आदमी रोता है
चुपचाप अकेले
अपनी परछाइयों के तले
दूर तक गूँजतीं
झींगुरों की आवाज के सहारे||
रात उतनी लम्बी
तो होती ही है
आप गिन लेते हैं
आसमान के सारे तारे
तमाम प्रदूषण के बाद भी||
मेरे पेट में
रह रह कर
मरोड़ उठता है
लगता है कभी
खा ली है
ईमानदारी की कमाई||
रात को सोते सोते
उठ जाता हूँ आज भी
सपने में दिखाई देता है
जब कभी
अपना चेहरा||