध्यान से पढो| ईश्वर का ध्यान लगाओ| ध्यान लगाने से मन मजबूत होता है| योग शास्त्र के अनुसार जब ध्यान पक्का हो जाता है तो उसे धारणा कहते है| जब हम १००८ बार जाप करते है तो ध्यान लगते हैं| जब मन में पाठ पक्का हो जाता है तो धारणा बन जाती है| पढ़ते में हम ध्यान से पढ़ते है तो याद होता है| मन जाता है की अगर आप किसी बात को २१ दिन तक २१ बार पढ़े, समझे या मामन करें; तो वो धारण हो जाती है| मनोविज्ञान कहता है; काम चलाऊ याददाश्त से उठकर पक्की याददाश्त में चली जाती है| जो धारण हो जाता है उसे ही हम काम में ला पाते हैं| ये ईश्वर भी हो सकता है और ज्ञान भी| इसके बाद समाधि आती है| जब धारणा में भी ध्यान सब कुछ पक्का हो जाये, तो समाधि का प्रारंभ होता है| यूँ तो समाधि के दो स्तर हैं मगर वह गूढ़ बात है, उसपर कभी अलग से बात करेंगे| मगर, कहते है जब इंसान के मन में धारणा हो कि वो शैतान से भी लड़ सकता है, तभी लड़ सकता है; वरना पैर उखड जायंगे| जैसे अकेला अभिमन्यु धारणा के बल पर ही लड़ा और हनुमान जी या कृष्ण जी धारणा के बल पर पर्वत उठा सके|
अगली बात पर आते हैं|
जब हम किसी को नहीं जानते तो हम उसे तृतीय वचन में इंगित करते है| वो कौन है? अगर कहीं ईश्वर होता तो वो हमारी सुनता|
जब हम उसे जान लेते है तो हम उससे बात कर पाते हैं| तुम कैसे हो? कहाँ जा रहे हो तुम, मैं साथ चाल रहा हूँ? कैसा है तू कृष्ण कन्हैया, कुछ तो करामत कर दे अब|
फिर और परिचय बढ़ता है| हम भी न कैसे गधे हैं? कहाँ जा रहे हैं हम? हम कौरवों को हरा देंगे| (यहाँ कृष्ण हम में समा गए है, गायब लगते हैं|)
फिर एकाकार हो जाते है| राँझा राँझा करते करते अप्पे राँझा हो गयी| और जैसा कि गीता में कृष्ण कहते है, मैं ईश्वर हूँ| अहम् ब्रह्मास्मि|
परिहास हास, विनय अनुनय,
गायन वादन, नृत्य अभिनय|
हे तपस्वी तेजोमय व्यवहारी,
मेनका बारम्बार हार कर हारी||१||
किया न तुमने सम्मान सत्कार,
दिया न नासिका कर्तन उपहार|
क्रोध काम संसार लोभ मोह,
किस किस का किया विछोह||२||
तुच्छ नीच स्त्री अधर्म,
देव लोक का वैश्या कर्म|
इन्द्र दूती सर्वनाश तुम्हारी,
विश्वामित्र इन्द्र[i] पर भारी||३||
स्त्री पड़ी तपस्या पर भारी,
मान श्रम परिश्रम सब संहारी|
छोड़ तपस्या तप पदवी भारी,
विश्वामित्र मुनि बने संसारी||४||
यह स्त्री भी क्या प्रेम पात्र,
ताडन तोडन, मरण वज्रपात|
प्रेमपाश में पड़े पुरुष मात्र,
कर न सके तुम घात आघात||५||
कपट कूट, धोखा षड़यंत्र,
देवलोक दिव्य यन्त्र मन्त्र|
इन्द्राचार छोड़ भूल मेनका,
भूली हाल मन का तन का||६||
नव जीवन ने ली अंगड़ाई,
पुत्री शकुंतला घर में आई|
कटु जीवन की कटु सच्चाई,
माता पिता का संग न पाई||७||
क्या जीवन सन्देश तुम्हारा,
पुरुषीय अहंकार सब हारा|
स्त्री वैश्या भोग निमित्त,
परन्तु लगाया तुमने चित्त||८||
काम पीड़ा का व्याधि अतिरोग,
विषद बल वासना बलात्कार|
विश्वास श्रृद्धा स्त्री जीवन सार,
आमोद प्रमोद आहार विहार||९||
कर न सके एक बलात्कार,
तुमने चुना कौन सा चित्र?
नव भारत का प्रश्न एक,
क्या तुम पुरुष विश्ममित्र||१०||
(कुछ दिन पहले मैंने पौरुष का वीर्यपात लेख लिखा था, आज लोग रावण ही हो जांये तो भी बहुत कुछ सुधर सकता है| लोगों ने रावण का चरित्र हनन तो कर लिया पर आशय नहीं समझा| अभी हाल में बलात्कार क्यों में इन्द्र का जिक्र कुछ लोगों को क्रुद्ध कर गया, मगर वो तथ्य मैंने पैदा नहीं किया; बड़े बड़े ग्रंथों में लिखा है| देश भर में बहुत सारा मंथन चिंतन हो रहा हैं और मैं भी अलग नहीं हो पाता हूँ| मैंने ब्रह्मचर्य का मुद्दा कई बार उठाया हैं, ब्रह्मचर्य का अर्थ पौरुषहीन या प्रेमहीन हो जाना नहीं हैं| जिस देश काल में लोग प्रेम, कामुक प्रेम, प्रेम वासना और बलात्कार में अंतर नहीं कर पा रहे हों, वहाँ सिर खपाना कहाँ तक उचित है?)
रेखाचित्र http://vintagesketches.blogspot.in/2009/09/menaka-vishwamitra.html से लिया गया है|
[i] सामान्यतः इन्द्र का तात्पर्य देवराज इन्द्र से ही है परन्तु शरीर की समस्त इन्द्रियों से स्वामी मन अथवा हृदय को भी इन्द्र कहा गया हैं| यहाँ पर दोनों अर्थ उचित हैं परन्तु मेरा इस स्थान पर इन्द्र शब्द का प्रयोग मन के लिए है| प्रसंगवश, बता दूँ कि कुछ लोग कामेन्द्रिय को भी इन्द्र के रूप में निरुपित करते हैं|