पुस्तक मेला में पाठक


यह मेरी निजी राय है, परंतु हिन्दी साहित्य जगत में पुस्तक और साहित्य मेला आदि पाठक का उत्सव नहीं है या कम से कम मुझे नहीं लगता।

यह लेखक और प्रकाशक का उत्सव है जहाँ पाठक बेगानी शादी के अब्दुला दीवाने की तरह आता है और इनी-गिनी किताबों की पालकी उठाकर लौट जाता है। अधिकतर पाठक पहले से सुनी गुनी किताबें खरीदते हैं और निकल लेते हैं। पाठक अन्य किताबों को न समझ पाते हैं न अपनी जरूरत या रुचि की अन्य किताबों को ठीक से जान पहचान पाते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में अगर किसी को बेहतरीन डायरी लेखन पढ़ना हो और मोहन राकेश की डायरी का नाम सुना हो तब भी वह मलयज की डायरी तक उसका पहुँचना कठिन है। यहाँ मैं इस तर्क को स्वीकार नहीं करूंगा कि दोनों के प्रकाशक अलग है। हिन्दी लेखन और प्रकाशन उद्योग में अन्यथा इतना आपसी (और प्रशंसनीय) सहयोग तो है कि पाठक दूसरे प्रकाशन तक का मार्ग बता सकें।

बड़े (खासकर अङ्ग्रेज़ी) प्रकाशकों के पास धन, तकनीकी और बढ़िया पुस्तकों की जखीरा उन्हें पाठक से थोड़ा बहुत जोड़ लेता है, अन्य प्रकाशक तो नए नए प्रकाशन के लिए अपनी पीठ ठौंकने और लेखक नई पुरानी पुस्तकों के लिए सम्मानित होने में लगे रहते है। उनके पास अपने ग्राहक पाठक के लिए समय नहीं निकल पाता। उनके लिए मेरी स्टाल पर तेरी स्टाल से कम किताबें कैसे का अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसके बाद किताब तो लेखक बेचे, हम पर्ची काटेंगे।

हाँ, यहाँ मेलों में पाठक को एक ही सुविधा अवश्य होती है कि किसी उपस्थित लेखक से खरीदी हुई पुस्तक पर ‘सप्रेम” “शुभकामनाओं सहित” या “आदर सहित” लिखवा ले। (जिन्हें परंपरा नहीं मालूम उन्हें लगता है मानो पुस्तक उपहार में मिली हो)।

मेरी बात यह है कि जब पाठक किसी भी प्रकाशन पर पहुंचता है और अगर दो पुस्तक उठा ले तो कोई उसे किसी तीसरी पुस्तक के बारे में नहीं पूछेगा/सलाह देगा। यानि बिक्री पर न ज़ोर है न पाठक पर। कोई बैंक वाला होता तो वह भी कर देता जिसे “मिस्सेल्लिंग” कहते है पर आप बिक्री पर ध्यान तो कुछ दें, भले ही ग्राहक भगवान है वाला मुहावरा न मानें। हमारे यहाँ शायद कोई हिचकिचाहट है, कि पाठक पर दबाव बनाते हुए न लगें। मगर आपने अपने स्टाल पर किताबों का जंगल सजा रखा है उसमें पाठक को विचरण करने में कुछ तो मदद करें। फ़ेसबुक/टिवीटर पर पुस्तक प्रकाशन सूचना देने मात्र से आगे जाना होगा।

दिल्ली/देश के बड़े नामी पुस्तक विक्रेताओं से कुछ सीखें, वह इस बात पर ध्यान देकर बड़े बने हैं कि इस ग्राहक पाठक को क्या पसंद आ सकता है और क्या यह पढ़ेगा और क्या खरीदेगा और क्या उपहार में देगा। मैं सभी प्रकाशनों चाहे वह पत्रिका निकाल रहे हैं या पुस्तक यह विनम्र अनुरोध हमेशा करना चाहता हूँ, कि आप किसी धंधे में हैं तो समाजसेवी या हिन्दीसेवी वाली मुद्रा से निकलें वरना किताबें और पत्रिकाएँ भी मुफ्त बाटें। यदि मुफ्त नहीं बांटना चाहते तो बाजार के आधारभूत नियम का पालन करें। पाठक को ग्राहक की तरह देखें और कम से कम उठना सहयोग करें जितना उसे सही उत्पाद तक पहुँचने में मदद करें। अरे हाँ, हिन्दी में किताबों को उत्पाद कहने को गाली माना जाता है। मगर साहब आप फिर बाजार में क्यों बैठे हैं?

