साहित्य : समाज का दर्पण — समतल, अवतल या उत्तल


अभी कुछ दिन पहले माननीय साहित्यकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी का गाँव भरथुआ देशभर में बदनाम कर दिया गया| वैरागी राजा और मुनि भतृहरि जी तपोभूमि एक नरपिसाच की दरिंदगी की भेंट चढ़ गयी| दिखिए क्या लिखा है इन्होने और इन्होने. कैसे एक ही गाँव में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का महानायक और आज का एक महाखलनायक पैदा हो गया?

अब किसे नहीं पता कि कौरव और पांडव एक ही गाँव और घर परिवार के थे? क्या क़ानून का कोई महापंडित भी ठीक से ये बता सकता है कि हस्तिनापुर के राज सिंहासन पर किसका उचित अधिकार था? हम जानते है कि सिंहासन का निर्णय सत्य से नन्हीं, चरित्र से नहीं और वरन इस बात से हुआ था कि सत्य और चरित्र का अधिक झुकाव किधर है| (टिपण्णी: युद्ध में हुई हार जीत मात्र प्रासंगिक है, सत्य का निर्णय नहीं|)

हाल में भरथुआ का नाम उछलने से साहित्य और समाज के रिश्ते चर्चा में उतर आये हैं| यह अच्छी बात है| इस तरह के प्रसंग बहुत सार्थक प्रभाव छोड़ते हैं| हमारे भावनात्मक देश में आज कल लोग शास्त्रार्थ की बातें नहीं करते वरन शस्त्रार्थ, कुत्रर्कों से काम चलाने लगते हैं| सार्थक चर्चा कम ही हो पातीं हैं| माफ़ी मंगवाना, प्रतिबंद लगवा देना, मुंह तोड़ने से बलात्कार तक करने की धमकी दे देना, भारत बंद करवा देना आदि अभिव्यक्ति की स्वंत्रता के हमारे प्रिय माध्यम बन चुके हैं| आज रोजगारी अक्षरज्ञान के समय में शिक्षा और शास्त्रार्थ का आभाव होना शायद स्वाभाविक है| ऐसे समय में मुझे असंतुलित भाषा में भोजपुरी लोकगीतों पर निशाना साधती एक टिपण्णी फेसबुक पर दिखाई दी| उसके विरोध और समर्थन में कई तर्क कुतर्क भी दिखाई दिए जिनमे मुद्दे से हट कर टिपण्णी लेखक के निजी संबंधों तक पर किये गए प्रहार तक शामिल हैं|

मैं आज समूचे भारतीय साहित्य में अश्लीलता (कामुकता स्वीकार्य है अश्लीलता नहीं) प्रचुरता से पाता  हूँ| निश्चित रूप से कोई भी साहित्य (भले ही वो पीत साहित्य ही क्यों न हो) समाज का दर्पण होता है परन्तु “दर्पण” पूरा सच नहीं होता| प्रथम तो दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब हमेशा बिम्ब का आधा होता है| (खुद नाप कर देख लें, प्रयोगशाला में जाने की जरूरत नहीं है|) दूसरा उस दर्पण का खुद का क्या स्वरूप है: समतल, अवतल या उत्तल? यह सम्बंधित साहित्यकार पर निर्भर है कि वो क्या रूप चुनता है| यदि हम दर्पण को बिना समझे प्रतिबिम्ब को देखेंगे तो हमें कभी सही जानकारी नहीं मिलेगी| साहित्यकार क्या दर्पण चुनता है यह इस पर निर्भर है की उसकी प्रतिबद्धता क्या है? उसके साहित्य का पाठक, श्रोता और दर्शक कौन है?

