भारत की अबला नारी


 

भारत का समाज और क़ानून मात्र दो प्रकार की अबला नारियों की परिकल्पना करता है:

१.      नवविवाहिता स्त्री, विवाह के पहले ३-४ वर्ष से लेकर सात वर्ष तक (नवविवाहित अबला); और

२.      भारतीय परिधान पहनने और अपने पिता या भाई की ऊँगली पकड़ कर चलने वाली २४ वर्ष की आयु अविवाहिता स्त्री (अविवाहित अबला)|

जो भी स्त्री इस दोनों निमयों से बाहर है वह प्रायः समाज और कानून द्वारा कुलटा स्त्री मानीं जाती है| (ध्यान दें, भारत में सबला स्त्री का कोई प्रावधान नहीं है|)

और जब तक किसी भी स्त्री को कुलटा घोषित नहीं किया जाता उसे भाभीजी और माताजी जैसे शब्दों से पुकारा जा सकता है|
(पुनः ध्यान दें, बहनजी शब्द का प्रयोग उचित नहीं माना जाता है, अविवाहित स्त्रियों के लिए भी भाभीजी शब्द का धड़ल्ले प्रयोग किया जा सकता है|)

आईये; विस्तृत अध्ययन करते हैं:

नवविवाहित अबला:

नवविवाहिता अबला, सामाजिक समर्थन प्राप्त कानूनी अबला है, जिसे होने वाले किसी भी कष्ट के भारतीय समाज में आराजकता की उत्पत्ति होती है| इस श्रेणी में आने के लिए किसी भी स्त्री को नवविवाहित होना ही एक मात्र शर्त नहीं है| प्रेम- विवाह के नवविवाहित हुईं स्त्रियाँ, सामान्य नियम के अनुसार इस श्रेणी से बाहर ही रखीं जातीं हैं| गरीब और निम्न जाति की स्त्रियाँ भी, राजनितिक दबाब  का अभाव होने पर इस श्रेणी से बाहर मानीं जा सकतीं हैं| जिन स्त्रियों का विवाह, ३५ वर्ष की आयु के बाद हुआ हो, उन्हें इस श्रेणी में काफी संशय के साथ रखा जाता हैं|

सामाजिक नियम के अनुसार इस श्रेणी में स्त्री विवाह के बाद के पहले दो – चार वर्ष ही रहती है, परन्तु कानून के आधार पर यह अवधि विवाह के बाद के पहले सात वर्ष रहती है| उस समय सीमा के बाद कोई भी स्त्री अबला नहीं रह जाती|

अपवाद स्वरुप, अश्रुवती स्त्रियाँ अपने अबला काल को अधिक समय तक बना कर रख सकतीं हैं| सुन्दर, आकर्षक, समझदार, मिलनसार (अति – मिलनसार नहीं), होना उन अश्रुवती स्त्रियों के लिए अतिरिक्त लाभदायक हो सकता हैं|

हमारे भारतीय समाज और कानून में नन्द, सास, जेठानी, पड़ोसन और किसी भी अन्य स्त्री जिसका किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ससुराल या पति से हो, नवविवाहिता अबला के लिए प्राण-घातक मानी जाती है|

दहेज़, सती, आत्महत्या, गर्भपात और घरेलू हिंसा आदि के लिए पति को दोषी माना जाए या न माना जाए, इन में से किसी न किसी स्त्री को ढूंढ कर अवश्य ही दोषी मान लिया जाता है|

इस प्रकार की अबला को पति नाम की चिड़िया और ससुराल नाम के चिड़ियाघर से सुरक्षा की विशेष आवश्कयता हमारे कानून में हमेशा से महसूस की है और आज भी कर रहा है| नए तलाक कानून इस  श्रंखला में एक और कड़ी हैं और हम ऐसी ही अनेकाने क्रांतिकारी कड़ियों की सम्भावना से रोमांचित हो उठते हैं| नव विवाहिता अबला की सुरक्षा के लिए कई प्रकार के कानून बनाये गए हैं, उनके उदहारण इस प्रकार से हैं[i]:

