बचपन में हम सवर्णों का वास्ता जाति और इसके अभिशाप से नहीं पड़ता| जब हम घर से निकलकर विद्यालय जाते हैं तो पहली बार इसका पता लगता है|
क्या घरों – मुहल्लों में जाति नहीं होती? दिल्ली मुम्बई महानगरों में जाति का प्रकोप मुहल्लों और कॉलोनियों में शायद कम ही दीखता हैं मगर अधिकांश नगरों – महानगरों में मोहल्ले ही जाति के आधार पर बने होते हैं| सवर्ण इलाकों में दलित और अन्य धर्म का रहना मुश्किल है| इसलिए बच्चों को जाति का सीधा भान नहीं होता| भारतीय शहरों में इलाकों के जाति और धर्म के नाम पर होते रहें हैं| हमारे शहरों में ब्राह्मणपुरी, बनियापाड़ा, तमोलीपाड़ा आदि जाति आरक्षित इलाक़े हैं| आज भी नए इलाकों में जाति का प्रकोप बना हुआ है और सवर्ण – पिछड़ा – दलित – उच्चमुस्लिम – निम्नमुस्लिम का प्रकोप बना हुआ है और थोड़ा अंतर यह है कि उसमें सवर्णों में आपसी जाति भेदभाव का स्थान आर्थिक भेदभाव ने ले लिया है|
जिनका बचपन या जीवन बचपन जीवन सवर्ण इलाकों में ही बीता हैं, उन्हें दलित लोगों से कोई विशेष वास्ता नहीं पड़ता| पारस्परिक संवाद का कोई साधन या पारस्परिक व्यवसायिक सम्बन्ध विकास और सवर्णों के गौर सवर्ण व्यवसायों में आने के साथ लगभग समाप्त हो चुके हैं| बहुत से कामों में आज लोग, सभ्यता या मजबूरी के कारण जाति नहीं देखते जैसे ढ़ाबे पर खाना खाना|
विद्यालय और व्यवसाय, जीवन में परिवार और नाते रिश्तों के बाहर पारस्परिक सामाजिक संवाद का अवसर प्रदान करते हैं| सरकारी नौकरियों में सकारात्मक आरक्षण के कारण पारस्परिक संवाद बना है, परन्तु निजी क्षेत्र में नकारात्मक आरक्षण (भेदभाव भी पढ़ सकते हैं) के कारण सवर्ण संस्थाओं में सवर्ण और दलित संस्था में दलित बहुसंख्या[1] काम करती है| निजी क्षेत्र में मजदूरों की नियुक्ति में जरूर जाति भेद कम हैं, मगर मध्यवर्गीय दृष्टि क्षेत्र के बाहर मजदूरों में आपसी जातिवाद और जातिगत गुटबाजी होती है|
विद्यालयों में पारस्परिक सामाजिक संवाद उस कच्ची उम्र में होता है, जहाँ यह जाने अनजाने में हमारे अंतर्मन पर दुष्प्रभाव छोड़ता है| सवर्ण क्षेत्रों में रहने पलने के बाद मेरे लिए भी इस भेदभाव का पाठ कक्षा 6 में मिला था| जहाँ अधिकतर हिन्दू – मुस्लिम सवर्ण और पिछड़े पहले सेक्शन में थे और हिन्दू मुस्लिम दलित तीसरे में| दूसरा सेक्शन सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ों के लिए था| अधिकतर शिक्षक सवर्ण थे और पहले सेक्शन के अलावा कहीं और पढ़ाना उनके लिए महापाप था| अंतरजातीय वार्तालाप गुरुजन के क्रोध को भड़का सकता था| मुझे कई बार यह बताया गया कि जाटवों या कुरैशियों से बात करने से जुबां ख़राब हो जाती है, आप संस्कृतनिष्ठ हिंदी या गाढ़ी उर्दू की जगह अबे – तबे बोलना शुरू कर सकते हैं| मजे की बात है की अबे तबे की भाषा में हमारे गुरुजन जाटवों या कुरैशियों से कहीं अधिक माहिर थे| भेदभाव का पहला पाठ यही था| आज भी स्तिथि नहीं बदली है, केवल बहाने बदल गए हैं| आज अछूत के स्थान पर साफ़ – सफाई, भाषा, गाली – गलौज, या कोई और बहाना लगाया जाता है|
