प्रदूषण का त्योहार


क्या खूब त्योहार है? हर साल अपने पूरे जलवे के साथ आता है| दो साला कोविड के बाद एक बार फिर पूरे शबाब पर है| दिल्ली के आसपास इसे मनाते हुए हमें तकरीबन पच्चीस साल हो गए है| मगर आदतन हमारे मुँह बने हुए है कि त्योहार न हुआ फूफा की बारात हो गई|
#FestivalofPollution

खासमखास अदीब बताते हैं कि इस त्योहार की गहरी जड़ें उस दौर में पाई जाती हैं जब पांडवों ने खांडवप्रस्थ के जंगलात जलाकर इंद्रप्रस्थ बसाया तो किसी झक्की नाग ने यहाँ कि फिजाँ के जहर हो जाने का श्राप दिया था| वैसे इस पहलू पर व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी वाले खास पर्चे बना रहे हैं, जो जल्द पेश किया जाएगा|

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हर त्योहार के अपने अपने रिवाज होते हैं, इसके भी है| हर त्योहार में बलि देने का चलन आदिम काल से रहा है, यहाँ भी है| बलि पर अनलिखा ईश्वरीय नियम है – बलि कमजोर या बेकार की होती है या फिर वह जिसके चट हो जाने से स्वाद पूरा आए और सेहत पर कुछऊ फर्क न पड़े| यह त्योहार तो शुरू ही बलि से हुआ| 

पहले पहल हजारों लाखों टैक्सी बलि चढ़ा दी गईं, चलो जी पेट्रोल डीजल पीती हो न डायन, कटाओ अपनी गर्दन| किसी ने न पूछा जो नामुराद गाड़ियां बड़के लोग के यहाँ इतराती खड़ी है वो कौन सा अमृत पीती हैं| कोई कैसे पूछे, अमीर की तो कुटनी भी हमें ईमान की नानी लगती है|

फिर भी इस शुरुआती बलि से यह तय जाना गया कि गाड़ियां इस फसाद की जड़ है मगर तुर्रा यह जुड़ गया कि अमीर की गाड़ियां तमाम कमाई-महकमाई इम्तिहान पास करती हैं तो उन्हें कुछ ना कहा जाए| फिर भी यह फ़सादी वक़्त त्योहार की शक्ल में हर साल आता रहा| इस पर शेरोसुखन कहे जाते रहे और पर्चे छपते छपाते रहे| कुछ साल में मामला जस का तस|

फिर बढ़ती महंगाई की तरह इंसानी कुनबे बढ़ते रहे, गाड़ियां भी कदम मिलाती रहीं मगर सवाल यह कि अब कौन सा अश्वमेध किया जाए| तो सबकी निगाह अपने दुश्मन ओ खास यानि सरहद की तरफ घूमी और शायद उनके बाप और हमारे ताएं, उनका नाम क्या बताएं, के खौफ से कहिए कि शर्मों लिहाज से, ये निगाहें सरहद से कुछ पहले अपनी ही जमीन पर जा टकराई| 

दिल्ली के बाशिंदों को साल में इसी त्योहार पर इल्म होता है कि अनाज सब्जियां फैक्ट्रीज़ में नहीं बनतीं वरन कुछ नियायत ही वाहियात किस्म के लोग इन्हें बिहार से आकर पंजाब हरियाणा में उगा देते हैं| ये तो भला हो हाल किसान आंदोलन का, और वो भी क्या भला हो, दिल्ली वाले अचानक समझे कि ये खेत मजदूर कौम और किसान कौम कोई अलग अलग जमात हैं| फिर तय यह रहा कि अरे वही साडा पंजाब जहां लस्सी भंगड़ा संगड़ा होता है, जब उड़ता पंजाब बनता है तो हवा में जहर बनकर इत दिल्ली आ मरता है नासपीटा| बस इत्ती सी है दिल्ली वालों की समझ| पर इस समझ पर उंगली कौन उठाए, बुजुर्ग कह गए है दिल्ली ऊंचा सुनती हैं| किसे पता समझती भी ऊंचा ही हो| 

तो हजरात, फिर सिलसिला हुआ कि किसान, मजदूर और उसकी पराली की बलि ली जाए| मगर इस बार मामला टेढ़ा पड़ गया| किसी को पता नहीं था कि यह बलि कौन से फरसे से ली जाए| हाकिम और हुक्मरान अपने अपने महकमे हाँकते रह गए और तू तू तूतक तूतक तूतिया करते रह गए| लगता है कि साहिबान लीडर इस तू तू तूतक तूतक तूतिया को भी इस त्योहार का कोई रिवाजेखास बना कर ही बिठालेंगे| इस बलि की मद (कीबोर्ड बार बार मैड क्यों लिखता है?) में सेटलाइट, सर्चलाइट, ट्यूबलाइट और न जाने और कौन से फ्यूज़लाइट सब लगा दिए| फिलहाल सरकारी पैसे की बलि चल रही है और नतीजा सिफर के बढ़कर दो सिफर तक जा पहुँचा है| खैर कुछ तो तरक्की हुई| 

हर साल रिवाजन कोई औडईविन साहब भी चर्चा में आते हैं| दिल्ली शहर की आधी गाड़ियां उपवास पर चली जाती हैं| हर साल इनका मजाक उड़ता है और मजा यह हर कोई दिल से आधी गाड़ियों के इस उपवास का समर्थन करता है खासकर बड़के लोग जिन्हें अनजान रिश्तेदारों के दूर के मामा-फूफा को टोरंटो के आगे लंडन तक फॉन फ़ून करने का मौका मिलता है कि दो गाड़ियां ले रखीं हैं वरना तो मफ़लर ने तो हमारे काम धाम और उस से ज्यादा नाम पर शिकंजा कस देना था| 

रिवाज ही तो है कि साहिबे साहिबान, जिनके होने से साहब शैतान साहिबे औलाद हुए, भी हर बरस इस पर चर्चा खास करते हैं| बड़ी बड़ी आर्जियां, फर्द, तफ़सीस और तकरार होती हैं| सुना या कहिए समझा जाता है कि इस बरस तो बा कायदा यह खास बहस दुनिया के सामने सीधे परोसी जाएगी| अब घर पर मास्क लगाकर बैठिए, अदरक इलायची का काढ़ा घोंटिए और मजे ले के कर खास अदालती बहस सुनिए| यह तो खैर पक्का ही है कि तमाम अक्लमंद हजरात टीवी स्क्रीन के सामने बैठे होते है और न जाने किन किन को कैमरे के सामने बैठा दिया जाता है| 

इस त्योहार का एक चलन यह भी है कि हर कोई इस वक़्त खाँसता रहता है, कभी कभी उल्टी मतली करता है और दिल्ली गालियां छोड़ देने के लिए मीर के नक्शे कदम ढूँढता है| कुछ अरसा गुजरते गुजरते रोजगार याद आता है और जिंदगी को भी पेंशन समझकर काटने लगता है| 

फिलहाल बच्चों को हफ्ते रोज की छुट्टियाँ दी गई हैं, दफ्तरों में घर का काम करने वालों को घर से दफ्तर का काम करने की सहूलियत दी गई है और सरकारों के सर्कस में नुक्ताचीनी की रस्म अदायगी हो रही है| और आखिर में, यह पर्चा लिखे जाने तक मेरे गले में खराश जारी है| 

प्रदूषण का त्योहार&rdquo पर एक विचार;

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