मगध की सामान्य बोगी


उन दिनों मगध[1] पटना से नई दिल्ली के बीच नियत समय से थोड़ा बहुत आगे पीछे ही चला करती थी| मगध ही वह ट्रेन है जिसमें मैंने अपने ट्रेन यात्रा जीवन की किशोर अवस्था बिताई है| उन दिनों मगध सुबह सवा नौ और दस बजे के बीच अलीगढ़ पहुँचती और यात्रियों के जनता खाना[2] खरीदने के बाद प्रस्थान करती थी| उन दिनों में नया नया रंगरूट था तो रेलयात्रा के तौर –तरीके नहीं पता थे, इसलिए  नियम कायदे से ही चलता था| मेरे पास दूसरे दर्जे का पास था जिसके कारण मैं मगध में बिना सुपर[3] लिए नहीं बैठ सकता था| मैं रोज लाइन में लगकर सुपर लेता और प्लेटफ़ॉर्म पर पढाई करते हुए मगध का इन्तजार करता| प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे पास ही एक मोटी हरयाणवी भिखारिन बैठती और बीचबीच में अपनी कर्कश आवाज में मुझे ध्यान से पढ़ने की हिदायत देती| मैं और वो भिखारिन एक साथ एक बागी में मगर अलग अलग दरवाजों से चढ़ा करते|

पहले दो हफ्ते मैं जनरल बोगी में दिल्ली तक खड़ा होकर गया मगर धीरे धीरे मैंने लम्बी यात्रा के थके हारे बिहारी मजदूरों को दबाब डालकर थोड़ा सरकने के लिए कहना सीख लिया|  मगर फिर भी कभी कभी वो लोग सख्तजान निकल जाते| जब भी मैं भिखारिन को खड़ा मिलता वो मुझे और आसपास बैठे लोगों को कोसती और जगह करा देती| वो हर किसी से दस रुपये वसूलती[4] और न देने वाले की मर्दानगी को कच्चा चबा डालने की धमकी देती| प्रतिवादी जो कुछ कहती वो शायद खुद भी कभी ट्रेन के बाहर कभी न दुहराती| गर्मियों में मैं एक बोतल में फ्रिज का ठंडा पानी लेकर चलता| उसने मुझ से दो बोतल लेकर आने के लिए कहा| बाद में जब भी वो मुझसे पानी मांगती लोग पहले तो मुझे दया-दृष्टि से देखते मगर डरकर तुरंत जगह दे दिया करते|

एक बात मुझे अपनी बहन को किसी काम से दिल्ली ले जाना था| मुझे भिखारिन की फुलफॉर्म का पता था इसलिए मैंने प्लेटफ़ॉर्म पर ही बता दिया कि बहन साथ है| उसदिन उसने कम से कम पांच सौ रुपये कम की वसूली की| उस दिन मैंने उसमे किसी भी पारवारिक व्यक्ति का रूप देखा| उसने हमसे पढ़ने लिखने के बारे में गंभीरता से बात की| उसे इलाहबाद से लेकर दिल्ली तक की सब यूनिवर्सिटी और उनके कोर्स पता थे| उसने बहन से कहा कि उसे अधिवक्ता बनकर टैक्सेशन में प्रक्टिस करनी चाहिए|

बाद में मेरा मगध से जाना कम हो गया| मैंने उसे सोनीपत के रेलवे स्टेशन और नए शहर में देखा, मगर उसने मुँह फेरकर पहचानने से मना कर दिया| शायद वहीँ कहीं उसका घर था|

[1] कृपया इसे मगध एक्सप्रेस न पढ़े| इन दिनों यह राजिन्द्रनगर पटना से नई दिल्ली के बीच चलती है और केवल चलती है|

[2] इस विषय पर पुरानी पोस्ट पढ़े – https://gahrana.com/2017/07/29/indian-railway-peoples-food/

