उपशीर्षक – अनिच्छा आशंका अनिश्चय
सब दो जानू (घुटनों पर) बैठे हैं, अनिष्ट के आगे सिर झुके हुए हैं, दो हाथ दुआ में उठे हैं, आज जीने से आगे कोई नहीं सोचता, कल एक उम्मीद नहीं आशंका है| बारह घंटे काम करने का आग्रह करते पूँजीपशु हों या एक एक घंटे के काम की भीख मांगते कोल्हू के बैल, सब अपनी रोटी का पता पूछते हैं – रूखी, चुपड़ी, तंदूरी, घी-तली|
खैराती रोटी के इन्तजार में मजदूर, घरेलू नौकर चाकर, दुकानों के कारिंदे, भिखारी, कुत्ते, और साथ में सिपाही, सफाईकर्मी सिर झुकाए खड़े हैं – एक दूसरे से नज़रें चुराए| ईश्वर की माया के आगे बेबस हैं| भीड़ में खड़े होकर मिल रही इस सरकारी खैराती रोटी से आज भिखारी को भी डर लगता है – भीड़ में कौन करोना वाला निकल जाए| खैरात इतनी बुरी कभी न लगी थी|
सरकारी खर्रे आते जाते हैं| निजी कार्यालय खोल दिए गए हैं| छोटे से दफ्तर की इकलौती कुर्सी पर एक कमर एक जोड़ा पैरों के साथ बैठी है – दफ्तर का इकलौता मुलाज़िम बाअदब कहें दफ्तर मालिक| मालूम होता था, हुक्म-सरकार के मुताबिक एक तिहाई आया है| नहीं, मैं निजी दफ़्तर में एक तिहाई आमद के सरकारी हुक्मनामे का मजाक नहीं उड़ा रहा हुजुर, दिलोदिमाग़ तमाम चिंताओं के हवाले है, दिल और फेफड़े बाल-बच्चों के लिए बैठे जाते थे, हाथ काम की चिंता में ढीले पड़े हैं – बचा ख़ुचा कर खुद पूरा ही आया हूँ|
बड़े बड़े हुजुर हाकिम कहते हैं कि भूख लाखों को मार देगी| हमारे नए नए खैरख्वाह कहते हैं रोजगार के तलाश छोड़कर ग़रीब को घर की याद सताती है और पैदल चल पड़ा हूँ मैं| हिन्दू मुस्लिम का मसला मामला मार देगा| करोना का पता नहीं किसी को| अगर घर का दरवाज़ा हवा भी हिला दे तो तो लगता है फ़रिश्ते यमदूत को लेकर आ गए| सफ़ेद कोट देखकर चहरे डर से फ़क पड़ जाता है – खाकी कपड़ा देख चूतड़ चटकने लगते हैं| सब्ज़ी ख़रीदने के बाद दो बार धोता हूँ| ये बीमारी नहीं ख़ुदा ये डर है जो आपने फैला दिया है – डरना जरूरी हैं इतना नहीं कि हम लकड़बग्गे हो जाए|
भले खुल जाये लॉक डाउन, मगर हिम्मत तो खुले|