साहित्यक समारोहों के प्रति जनता प्रायः निर्लिप्त भाव रखती रही है| साहित्य समारोह भी प्रायः आलोचकों, समालोचकों, पुरस्कार प्रदाताओं के वो परिपाटी बने रहे जिनमें आम जनता आम की गुठली की तरह निष्प्रयोज्य होती है| अपने इस संभ्रांत रवैये के कारण हाल के वर्षों में साहित्य समारोह हाशिये पर चले गए हैं और उत्सवों, जश्नों और फेस्टिवल ने ले ली है| उत्तर भारत में ठण्ड के आते ही शादियों के साथ साथ साहित्य और सांस्कृतिक उत्सवों का मौसम भी शुरू हो जाता है|
यह उत्सव, भारत के तीज त्योहारों की तरह समाज के हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ समेटे रखते हैं| यहाँ साहित्य और उपसाहित्यिक गतिविधियाँ होती हैं| गंभीर साहित्य चर्चा को अक्सर मुख्य पंडाल अलग स्थान मिलता है| जिन समारोह में गंभीर साहित्य मुख्य पंडाल में होता हैं, वहां भीड़ प्रायः वहां नहीं होती| भले ही साहित्यकार इस प्रकार की स्तिथि को साहित्य विरोधी मानते हैं परन्तु भीड़ साहित्य से बहुत दूर नहीं होती| आप भीड़ से हमेशा गंभीर साहित्य से जोड़े हुए नहीं रख सकते| लोकप्रिय पंडाल प्रायः फिल्मकारों, पत्रकारों, से भरे महसूस होते हैं क्योंकि मीडिया में इनकी खबरें देने और पढ़ने वाले बहुत होते हैं| लोकप्रिय पंडाल में गायन, वादन और नृत्य का समां बंधा रहता हैं जिसमें फिल्म भी एक विधा है| नाटकीय प्रस्तुतियां – कथा पाठन, नृत्य नाटिकाएं, आदि होती हैं मगर प्रायः रंगमंच इन उत्सवों का भाग नहीं होता|
मेरी समझ में भोजन संस्कृति को जानने समझने का उचित माध्यम हैं और आजकल अधिकतर उत्सव इस पहलू पर ध्यान दे रहे हैं| सांस्कृतिक पहलू के अलावा भी भोजन दो प्रकार से महत्वपूर्ण हैं, एक तो उत्सव में जुटी हुई भीड़ को उत्सव से दूर न जाने देने के लिए उनका पेट भरे रखना होता है दूसरा लाभ में मामूली सी हिस्सेदारी से उत्सव का खर्च भी कुछ हद तक पूरा जा सकता है| आम जनता के लिए तरह तरह के खाने और जायके तक एक ही स्थान पर पहुँच भी बड़ी बात है|
किताबें किसी भी साहित्य उत्सव का केंद्र होती हैं| जहाँ साहित्य किताबों के बिना बेमानी है| साहित्य उत्सव आम जनता साहित्यिक किताबों से जुड़ने का पुस्तक मेलों के मुकाबले अधिक उचित अवसर प्रदान करते हैं| यहाँ लोग सीधे सीधे किताबों से जुड़ते हैं, उनके बारे में हुई चर्चा से प्रभावित होते हैं और उन्हें साहित्य के परिदृश्य में देख समझ पाते हैं| हाल में साहित्येतर सांस्कृतिक गतिविधियों और भोजन के अलावा साहित्येतर सांस्कृतिक सामिग्री को भी इन उत्सवों में जगह मिलने लगी है| यह बाजार का साहित्य उत्सवों पर अतिक्रमण नहीं है वरन एक दुसरे से लाभ उठाने का प्रयास है|
इन उत्सवों में साहित्यिक संभ्रांतों का स्वांत सुखी वर्चस्व जरूर समाप्त हुआ है, मगर यह समाज के उच्च मध्यवर्ग का अपनी जड़ों से आज भी जुड़े होने का भ्रम कायम करने का माध्यम भी हैं| जश्न – ए अदब और जश्न – ए – रेख्ता जैसे उर्दू भाषी उत्सवों में भीड़ भडाका जनता की भाषा आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेजी है| लोग उर्दू के नजाकत और नफासत की बातें उर्दू में नहीं बल्कि बनावटी अमरीकी लहज़े की अंग्रेजी में करते हैं| ग़ालिब का ज़िक्र करते समय उनके शेरोशायरी का ग्लेमर जेहन में उछालें मारता है, की ग़ालिब को लेकर उनकी समझ|
जिस उत्सव में जितने कार्यक्रम समानांतर चलते हों, वह उतना बड़ा उत्सव है| मगर लोगों के जमावड़े को बुलाना, उसे जमाये रखना, जिमाये रखना, और ज़ज्बा बनाये रखना अपने आप में बड़ी बात है|