[3] यह सुपर सुपरफास्ट अधिभार टिकेट का प्रचलित नाम है, जो जो सामान्य गति की ट्रेन टिकेट या मासिक टिकेट पर यात्रा करते समय सुपरफ़ास्ट ट्रेन में बैठने के काबिल बनाता है|

[4] यह सन २००४ की बात रही होगी|

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भारतीय रेलवे जनता खाना


बचपन में जब भी लम्बी दूरी की यात्रा पर जाना होता – पूड़ी, आलू टमाटर की सूखी सब्जी, आम, मिर्च या नीबू का आचार और सलाद के नाम पर हरी मिर्च या प्याज हमेशा साथ होती| पता नहीं क्यों यूँ लगता था कि सफ़र के दौरान इस खाने का स्वाद कुछ अलग ही बढ़ जाता है| प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के आर्थिक सुधार और छठे वेतन आयोग की सिफ़ारिशें देश में कुछ ख़ुशहाली लायीं और पुरानी ख़ुशियाँ छिनने लगीं| भारतीय रेल की पेंट्री और रेलवे प्लेटफ़ॉर्म का महंगा खाना खरीदने के पैसे लोगों के पास आ गए| कहिये कि संदूक का वजन कम करने के चक्कर में जेब का वजन भी भारी पड़ने लगा और हल्का किया जाने लगा|

भारतीय रेल नेटवर्क में मिलने वाले सभी खानों में स्वाद, मूल्य और उपलब्धता की दृष्टि से अगर किसी खाने का चुनाव करना हो तो जनता खाना उत्तम विकल्प हो सकता है| जिन दिनों मैंने जनता खाने का पैकेट पहली बार खरीदा तब यह सात या दस रुपये का था| आज भी यह पंद्रह या बीस रूपये में आ जाता है| जिन दिनों मैं अलीगढ़ – दिल्ली रोजाना यात्रा करने लगा, उन दिनों मुझे जनता खाने से प्रेम हुआ|  मुझे घर जल्दी छोड़ना होता था, अतः लगभग रोज जनता खाना खरीदता था|

भारतीय रेल का जनता खाना भारतीय खाद्य आदतों का परिचायक है| थोड़ा अच्छी तरह सिकी हुई पुड़ी, मिर्च वाली आलू टमाटर की सूखी सब्जी, मिर्च| पैकेट का आधिकारिक वजन लगभग डेढ़ सौ ग्राम – सात पूड़ी के साथ| साथ में मिलने वाली हरी मिर्च जिस प्रकार इन पैकेट के बाहर झांकती है, उसका भी अलग आकर्षण है| आम बाजारू आलू सब्जी से अलग इसमें तेल बहुत कम है और चूता तो लगभग नहीं ही है| गाढ़ी आलू सब्जी में पानी रिसने का भी प्रश्न नहीं अतः इसके पैकेट को लोग गोद में रखकर कहते खाते हुए भी मिल जायेंगे|

जनता खाना लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री काल की धरोहर है| आप लालू प्रसाद यादव को राजनीतिक और निजी कारणों से नकारने का प्रयास कर सकते हैं, परन्तु उनके समय का कुशल रेल प्रबंधन का बिना शक सराहनीय रहा है| भारतीय रेल में खाना बेचना सरकार के लिए भले ही सरल हो मगर देश भर में इस काम में लगे छोटे विक्रेताओं के लिए परिवार के जीवन – मरण का प्रश्न है| एक विक्रेता एक मिनिट में चार से अधिक ग्राहक को सेवा नहीं दे पाता| एक स्टेशन पर दो मिनिट से कम देर रुकने वाली ट्रेन में जनता खाने के ग्राहक प्रायः कम ही होते हैं| ऐसे में संघर्ष बढ़ जाता है| ट्रेन समय से दो-एक घंटा देर से चल रही हो, पांच मिनिट या अधिक रूकती हो और निम्न मध्यवर्ग की सवारियों का बाहुल्य हो –  यह हर छोटे विक्रेता के जीवन यापन के लिए आवश्यक है| इन आदर्श परिस्तिथियों में एक ट्रेन से एक विक्रेता पांच मिनिट में बीस पैकेट बेचकर चालीस रुपये बनाने की उम्मीद कर सकता है|

