हलवा-पूड़ी


नानी के घर जाएंगे 
हलवा पूड़ी खाएंगे 
मोटे होकर आएंगे 

आजकल, हलवा पूड़ी का रिश्ता रोजमर्रा में थोड़ा अजीब लगता है| पूड़ी के साथ आलू सब्ज़ी, काबली चने के छोले, कद्दू सब्जी, अचार, रायता, दही, आदि सम्बन्ध तो आधुनिक समझ में आम हैं| मगर हलवा पूड़ी!!

इसी तरह का एक सम्बन्ध है पूड़ी और दही बूरे का| 

बचपन के दिन याद आते हैं, नवरात्रि में हलवा पूड़ी का बड़ा जोर रहता था| आम घरों में सब्ज़ी का पूड़ी के साथ जोर नहीं था| छोले अक्सर स्वतंत्र चाट का अस्तित्व रखते थे| आलू दावतों के लिए बहुत माकूल नहीं समझा जाता था| बाद में आलू बढ़ता चला गया और हलवा हासिए पर खिसक गया|

हलवा मुझे लगता रहा है कि लड्डू के बाद पूजा पाठ के लिए सर्वस्वीकार्य सरल मिठाई रही है| हलवा सरल है , तरल हैं और स्वादिष्ट भी है ही| लड्डू और हलवा में आप धन और श्रृद्धा के साथ बहुत साधारण से लेकर मेवा-मखानों के बहारों के साथ बना सकते हैं| परन्तु हलवा इसलिए महत्वपूर्ण है कि घर पर भी बन सकता है| इसमें कोई विशेष ज्ञान या सामर्थ नहीं चाहिए|

पूड़ी के साथ हलवे के सम्बन्ध में मुझे लगता है कि पके कद्दू की खट्टी मीठी, या मीठी सब्ज़ी के लिए भी हलवा शब्द का प्रयोग होता रहा है और कद्दू का  शुद्ध हलवा भी बनता है| किसी भी साधारण घर के लिए समय असमय आ पहुँचे नाते रिश्तेदारों के लिए पूड़ी और हलवा परोसना बहुत सरल है| दामाद, ननदोई या अन्य मान्य रिश्तों में पक्की रसोई लगाना हमेशा जरूरी रहा है और हलवा और पूड़ी शुद्ध रूप से पक्की रसोई का भोजन है| मेहमान के लिए सब्ज़ी और हलवा में से कोई एक चुनना हो तो हलवा ही अनिवार्य विकल्प है क्योंकि मीठा खिलाने की अनिवार्यता यह पूरी करता है| हल्की नमकीन पूड़ी और तेज मीठा हलवा मुझे पसंद रहा है|

अलीगढ़ शहर और दिल्ली में निजामुद्दीन इलाके में हलवा परांठा मिलता है| इसमें जो परांठा है वो एक बेहद बड़े आकार की कई पर्त वाली पूड़ी ही है| 

ग्रामीण अंचल में और लोक व्यवहार में हलवा महत्वपूर्ण स्थान रखता है| यही कारण है कि आम बालक हलवे पूड़ी के लिए नानी घर जाने की बात करते हैं| खासकर उस समय जब दैनिक व्यवहार में पक्की रसोई लगाना उचित नहीं माना जाता था हलवा पूड़ी उत्सव और सम्मान का प्रतीक रही है|

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