दिल्ली की कडकडाती ठण्ड का कोई धुपहला दिन रहा होगा| प्यारी सी बिटिया या बहू दिल्ली हाट घूमती रही| अचानक सुन्दर गणेश पर निगाह पड़ी| रसोईघर में रखूंगी या बैठकघर में, लौटते समय वो सोचती रही| देव भी सोचते रहे, दूकान के दरिद्र से निकल आये, जिस विधि विधाता चाहेगा, मजे से रहेंगे| कोई विशेष इच्छा न थी| अगर पक्ष – पखवाड़े एक मोदक का प्रसाद भी चढ़ जाता तो धन्य होते| खिलाती – पिलाती रसोई में रहने पर भक्ष्य – अभक्ष्य सबका भोग स्वतः हो जाता| यहाँ दिन निकलते ही, मोदक कलेवा होता| हर सांय सोमरस पर समाप्त होती| सेवाभाव में कमी न थी|
परिवार क्या होता है, यहीं जाना था| रसोईघर घर की सब गतिविधियों का केंद्र| षड्यंत्र तंत्र प्रपंच सब यहाँ अवश्य चर्चित होते| मनोरंजन के लिए कहीं न जाना पड़ा| दुःख भी होता| जब घर का बेटा अपनी पत्नी को अपने खुद के बूढ़े पिता के विरुद्ध भड़काता| दुःख नहीं देखा जाता| आँख बंद कर ली| बुड्ढा एक दिन चुपचाप तीर्थ करने चला गया| कभी नहीं लौटा| न जिन्दा न मुर्दा| सब जीवन की माया है| अपने अपने कर्म है, अपने अपने कर्मफल| वर्तमान में जीवन चलता है चलता रहा| पर विधाता से सुख कहाँ देखा जाता है|
हवा का झोका चला आया| तेज तो नहीं लगता था| मगर, अपाहिज कर गया| जमीन पर झाड़ू क्या फिरी, किस्मत फिर गई| अपाहिज बूढ़ा देव किसी का भला नहीं कर सकता| अपाहिज बूढ़ा देव किसी का बुरा नहीं कर सकता| कोई बीमा नहीं, कोई पेंशन नहीं, कोई भोग नहीं लगता| पेड़ से गिरने वाली पीपलियाँ भी यदाकदा मिल पातीं| सड़क किनारे भी अकेला हूँ| कभी कभी एक चीटीं आती है बात करने|
बस देव होने की थोड़ी इज्जत बची रही| कूड़े में नहीं डाला गया| पीपल के पेड़ के नीचे पड़ा हूँ चुपचाप| दुःख नहीं देखा जाता| आँख बंद कर ली| माटी का रंग माटी हुआ जाता है| माटी का इन्तजार रहेगा|