हम सब गाय को माँ मानते थे और कम से कम परीक्षा के दिनों में गाय की चरणवंदना जरूर करते| उधर वो लोग कभी गाय को दूध के लिए लट्ठ बजाते, तो कभी कभी दिन रात के लिए घर के बाहर भिक्षाटन के लिए छोड़ देते| भिक्षा के अभाव में हमारी गाय माता हमारे सामने ही कूड़ा खाने के लिए मजबूर रहती| हम क्यों देते खाना| रोज शाम को गाय जिनके घर जाकर दूध देती है, उनके घर खाए न| मगर गाय माता भोली होती हैं|
वो लोग गाय के बिकने से भी ख़ुश होते, बला टली| खरीदी जाने वाली गाय दुधारी होतीं और बेच दी जातीं ज्यादातर बुढ़िया गाय| अगर गाय मर जाती या मरने वाली होती, तो भी मोल – भाव होता| रिक्शे में डालकर गाय ले जाई जाती| कोई नहीं पूछता चमड़ी कहाँ गयी और शरीर कहाँ? खादी की दुकान पर मिलने वाली गौरक्षा जूतियाँ कभी फैशन में नहीं आयीं, न मुख्यधारा के न शाखा के| काफ लेदर का जूता ही बाजार में चमकता है, भले ही सिंथेटिक हो|
आज तक नहीं पता लगा, बछड़े पैदा होने के महीने भर में क्यों मर जाते हैं और बछिया क्यों लम्बी उम्र लिखा कर लाती है|
बड़े बुजुर्ग बताते हैं; गाय का दूध जिसे हम लोग हारी – बीमारी में ही खरीदते; दूध नहीं, अमृत होता है – उसे दूध की तरह नहीं पीना चाहिए| कलियुग में अब अमृत से अधिक, नशे की जरूरत है| अगर अमृत की जरूरत होती, तो हर घर के आगे स्कूटर – कार नहीं, गाय खड़ी होती|
मगर, उन्हें बैल पसंद था| उनके लिए हम कोल्हू का बैल थे और हमारे लिए वो बछिया के ताऊ| वो अक्सर चिढ़ाते – गाय जिनकी माता है, बैल उन्हीं का बाप है|
बाद में बड़े होने पर पता लगा, गाय अगर माता है, तो सांड जबर बाप है|