और हाँ, एक और चलन भी है। अगर आप दस पाँच किताबें पकड़े हो तो कोई भी प्रकाशक या लेखक आपसे पूछ सकता है, आपकी किताब किस प्रकाशन से आई है। मानो, किताबें मात्र लेखक ही खरीदते हैं।

दुर्भाग्य है, हिन्दी में बहुत से प्रकाशन बहुत अच्छी किताबें होने के बाद भी बिक्री क्षेत्र में राम भरोसे वाली परंपरा का निर्वाह करते हैं।

जोहरीपुर का छूट जाना


“इश्क में शहर होना” कम से कम दिल्ली में हर हिंदी प्रेमी, साहित्यप्रेमी और पुस्तकप्रेमी की जुबान पर है| पुस्तक बिक रही है, लप्रेक धूम मचा रहा है| मगर पुस्तक पढ़ने के क्रम में मुझे दिल्ली का एक गांव याद आ रहा है| जी, यह भजनपुरा के पास का इलाका है जहाँ ब्रा बन रही है| मेरे अनुमान के मुताबिक वह इलाका जोहरीपुर है| जोहरीपुर इतना प्रतिबंधित सा है कि उसका नाम लेने में संकोच होता है| मैं भी तो नाम नहीं लेता| मैं सहमत हूँ, “ऐसा घबराया की नज़र बचाकर भागने जैसा लौटने लगा| कई दिनों बाद उन गलियों में दोबारा लौटकर गया| ब्रा भी बनता है पहली बार देखा|” [सन्दर्भ: – शहर का किताब बनना – इश्क में शहर होना – रवीश कुमार – सार्थक (राजकमल प्रकाशन)]

नहीं, मैं “इश्क में शहर होना” के लप्रेक को नहीं लपेट रहा हूँ| ब्रा का इश्क़ से सम्बन्ध भी तो नहीं है| ब्रा शरीर छुपाने की चीज है, और ब्रा खुद भी छिपा दिए जाने की| यहाँ पंकज दुबे को बीच में मत लाइए जो कहते हैं, “वहाँ उन्हें दुसरे कपड़ों के नीचे छुपाकर रखने का रिवाज है| पैंटी और ब्रा वहाँ कपड़ा नहीं बल्कि घर की इज्ज़त – आबरू से कम नहीं है|” [सन्दर्भ: – लूज़र कहीं का – पंकज दुबे – पेंगुइन प्रकाशन]

मैंने पूछा था कारीगर से जब दोनों चीजें बनाते हो तो ब्रा ही क्यूँ बोलते हो? बोला साहब, आपको तो पता है कि दूध की दुकान पर दही भी मिलता है, मगर आपने दही की दुकान कभी देखी है? दही से दाम आते हैं, मुनाफा दूध से आता है| दूसरी बात ये है साहब, जिस देश में औरत किनारे (हाशिया पढ़ सकते हैं|) पर हैं, वहाँ औरत के जरूरी कपड़े तो गटर में ही होंगे| कौन गटर का नाम लेगा? मैं उसे देखता रहा| मगर कुछ नहीं बोला| शायद वो नक़ल कर कर के बारहवीं पास हुआ था, मगर… चलिए छोड़ते हैं, अगर उसे बुद्धिजीवी कहूँगा तो… नजला हो जायेगा| [1]

जोहरीपुर – पूर्वी दिल्ली के पूर्व में एक छूट सा गया एक गाँव| लोनी से शायद सटा हुआ| मूल निवासी कम, भीड़ ज्यादा| बुलंदशहर और अलीगढ़ जिलों के गांवों से आने वाले ज्यादातर पिछड़े तबके के लोग| बहुत से लोग ब्रा के काम में लगे हैं| यहाँ कोई छिपाव नहीं है, कुछेक कारीगर, वापिस अपने गाँव में जाकर अपना छोटा सा काम डालते हैं और ट्रेन से तैयार माल दिल्ली के बड़े ब्रांड के पास आ जाता है|

मगर ज्यादातर कारीगर गांव – घर में नहीं बताते कि क्या काम कर रहे हैं| यह एक अछूत काम है| जोहरीपुर… नव – अछूतों की बस्ती है, जिसे पूर्वी दिल्ली ने भी गंदे नाले के पीछे छिपा दिया है|

[1] [जिन्हें दिलचस्पी हो तो उस समय ब्रा के मुकाबले दूसरे कपड़े का आल इण्डिया मार्किट अधिक से अधिक 22 – 25% करीब था, वो चार दिन पहनने वाला कपड़ा जो है| बाकी बातें इस ब्लॉग पोस्ट का हिस्सा नहीं हैं]