प्रकाशन के साठ वर्ष बाद पहली बार किसी क्षेत्रीय उपन्यास को पढ़कर आज की वास्तविकता से पूरी तरह जोड़ पाना पता नहीं मेरा सौभाग्य है या दुर्भाग्य| कुछेक मामूली अंतर हैं, “जमींदारी प्रथा” नहीं है मगर जमींदार और जमींदारी मौजूद है| कपड़े का राशन नहीं है मगर बहुसंख्य जनता के लिए क़िल्लत बनी हुई है| जिस काली टोपी और आधुनिक कांग्रेस के बीज इस उपन्यास में है वो आज अपने अपने चरम पर हैं, और सत्ता के गलियारे में बार बारी बारी से ऊल रहे हैं| साम्राज्यवादी, सामंतवादी और पूंजीवादी बाजार के निशाने पर ग्रामीण समाजवादी मूर्खता का परचम लहराते कम्युनिस्ट उसी तरह से हैं जिस तरह से आज हाशिये पर आज भी करांति कर रहे हैं| विशेष तत्व भगवा पहन कर आज भी मठों पर कब्ज़ा कर लेते हैं और सत्ता उनका चरणामृत पाती है| गाँधी महात्मा उसी तरह से आज भी मरते रहते हैं…. हाँ कुछ तो बदल गया है, अब लोगों को ‘उसके’ मरते रहने की आदत जो पड़ गयी है|
पता नहीं किसने मुझे बताया कि ये क्षेत्रीय या आंचलिक उपन्यास है, शायद कोई महानगरीय राष्ट्रव्यापी महामना होगा| मैला आँचल भारत के गिने चुने शहरी अंचलों को बाहर छोड़कर बाकी भारत की महाकथा है; और अगर महिला उत्पीड़न के नजरिये से देखा जाये तो आदिकालीन हरित जंगल से लेकर उत्तर – आधुनिक कंक्रीट जंगल तक की कथा भी है| पढ़ते समय सबकुछ जाना पहचाना सा लगता है|
पूर्णिया बिहार की भूमि कथा का माध्यम बनी है| दूर दराज का यह समाज एक अदद सड़क, ट्रेन और ट्रांसिस्टर के माध्यम से अपने को आपको राजधानियों की मुख्यधारा से जोड़े मात्र हुए है| समाचार यहाँ मिथक की तरह से आते हैं| हैजा और मलेरिया, उसी तरह लोगों के डराए हुए है जिस तरह साठ साल बाद नई दिल्ली और नवी मुंबई के लोग चिकिनगुनिया और डेंगू जैसी सहमे रहते हैं|
कथानायक मेडिकल कॉलेज के पढ़कर गाँव आ जाता है; धीरे धीरे गाँव में विश्वास, युवाओं में प्यार, देश में नाम और सरकार में सतर्कता कमा लेता है| नहीं, मैं डाक्टर विनायक सेन को याद नहीं कर रहा हूँ| गाँव जातियों में बंटकर भी एक होने का अभिनय बखूबी करता है| अधिकतर लोग अनपढ़ है और जो स्कूल गए है वो सामान्य तरीके से अधपढ़ हैं| जलेबी पूरी की दावत के लिए लोग उतना ही उतावले रहते है जिस तरह से आज बर्गर पीज़ा के लिए; मगर हकीकत यह है कि जिस तरह से देश की अधिसंख्य आबादी ने आज बर्गर पीज़ा नहीं खाया उस वक़्त पूरी जलेबी नहीं खायी थी|
बीमारी से लड़ाई, भारत की आजादी, वर्ग संघर्ष, जाति द्वेष, जागरूकता और स्वार्थ सबके बाच से होकर उपन्यास आगे बढ़ता है| यह उपन्यास एक बड़े कैनवास पर उकेरा गया रेखाचित्र है जिसमे तमाम बारीकियां अपने पूरे नंगेपन के साथ सर उठाये खड़ी हैं| ये सब अपने आप में लघुकथाएं हैं और आसपास अपनी अनुभूति दर्ज करातीं हैं|
पुनःश्च – मेरे हाथ में जो संस्करण है, उसमें विक्रम नायक के रेखाचित्र हैं| मैं विक्रम नायक को रेखाकथाकार के रूप में देखता हूँ| उनके रेखाचित्रों में गंभीर सरलता झलकती है| इस संस्करण में उनके कई चित्र सरल शब्दों में पूरी कथा कहते हैं| बहुत से चित्र मुझे बहुत अच्छे लगे|