हर माँ की तरह, मेरी माँ को खाना बनाने का बहुत शौक था| वो साधारण दाल रोटी सब्जी को भी ऐसे बनाती थीं, जैसे कोई अनुष्ठान कर रही हों| नहा धोकर ही रसोई में जाना, खाना बनाने में काम आने वाली हर चीज को किसी पवित्र पूजा सामिग्री की तरह आदर देना, किसी भी प्रकार का सकरा या झूठा रसोई में न आने देना, और कम से कम सब्जी छौंकते और दाल या रायते में तड़का लगाते समय वह कुछ नहीं बोलती थीं| शाकाहारी होकर भी, किसी भी खाद्य सामिग्री के लिए आदर का यह हाल था कि बाज़ार में बिकते मांस मछली को देखकर उन्हें अच्छा न लगने के बावजूद मजाल क्या कि उनके चेहरे पर कोई शिकन भी आ जाये| माँ हमेशा कहतीं किसी का खाना देखकर मन में मैल नहीं लाना चाहिए| एक बार हमारी छत पर बिल्ली कहीं से चूहा मार कर ले आई और खा रही थी| घिन के कारण मैंने बिल्ली को चप्पल फैंक कर मार दी| किसी के खाने के अपमान की सजा के तौर पर मुझे उस बिल्ली को दूध पिला कर माफ़ी मांगने की सजा मिली|
माँ खाना खाते समय भी नहीं बोलती थीं| उनके लिए शांत चित्त और पवित्र भाव से भोजन करना और करने देना सबसे बड़ी पूजा थी| जब भी कोई मेहमान आते तो माँ उन्हें पहले खिलाती और साथ बैठकर खाने के प्रस्ताव को प्रायः शालीनता से मना कर देतीं थीं|
हम तीनों बच्चों के संगी साथी हमारे घर खाना खाने की ईच्छा से आते रहते थे| मगर जब छोटी बहन का अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ तब होस्टल में रहने वाले उसके सहपाठियों पर माँ को बहुत लाड़ – दुलार आता था| उन दिनों हमारे घर हर हफ़्ते “माँ के हाथ का घर का खाना” नामक दावतें हुआ करतीं थीं| मगर इसमें उन्हें कुछ दिक्कतें भी पेश आतीं थीं| माँ हमेशा शुद्ध शाकाहारी शास्त्रीय भोजन बनाया करतीं थीं, मगर मेहमान छात्रों में बिहार से लेकर मणिपुर तक से छात्र मौजूद थे| बहुतों को खाने से ज्यादा माँ के हाथ के खाने के भाव के कारण तृप्ति मिलती थी|
भारत की सांस्कृतिक विविधता के ऐसे विरले दुष्कर संगम के समय में माँ की बतकही बहुत काम आती थी| माँ अपने सामान्य ज्ञान, सामान्य विवेक और असामान्य परिकल्पना से बातों का एक स्वप्न बुनतीं थीं और प्रायः मेहमान उस स्वप्न में खुद को अपनी माँ की गोद में बैठा पाता था| इस क्रम में माँ हिंदी अंगेजी उर्दू संस्कृत और ब्रजभाषा में एक तिलिस्म रचतीं और मेहमान को अपनी माँ की कमी या तो बहुत महसूस होती या कुछ देर के लिए माँ को भूल जाता|
उस दिन एक मणिपुरी छात्रा घर पर आई| माँ को मणिपुरी संस्कृति का बहुत ज्ञान नहीं था और मेहमान का हिंदीपट्टी ज्ञान बॉलीवुड से अधिक नहीं था| माँ के लाड़ दुलार और मेहमानवाजी के चलते उसे खाना बहुत पसंद आया| मगर बार बार उत्पन्न होने वाली संवादहीनता के बीच माँ को ग़लतफ़हमी हो गयी की लड़की हिंदी नहीं समझती| ऐसे में उन दोनों ने सफ़लतापूर्वक संवादहीन संवाद कायम कर लिया| जैसे ही हम सब लोग खाने से निवृत्त हुए; माँ की प्रसन्नता चरम पर जा पहुँची| वो चहक कर मुझ से बोली, मेहमान के साथ अच्छा सम्बन्ध बन गया है और मैंने मुझे इतना अपना बना लिया है कि वो अब अलीगढ़ में अपने आप को अकेला नहीं समझेगी और जब भी उसे अपनी माँ की याद आयेगी तो वो मेरे पास आ पायेगी|
अचानक माँ की वो मणिपुरी मेहमान आँखों में आँसू लेकर हंस पड़ी| उसने हिंदी में जबाब दिया, “हाँ माँ!! आप मेरी माँ की तरह अच्छी हो| मगर भोलेपन में तो आप बहुत ज्यादा एक्सपर्ट हो|”
टिप्पणी: यह पोस्ट इंडीब्लॉगर द्वारा गोदरेज एक्सपर्ट के लिए किये गए आयोजन के लिए लिखी गयी है|
Aligarh ane se pahle Sikandra-rao mein bhi hum teeno bhai-bahno ke mitro ki priya jagah thi humara ghar.
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