पापा के स्थानांतरण के बाद जब नए स्कूल पहुँचे तो वहाँ हर सेक्शन में लगभग बराबर अनुपात में सभी सामाजिक वर्ग थे मगर…| उसका एक राजनीतिक कारण था, स्थानीय पूर्व सांसद दलित वर्ग से थे और केंद्र में मंत्री रहे थे| मगर सवर्ण और दलित प्रायः आपस में बात नहीं करते थे| कक्षा में सबसे आगे शहरी सवर्ण, उसके बाद ग्रामीण सवर्ण, फिर पिछड़े, फिर शहरी और ग्रामीण दलित थे| इसमें कुछेक अपवाद थे जैसे पूर्व सांसद महोदय का भतीजा अपने एक दो मित्रों से साथ अपनी पसंद की जगह पर बैठता था, वह प्रायः शहरी सवर्णों से पंगा नहीं लेता था और बाकी लोग उससे| मेरे और उसके जैसे दो – तीन लोग ही कक्षा में उन छात्रों में से थे जो जाति सीमा के बाहर हर किसी से बात करते थे| अन्य लोगों से संवाद प्रायः फब्तियों, गालियों, नारेबाजी और “जातिसूचक शब्दों” में होते थे|
जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं; सवर्णों को दलित वर्ग तो निशाना बनाने का एक और हथियार मिल गया| जिसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया तीव्र थी मगर जल्दी ही आर्थिक सुधारों में उसे थाम लिया| अब आर्थिक विकास के कारण होशियार छात्र प्रायः जातिगत आरक्षण को लेकर चिंता नहीं करते| आजकल कम पढ़ने वाले सवर्ण छात्र ही प्रायः दलितों और अन्य आरक्षित वर्गों से कटुता रखते हैं| भले ही अभी यह अपेक्षा से कम है, परन्तु दलित छात्रों में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ी है और पढाई – लिखाई का स्टार भी| परन्तु, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सबसे अधिक भेदभाव आज भी शिक्षक वर्ग की तरफ से आता है|
हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के कारण उठे सवालों के तात्कालिक कारणों से हटकर अगर हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था में झांके तो हमारे विश्वविद्यालय सामंती परंपरा के संवाहक हैं| हमारे गुरुजन (और दुर्भाग्य से नवगुरुजन भी) यथा – योग्य चरणवंदना के आधार पर अपने गुरूर की सत्ता को गर्वानुभूति से संचालित कर रहे हैं| शोधार्थी तो वैसे ही बंधुआ हो जाता है, जिसके आगे गुरु घंटाल अपनी गौण – गुरुता सिद्ध करने में लगे रहते हैं| अगर छात्र सामाजिक या आर्थिक तौर पर नीचे पायदान है तो यह बंधुआ – शोधार्थी उनके लिए जन्म- जन्मान्तर का दास हो जाता है| एक शोधार्थी का सामाजिक आन्दोलन में सक्रिय होना विरोधी संगठन के लिए मात्र विरोध होता है परन्तु गुरु – सत्ता के लिए अपने इन्द्रासन पर आघात के समान होता हैं| डोलता हुआ इन्द्रासन शील, शालीनता, साधना और समाधि के नष्ट होने से ही ठिकता है|
[1] भारत के सकल उत्पाद का अधिकांश छोटे और मझौले उद्यमियों से आता हैं जिनका सञ्चालन अधिकतर पिछड़े और दलितों के हाथ में है|