एक दिन अचानक मैंने जनता खाना लेना बंद कर दिया| अलीगढ़ जंक्शन के चार नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर मगध एक्सप्रेस आना चाहती थी| सिंग्नल और अनाउंसमेंट हो चुका था| एक भूखा पेट वेंडर दो नंबर प्लेटफ़ॉर्म से लाइन पर कूदकर तीन नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर जा चढ़ा और चार पांच जनता खाना डिब्बे लाइन पर ठीक वहां जा गिरे जहाँ नहीं गिरने चाहिए थे| ऐसे की किसी दिन को देखकर भारतीय रेलवे को बायो-टॉयलेट का विचार आया होगा| चार डिब्बे को छोड़ने का अर्थ अगले एक घंटे की कमाई गवां देना था| वेंडर वापिस पलटा, गिरे हुए डिब्बे संभाले और भागकर चार नंबर पर रूकती हुई मगध एक्सप्रेस के अनारक्षित डिब्बे के अन्दर गरम खाना – गरम खाना चिल्ला रहा था| भाषण मत दीजिये – अपने नामचीन विदेशी भोजनालय का दो दिन बासा खाना खाते हुए नीचे दिए हुए चित्र को देखिये और लालू प्रसाद के समाजवाद और नरेन्द्र मोदी के पूंजीवाद पर बहस करते रहिए| [i] [ii] [iii] [iv] [v] [vi] [vii]

[i] http://hindi.webdunia.com/national-hindi-news/%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%B9%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B9-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%9F-107042100105_1.htm

[ii] https://www.bhaskar.com/news/CHH-RAI-HMU-MAT-latest-raipur-news-042003-2972594-NOR.html

[iii] http://paisa.khabarindiatv.com/article/tag/janta-khana/

[iv] http://www.amarujala.com/uttar-pradesh/ghaziabad/janta-food-eat-carefully

[v] http://naidunia.jagran.com/madhya-pradesh/ratlam-railway-naptoll-janata-khana-1019510

[vi] http://indianexpress.com/article/trending/this-is-serious/dead-lizard-found-in-veg-biryani-on-train-tweeple-hit-out-at-indian-railways-4767682/

[vii] http://www.financialexpress.com/economy/cag-report-calls-railway-food-unfit-for-humans-10-steps-indian-railways-says-it-is-taking-to-ensure-quality/776532/

त्यौहार घर पर


घर वही होता है जहाँ आपका बचपन भंवरे की तरह गूंजा हो, जवानी माँ की तरह पिघली हो और जिसकी याद से बुढ़ापा सावन – भादों की तरह पनीला हो जाये| जिन्दगी की जिद्दोजहद में इंसान भले ही कितना दूर चला जाये, खो जाये और खुद को भूल जाए, उसे याद आता है, अपना घर| आज की पीढ़ी के ज्यादातर लोग, रोजी – रोटी, काम और नाम की तलाश में अपने इसी घर से दूर चले जाते हैं| यह दूरी कुछ सौ किलोमीटर से लेकर हजारों किलोमीटर तक हो सकती है| इस साल का पहला बड़ा त्यौहार आ चुका है होली|

जो लोग हमेशा अपने घर में रहते हैं उनके लिए त्यौहार की तैयारी दो चार हफ्ते पहले शुरू होती है मगर प्रवासी पंछियों के लिए यह छः महीने पहले शुरू होती है| सबसे पहले रिजर्वेशन की तारीख नोट की जाती है कि सही दिन सही समय आप रिजर्वेशन करा सकें, एजेंट को पकड़ सकें और रुपये पैसे का इंतजाम रख सकें| दो महीने पहले आपको ट्रेन का आरक्षण करना होता है (अब यह भी चार महीने पहले कराना होगा)| ज्यादातर लोग अपना रिजर्वेशन वेटिंग लिस्ट में देख कर यात्रा शुरू होने से दो घंटे पहले तक परेशानी में पड़े रहते हैं|