  1. The Dowry Prohibition Act, 1961 (28 of 1961) (Amended in 1986)
  2. The Commission of Sati (Prevention) Act, 1987 (3 of 1988)
  3. Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005
    1. The Indian Christian Marriage Act, 1872 (15 of 1872)
    2. The Married Women’s Property Act, 1874 (3 of 1874)
    3. The Guardians and Wards Act,1890
    4. The Child Marriage Restraint Act, 1929 (19 of 1929)
    5. The Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937
    6. The Special Marriage Act, 1954
    7. The Protection of Civil Rights Act 1955 
    8. The Hindu Marriage Act, 1955 (28 of 1989)
    9. The Hindu Adoptions & Maintenance Act, 1956
    10. The Hindu Minority & Guardianship Act, 1956
    11. The Hindu Succession Act, 1956
    12. The Foreign Marriage Act, 1969 (33 of 1969)
    13. The Indian Divorce Act, 1969 (4 of 1969)
    14. The Muslim women Protection of Rights on Dowry Act 1986
    15. National Commission for Women Act, 1990 (20 of 1990)

यदि इन कानूनों के बारे में विस्तार से चर्चा बाद में कभी करेंगे|

अभी पहले अविवाहित अबला के बारे में बात करते हैं|

 

अविवाहित अबला:

यह प्रायः सामाजिक किस्म की अबला है, जिसके अबला होने के बारे में माना जाता है कि कानूनी विद्वानों में केवल किताबी सहमति है| अविवाहित अबला, वह अविवाहित स्त्री है जो गैर – भारतीय परिधान न पहनती हो, अपने पारिवारिक स्व – पुरुष जन ( और कभी कभी माता बहनों) के अतिरक्त किसी अन्य प्राणी के साथ न पाई जाती हो, शरीर से सर्वांग – स्वस्थ होने के बाद भी गूंगी, बहरी और अंधी हो और किसी भी पुरुष के द्वारा उसके अबला होने से अधिकारिक रूप से इनकार न किया गया हो|

सामान्यतः स्थानीय नियमों के अनुसार २० से २४ वर्ष की आयु पार करने के बाद किसी भी स्त्री को इस श्रेणी से निकला हुआ मान लिया जाता है|

इस श्रेणी में बने रहना हर स्त्री के लिए एक चुनौती है और विवाह की प्रथम शर्त है| अबलाओं के हितों की रक्षा के लिए एक रोजगार परक राष्ट्रीय आयोग भी है जिसका नाम आपको पता है|

 

अन्य विचार बिन्दु:

हर स्त्री को अबला श्रेणी के निकाले जाने का भय हमेशा बना रहता है| पहले किसी समय में हर स्त्री को अबला माना जाता था परन्तु अब ऐसा नहीं है| आज इस बाबत, कई वैधानिक सिद्धांत हैं|

पहला वैधानिक सिद्धांत है; “गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई|” इस सिद्धांत में गरीब का अर्थ किसी भी रूप में निम्न स्तरीय परिवार के होना है और लुगाई का अर्थ गरीब घर की किसी भी स्त्री से लिया जाता है| निम्नता को धर्म, जाति, क्षेत्र, आय, सम्पन्नता, राजनितिक अलोकप्रियता और भीड़ इक्कठा न कर पाने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है|

दूसरा वैधानिक सिद्धांत है, “भले घर की लड़कियां मूँह नहीं खोलतीं”| यदि कोई स्त्री अपने साथ हुई किसी भी छेड़छाड़, या यौन शोषण की शिकायत करती है तो उसे समाज अबला के दर्जे से बाहर कर देता है| यदि वह फिर भी कोई कोशिश करती है तो हमारा न्यायतंत्र ( न्यायलय और समाचार माध्यम दोनों ही) उसके साथ इतना विचार – विमर्श करता है कि उसे अपने सही श्रेणी का ज्ञान हो जाता है, भले ही यह ज्ञान मरणोपरांत ही क्यों न हो| इस सिद्धांत का एक विपरीत सिद्धांत भी है, “अति भले और बलशाली घरों की लडकियां जब भी मूँह खोलती है, सत्य और उचित ही बोलतीं हैं” परंतु इस सिद्धांत का प्रयोग अपवाद स्वरूप ही हो सकता है|

अंतिम निष्कर्ष:

एक स्त्री के अबला श्रेणी से बाहर कर दिए जाने से उसके लिए हर प्रकार की सामाजिक, वैधानिक और न्यायायिक सुरक्षा का अंत हो जाता है| परन्तु, अबला के साथ हल्की की भी ऊँच – नीच करने वाले का सात पुश्त, माँ – बहन, हड्डी – पसली और कुत्ते की जिन्दगी और मौत वाला हाल किया जा सकता है|

कुल मिला कर मौत के कूएँ में सांप – छछूंदर का खेल है और मदारी गोल महल में बीन बजा रहे हैं|

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मिटी न मन की खार – (कुण्डलिया)


 