आज हमारे लगभग सभी स्तरीय साहित्यकार कहते हैं कि उन्हें पाठक नहीं मिलते| आज गिने चुने हिंदी भाषी घरों में ही हिंदी साहित्य पुस्तकें और पत्रिकाएं आतीं हैं, मगर मनोहर कहानियां बिक जातीं हैं| आज कौन मधुर सार्थक संगीत सुनता है? कितने लोग सार्थक फिल्म, नाटक देखने जाते हैं? कई बार हम घटिया साहित्य के लिए प्रकाशकों, निर्देशकों और निर्माताओं को दोष देते हैं, मगर वो हमें हमारा गला पकड़ कर हमें कुछ भी पढने, सुनने और देखने को मजबूर नहीं करते हैं| हो सकता है कि वो बेहतर विज्ञापन करते हों, मगर क्या हमें अपनी समझ का प्रयोग नहीं करना चाहिए? क्या शराब की दुकानें लोग विज्ञापन के सहारे ढूंढते हैं? नहीं, इस देश में शराब खुद बिकती है और फलों के रस का विज्ञापन आता है| मेरा मंतव्य इतना है कि हम अपनी मानसिकता के अनुसार चीजे खोज लेते है| हमें अपनी मानसिकता पर लगाम रखने की जरूरत है|

सत्य यह है कि कुछ लोगों के लिए साहित्य एक आय का माध्यम भी है और उन्हें वही परोसना है जो बिक जाए| हर कोई महाकवि निराला नहीं है| हम – आप बढ़िया साहित्य खरीदें, सुनें और देखें तो क्या मजाल कि ख़राब साहित्य बिक जाए| घटिया पर प्रतिबन्ध का प्रश्न ही नहीं है, प्रश्न बढ़िया के प्रोत्साहन का है| मेरे लिए प्रोत्साहन का अर्थ कोई अकादमी की इमारत बनबा देना नहीं है वरन उसे घर घर लाने और पहुँचाने का है|

अगर हम किसी भी रचना को स्वीकारते हैं तो निश्चित ही हम उसमे वर्णित बातों का विरोध नहीं कर रहे होते, भले ही उसका समर्थन न करें| आज देश में हर भाषा में घटिया स्तरहीन साहित्य छाप रहा है| ये भोजपुरी, पंजाबी और मलयालम का प्रश्न नहीं है| यह हमारे द्वारा सही साहित्य को समर्थन न देने के कारण हैं|

आज हमारे साहित्य का मुख्यत लोक साहित्य का काफी पतन हुआ है| लोक भाषाएँ या क्षेत्रीय भाषाएँ अपने श्रेष्ठ रचनाकारों को अंग्रेजी के लिए खो रहीं हैं और कम श्रेष्ठ रचनाकार बढ़ी भाषाओँ में लिखना चाहते हैं| मगर दूर दराज के अंचलों में साहित्य, मुख्यतः मनोरंजक साहित्य की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कौन बचता है?  यहाँ पर एक बहुत बढ़ा शून्य है|

मेरे निजी विचार में देश का मजदूर तबका दूर दराज के इलाकों से आता है जो मुख्य रूप से आंचलिक और क्षेत्रीय भाषाओँ को प्राथमिक रूप से समझता है| इस वर्ग हो अपनी भाषा में ही मनोरंजन चाहिए होता है और उसकी मनोरंजक साहित्य शून्य को उन भाषाओँ का स्तरहीन साहित्य भर रहा है| प्रारंभ में उसे पढ़ते, देखते सुनते समय नहीं लगता कि कुछ गलत सुना जा रहा है मगर बाद में जब अर्थ समझ आने लगते है तो वही कुतर्क दिमाग में आते हैं: १. सब तो सुन रहे हैं,  २ सब जगह यही सब हो रहा है, ३. हम जो कर रहे है उस पर हमला मत कर, बहुत मारेंगे| इस सब से न सिर्फ स्तरहीन रचनाकारों का वरन स्तरहीन साहित्य पसंद करने वालों का होसला बढ़ रहा है|

कई वर्ष पहले से मुझे लोक साहित्य और संगीत को समझने का शौक चढ़ा था| हमारे व्रज में में रसिया होता है, रसिया – दंगल भी| एक मित्र मुझे अलीगढ़ नुमायश में रसिया दंगल में ले गए| अश्लीलता की वो हद थी कि हम दोनों न सिर्फ भाग खड़े हुए बल्कि डरते रहे की कोई देखा न ले| रसिया को इस सब स्तरहीनता से बचाने के उद्देश्य को सामने रख कर मैंने एक बड़ी कंपनी दारा प्रायोजित कार्यक्रम के लिए एक ब्लॉग आलेख भी लिखा था|

हमारे देश की एक और विचित्र मानसिकता है| हम भाषाओँ को विशेष अभिव्यक्तियों के लिए चुन लेते हैं| प्रेम मुहब्बत की बातें उर्दू में अधिक अच्छी लगतीं है और धर्म कर्म संस्कृत में; राम को अवधी ज्यादा भाती है और राधा कृष्ण प्रायः ब्रजभाषा में ही फंसे हैं| लड़के – लडकियों की शोखियाँ और मस्तियाँ पंजाबी की मोहताज हैं तो अश्लीलता प्रायः भोजपुरी के सर आ पड़ी है| ये सब क्या है? क्या भाषाएँ इन्हें चुनतीं हैं?