यात्रा के दिन आपको रेलवे स्टेशन पर जाने के लिए ऑटो – टैक्सी का इंतजाम रखना होता है, जो उस दिन मुश्किल भरा काम हो जाता है| मेट्रो में भीड़ बहुत रहती है तो उसे हिम्मतवालों के लिए ही छोड़ देना चाहिए| दिन दिनों ऑटो की प्रतीक्षा का समय १० मिनिट से बढ़कर पौन घंटा हो जाता है|

आप एक घंटा पहले रेलवे स्टेशन पहुँचते हैं| अगर आप सही प्लानिंग करने के साथ साथ भाग्यशाली हैं तो आपके पास कन्फर्म रिजर्वेशन होता है|

रेलवे स्टेशन पर कुम्भ मेले से भी ज्यादा भीड़ होती है| उत्तर प्रदेश – बिहार जाने वाली ट्रेनों में भीड़ इतनी होती है कि उनके यात्री कई घंटों से पंक्तिबद्ध होकर ट्रेन में चढ़ने की प्रतीक्षा करते हैं| अगर आप सामान्य अनारक्षित  (जिसे कुछ लोग भेड़ – बकरी क्लास कहते हैं) या गैर – वातानुकूलित आरक्षित डिब्बे में यात्रा कर रहें हैं तो यह शायद आपके शिक्षा कालीन – चुनाव कालीन पापों का फल है| यह आपका आम जनता होने का सीधा सरल प्रमाण है| अगर आप वातानुकूलित तीसरे या दुसरे दर्जे में हैं तो शायद आप ठीक ठाक नागरिक है| मगर किसी भी डिब्बे में चढ़ना इतना आसन नहीं है, जितना होना चाहिए| हर किसी को ट्रेन लगने के बाद पहले पंद्रह मिनिट में ही ट्रेन में चढ़ना होता है भले ही सामान रखने के बाद आप बाहर चिप्स, पानी, पेपर, चेतन भगत (दिखाने के लिए) और वेद प्रकाश शर्मा (पढ़ने के लिए) खरीद लायें|

इसके बाद ट्रेन अपने समय से प्लेटफ़ॉर्म छोड़ देती है और बाहर आकर रुक जाती है| भारतीय ट्रेन को देखकर मेरा मन करता है: कोई गाना लिखूं: “ मेरा मन मंथर – मंथर, चलूँ डगरिया रोती – सोती”|

अगर भारतीय ट्रेन किसी त्यौहार के दिन हर घंटे में पांच मिनिट लेट न हो तो रेलमंत्री को शायद त्यागपत्र देना पड़ जाये| आप जब अपने घर के स्टेशन पर पहुँचते है तो लोग इन्तजार कर कर थक चुके होते हैं| त्यौहार भूल कर आपके देर से आने के चर्चे करते हैं| आपको लगता है, कितना प्यार है सबको, कोई आपको आने में हुई देरी को सहन नहीं कर पा रहा|

जब आप घर में घुसते है तो पडौसी चाची देख कर पूछती हैं, “बेटा, कब आये?” पैर छूने और गले मिलने में जो प्यार और आनंद उमड़ता है, उस के लिए हो तो आप भागते दौड़ते घर आये थे|

चलिए होली की गुजिया, कांजी, ठंडाई, रंग उमंग भंग भड्दंग की बधाईयाँ|

 

टिपण्णी: यह पोस्ट इंडीब्लॉगर द्वारा https://housing.com/lookup के लिए किये गए आयोजन के लिए लिखी गयी है|