एक शहीद पैदा किये,

एक दुश्मन दिए मार|

दंगम दंगम बहुत हुई,

मिटी न मन की खार|| दोहा १||

 

मिटी न मन की खार,

दर्पण भी दुश्मन भावे|

दर्प दंभ की पीर,

अहिंसा किसे सुहावे|| रोला||

 

दुनिया दीन सब राखे,

सब झगड़ा व्यापार|

मार काट बहुत बिताई,

अमन के दिन चार|| दोहा २||

 

उपरोक्त कुण्डलिया छंद की रचना के कुछ छिपे हुए उद्देश्य हैं| उन्हें जानने के लिए इसके छंद नियमावली पर एक निगाह डालनी होगी|

दोहा + रोला + दोहा = कुण्डलिया|

ये रचना प्रक्रिया रसोई घर में सेंडविच बनाने की प्रक्रिया से बिलकुल मिलती जुलती है|

यह रचना समर्पित है कश्मीर के लिए| कश्मीर जो आज कुण्डलिया बन गया है; भारत पाकिस्तान के बीच, भारत की सत्ता और विपक्ष के बीच, पकिस्तान के सत्ता विपक्ष के बीच, हिन्दू और मुसलमान के बीच, हमारी खून की प्यास के बीच| कुण्डलिया की एक और खासियत है, पहले दोहे का अंतिम चरण, रोले का पहला चरण होता है| यहाँ पर मैं इसे आज के सन्दर्भ में घिसे पिटे तर्क – कुतर्क के बार बार दोहराव के रूम में देखता हूँ| अगली विशेष बात जो ध्यान देने योग्य है, वह है कुण्डलिया का पहला और अंतिम शब्द एक ही होता है| जैसे जीवन में बातचीत में ही झगडे शुरू होते है और घूम फिर कर बात चीत से ही समाप्त करने पड़ते हैं|

एक दूसरा कारण इस कुण्डलिया को लिखने का और भी रहा है| अफजल गुरु की फांसी| कई खबरें आतीं हैं, जिनसे लगता है कि उसे पूरी तरह न्याय नहीं मिला और देश की जनता के आक्रोश को शांत करने और असली दोषियों तक न पहुँच पाने के सत्ताधारियों की निराशा ने उसे येन केन प्रकारेण दोषी ठहरा दिया| साथ ही मैं किसी भी दशा में फांसी की सजा को न्याय के विरुद्ध मानता हूँ| फांसी दोषी को मार तो देती है पर न तो उसे पूरी सजा देती है, न पीड़ित को पूरा न्याय| युद्ध, छद्म युद्ध, गृह युद्ध, महा युद्ध आदि के मामलों में तो यह दुसरे पक्ष के लिए शहादत का उदाहरण तक बना देती है| यह कुण्डलिया इसी प्रसंग में लिखा गया है|

विधायिका को विधेयक न दे कोई ! जनता रोई !!


गुरुवार प्रातः इकोनोमिक्स टाइम्स में खबर दी थी कि सरकार में भारतीय जनता पार्टी के दबाब में आकर कंपनी विधेयक २०११ को एक बार फिर से स्थायी समिति को भेज दिया गया है| कंपनी विधेयक सदन और समिति के बीच कई वर्षों से धक्के खा रहा है| आर्थिक सुधारों का जो बीड़ा पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव जी ने उठाया था वह इस समय खोखली राजनितिक अवसरवादिता के कारण दम तोड़ रहा है|  पिछले कई वर्षों से हम देख रहे है कि हमारी सरकार नए कंपनी क़ानून की बातें करतीं रहतीं है परन्तु उन्हें मूर्त रूप देने में असमर्थ रहती है| जब हम सरकार की बात करते है तब हम किसी दलगत सरकार की बात नहीं कर रहे वरन पिछले बीस वर्षों में सत्ताधारी सभी दलों की बात करते है; भले ही वह कांग्रेस, जनता दल, भाजपा, वामपंथी कोई भी हों| अफ़सोस की बात है कि संसद में बैठे लोग संसद के प्रमुख कार्य, विधि-निर्माण और कार्यपालिका नियंत्रण के स्थान पर शोरगुल, हल्लाबोल, कूदफांद आदि कार्यों में व्यस्त हैं| दुखद बात है कि हमारे राजनीतिज्ञ संसद को राजनितिक उठा पटक का अखाड़ा समझ रहे हैं और संसद के पवित्र गलियारा  सड़क की गन्दी राजनीति की चौपाल भर बन कर रहा गया है|

 

 