हमारे समाज की रचना कई तरह के राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और आंचलिक प्रभावों से मिलकर होती है| चाहे यह समाज दिल्ली में हो या भरथुआ में|

क्या पंजाबी गानों पर पूरा उत्तर भारत नहीं उछलता कूदता (कुछ लोग नृत्य भी कर लेते हैं)?

क्या भोजपुरी फिल्मों और तथा कथित लोकगीतों को सारे उत्तर भारत का मजदूर तबका नहीं सुनता?

क्या हनी सिंह के गाने सुनने वाले अधिकतर लोग सारे भारत से आये महानगरीय महामजदूर नहीं है?

जब हम भारतियों को अपनी बात पर जोर देना होता है तो हम प्रायः अंग्रेजी में बोलते है और जिन शब्दों को अपनी भाषा में बोलने पर लज्जा आती है, वो भी अंग्रेजी की गंगा में पवित्र हो जाते हैं| मैं यहाँ अंग्रेजी नहीं बोलूँगा| अंत में इतना ही कहूँगा, हमारे देश में देखे जाने वाली ज्यादातर पोर्न फ़िल्में शायद इंग्लिश में होतीं है तो क्या सारे अंग्रेजी भाषी अश्लील हो जाते हैं?

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हर समय संगीत संग


 

मैंने अपनी पिछले ब्लॉग पोस्ट में जब लिखा कि लोक संगीत को बचाने में नयी तकनीकि माध्यम हो सकती है तो किसी मित्र ने पूछा कि क्या आप पाश्चात्य संगीत नहीं सुनते? मैंने कहा, “नहीं, नहीं भाई, मेरा संगीत ज्ञान बहुत कमजोर है, जहाँ भी कोई लय, धुन, सुर ताल महसूस होती है, मैं संगीत सुन लेता हूँ|”

किन्ही साहब ने कहा, संगीत पसंद है तो गंग्नम स्टाइल में नाच कर दिखाओ| भाई!!, संगीत पसंद करना, सुनना अलग बात है| ये गाना बजाना, नाचना अपने बस में नहीं हैं| ये गाना बजाना नाचना, सब खुदाई नियामत हैं, मुझ जैसा आदमी इसे करकर कैसे पाप कर सकता है| खैर, उनका मन था तो कोशिश की और खुद पर हंस भी लिए|

अब  HP Connected Music India वालों एक नया प्रश्न सामने ला खड़ा किया गया है| क्या कहा या लिखा जाये जब कोई मुझसे पूछे कि मेरे जीवन में संगीत का क्या स्थान है?

जब मेरा जन्म हुआ था तब थाली बजा कर ही तो पहली बधाई दी गयी थी| थाली का वो संगीत भले ही आज महत्व न रखता हो मगर संगीत को जीवन से परिचित करने वाली वह ध्वनि आज भी मुझे संगीत से जोड़ कर रखे हुए है|

बाबा का वह लयबद्ध संध्या हवन और मन्त्र पाठ, माँ की गयी मानस की चौपाईयां, कवितायेँ गुगुनाते पिता, रेडियो पर बजता विविध भारती के फ़िल्मी गाने, रोज गाने गाकर भीख माँगने वाली भिखारिन – अम्माँ; सारा जीवन ही संगीत से शुरू होता है| हमारे यहाँ परम्परा है, आमतौर पर, मृत्यु पर संगीत नहीं बजाया जाता| यदि मरने वाला बहुत बड़ा आदमी हो तो शहनाई की शोकधुन बजती है और अगर वह अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर कर गया हो तो उसकी बाजे गाजे से अंतिम विदा|