पिछले एक वर्ष से हम देख रहे है कि देश की जनता देश हित के एक क़ानून को बनबाने के लिए सड़क पर उतर आई है| आखिर क्यों?? पहले हमें कार्यपालिका के गलत आचरण, दु-शासन, क़ानून सम्मत अधिकारों के लिए ही सड़क पर आती थी और अधिकतर आंदोलन सत्ता की लड़ाई ही थे| परन्तु, हमारा दुर्भाग्य है कि जनतांत्रिक देश की जनता आज अपने को जनतंत्र और उसके मुख्य स्तंभ संसद और विधान सभाओं से कटा हुआ पाती है| कार्यपालिका का भ्रष्टाचार आज विधायिका का अभिन्न अंग बन गया है और खुले आम जनता कह रही है कि अब भ्रष्टाचार की लूट में भागीदार होने के लिए सत्ता का गलियारा जरूरी नहीं| सांसदों के संसद में व्यवहार को आज लूट में हिस्सेदारी की रस्साकशी के रूप ले देखा जा रहा है| यदि यह सब सत्य है तो देश और जनता दोनों का दुर्भाग्य है| परन्तु लगता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण परन्तु सत्य है; देश में विधायिकाएं विधि-कार्य के अतिरिक्त सभी कुछ कर रही हैं| कई महत्वपूर्ण विधेयक संसद में भूखी गरीब बाल विधवा की तरह मुँह लटकाए खड़े है और सरकार से लेकर उप-सरकार (विपक्ष बोलना गलत होगा) तक कोई उनकी सुध-बुध नहीं ले रहा है|

लोकनायक जय प्रकाश नारायण, नवनिर्माण आंदोलन, गुजरात, १९७४

क्या कारण हैं कि देश की विधायिका आज देश की कानूनी आवश्यकता को समझ में नाकाम सिद्ध हों रही है? संस्थान दर संस्थान, भ्रष्टाचार की मार से नष्ट हों रहे है, तकनीकि परिवर्तन जीवन में नए विकास लाकर नए संवर्धित कानूनों की मांग खड़ी कर रहे हैं, समय नयी चुनौती पैदा कर रहा है| परन्तु; हाँ, परन्तु; विधायिका खोखली राजनीति के घिनोने नग्न नृत्य का प्रतिपादन, निर्देशन और संपादन में अतिव्यस्त है| अब यह दूरदर्शिता की कमी मात्र रह गयी है या इच्छा-शक्ति का नितांत आभाव है| इस समय जनतांत्रिक विचारधारा के बड़े बड़े स्तंभ यह विचार करने पर मजबूर है कि क्या वह संसद और संसदीय प्रणाली में आस्था रखते है? हमारी आस्था संसद में भले ही बनी रही हों परन्तु निश्चित रूप से हमारे सांसदों में तो नहीं बची रह गयी है|

कंपनी विधेयक पिछले कई वर्षों से उठ गिर रहा है| पेंशन विधेयक अभी सोच विचार में डूबा है| भ्रष्टाचार उन्मूल्यन पर कोई उचित विचार नहीं है| गलत आचारण को उजागर करने वाले लोगो को सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हों रही है| आम नागरिक रिश्वत देने पर मजबूर है और शिकायत करने पर शोषित और दण्डित हों रहा है| न्यायपालिका पर अत्याधिक दबाब है और आवश्यक कानूनी व्यवस्था नहीं बन पा रही है| दूसरी ओर यही सांसद दमनकारी क़ानून बिना किसे हील-हुज्जत बहस आदि के पारित कर देते हैं|

सड़क पर जनता, मुंबई, २१ अगस्त २०११ (The Hindu)

क्या हमारा देश सदन में की गयी नारेबाजी, कुछ-एक स्थगन प्रस्ताव, विधायिक कार्यों में रोजमर्रा की बाधा आदि के सहारे ही चलेगा?? क्या हम चुनाव के दौरान दिए गए कुछ गलत वोट के कारण चुने गए ऐसे सांसद पांच वर्ष तक झेलने के लिए अभिशप्त है?? क्या हम अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को यह नहीं कह सकते कि वह फालतू के हल्ले-गुल्ले में न पड़े और कुछ काम-धाम कर ले? क्या हम अपने प्रतिनिधि से नहीं कह सकते कि वह आवश्यक क़ानून बनाएँ?

क्या संसदीय व्यवस्था निर्वाचित तानाशाही है? क्या संसदीय जनतंत्र दम तोड़ रहा है?? क्या प्रतिनिधिक जन तंत्र को भागीदारी जनतंत्र से बदलने पर यह संसद हमें मजबूर करने जा रही है???