मुझे संगीत के लय, सुर, ताल, सरगम की समझ नहीं आई मगर मन के हर हेर – फेर पर अलग प्रकार का संगीत सुनने की आदत रहीं है| बचपन में भजन, सुगम, गजल, फ़िल्म, कव्वाली, लोक संगीत, सुनने को मिला तो किशोरवय में रसिया, आल्हा, से लेकर ठुमरी, टप्पा, कजरी, होरी से होते हुए ध्रुपद, धमार, ख्याल भी सुनने में अच्छे लगने लगे|

जब कैरियर बनाने का भुत सर पर चढ़ गया तो सुगम संगीत सुनना बंद कर दिया क्योकि बोल जल्दी ही ध्यान अपनी तरफ खिंच लेते थे| उन दिनों वादन यानि इंस्ट्रुमेंटल सुनने लगे| हिन्दुस्तानी ही नहीं कर्नाटक और वेस्टर्न क्लासिकल पर भी कान अजमाए|

आप पढने बैठे हैं, बाएं हाथ की तरफ पानी से भरा पात्र रखा है, टेबल लेंप की हल्की रोशनी किताब पर हैं, पीछे म्यूजिक सिस्टम पर हल्की आवाज में कर्नाटक संगीत का कोई राग बजाया जा रहा है, रात का जो पहर है उसी पहर का संगीत है, आप बेहद ध्यान से पढ़ रहे है| आपकी कलम से कागज़ पर आपकी असली या ख्याली महबूबा के लिये “मुल्ला: द ट्रान्सफर ऑफ़ प्रॉपर्टी लॉ” जैसी भारी भरकम पुस्तक से “मॉर्गेज” पर नोट्स तैयार किये जा रहें हैं| मजाल क्या है, नींद आ जाये, ध्यान भंग हो जाए, कमर टिक जाए, प्यास लग जाए और बाहर गली में पहरा देता चौकीदार आपकी गली में “जागते रहो” की आवाज लगा जाये| पढाई सुबह संगीत की धुन बंद होने पर ही रुकनी है|

जब हम अपनी इंटर्नशिप के लिए एक साहब के दफ्तर पहुंचे तो सोने पर सुहागा हो गया| साहब लोग पेशे से तो चार्टर्ड अकाउंटेंट और कंपनी सेक्रेटरी वगैराह थे मगर उनके यहाँ बिना बैकग्राउंड म्यूजिक के जोड़-गुना नहीं होते थे| अगर कंप्यूटर में कोई गाना नहीं बज रहा होता तो अन्दर से जबाब तलब कर लिया जाता, “इस कंप्यूटर का इलेक्ट्रॉनिक टाइप-राइटर किस से पूछ कर बना दिया?”

आज संगीत हर जेब में पड़े मोबाइल में हैं, हर गोद में रखे लैपटॉप में हैं; और सुना जा रहा है| जब सुनता हूँ तो लगता है कि चोरी तो नहीं है, जिसने गीत लिखा, बोल दिए, म्यूजिक दिया, साज बजाये; क्या उनके घर उनकी मेहनत का फल पहुंचा होगा की नहीं? कोई दोयम दर्जे की रिकॉर्डिंग तो नहीं? सुगम संगीत के बड़े बड़े नामों को तो शायद कोई फर्क नहीं पढता हो मगर लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत, उप – शास्त्रीय संगीत वाले कहाँ किस तरह से गुजरा कर पाते होंगे| सस्ते पायरेटेड म्यूजिक रिकॉर्डिंग ने मेरे हाथ में संगीत तो पहुंचा दिया है; मगर हम मुफ्त और सस्ते के फेर में केवल कुछ खास तरह के म्यूजिक ही सुन पाते हैं|

जरूरत ये है कि अच्छे लोग अच्छे संस्थान आगे आयें और हमें हर तरह का, हर रंग का हर मूड का संगीत एक जगह उपलब्ध कराएँ| हम अपना मूड बदलें, पलक झपके मन, समय, प्रहर, ऋतू, स्थान, के हिसाब से संगीत बज उठे… पंडवानी से लेकर पाश्चात्य तक सब| ज्यादा तरह का संगीत मिलेगा तभी तो ज्यादा तरह के संगीत का शौक पैदा होगा|

उम्मीद की किरण तो है, उम्मीद पूरी होना अभी बाकि है|