टहलने वाली शामें


शाम जब बसंती होने लगें और यह शाम दिल्ली को शाम नहीं हो तो टहलना बनता है|

गुजरा ज़माना था एक, जब हर शाम टहलने निकल जाते थे| उस शामों में धुंध नहीं थी, न धूआँ था| हलवाई की भट्टी के बराबर से गुजरने पर भी इतना धूआँ आँखों में नहीं चुभता था, जितना इन दिनों दिल्ली की किसी वीरान सड़क पर राह गुजरते आँखों में चुभ जाता है| न वाहनों की चिल्ल-पों थी न गाड़ियों से निकलने वाला कहने को प्रदुषण मुक्त धूआँ| गलियों में आती हवा सीधे खेतों जंगलों की ताजगी लाती थी|

उन दिनों घर घर टेलिविज़न नहीं होते थे और लोग मोहल्ले पड़ोस में और मोहल्ले पड़ोस के साथ घूमना पसंद करते थे| भले ही उन दिनों कान, सिर और गले में लटका लिए जाने वाले हैडफ़ोन आम नहीं थे मगर गली कूचों से कोई दीवाना ट्रांजिस्टर पर विविध भारती बजाते हुए गुज़र जाता| अगर वो नामुराद वाकई गली की किसी लड़की का पुराना आशिक होता तो लड़की को मुहब्बत और पास पड़ोस को जूतम-पैजार की टीस सी उठा करती|

घर से निकलते ही पान की तलब होती और दो नुक्कड़ बाद पनवाड़ी की दूकान से दो पत्ती तम्बाकू पान का छोटा बीड़ा मूँह में दबा लिया जाता| अगर घरवाली थोड़ा प्यार उमड़ता तो चुपचाप घर खानदान के लिए एक आध पान के हिसाब से पान बंधवा लिए जाते| शाम थोड़ा और सुरमई हो जाती| लाली होठों से होकर दिल और फिर जिन्दगी तक फल फूल फ़ैल जाती|

पान की दुकानें टहलने वालों का एकलौता ठिकाना नहीं थीं| मिठास भरे लोग अक्सर मिठाई की दुकान पर दौना दो दौना रबड़ी बंधवाने के शौक भी रखा करते| मगर रबड़ी का असली मजा मिट्टी के सकोरों में था|

चौक पर मिलने वाले कढ़ाई वाले मलाईदार दूध का लुफ्त उठाते लौटते| अब वो ढूध कहाँ? चौड़ी कढ़ाई में मेवा मखाने केसर बादाम के साथ घंटा दो घंटा उबलने के बाद ये दूध आजकल की मेवाखीर को टक्कर देता| ढूध पचाना कोई आसान काम तो नहीं था| सुबह उठकर पचास दण्ड पेलने और सौ बैठक लगाने के बाद मांसपेशियां क्या रोम भी राम राम करने लगते|

अक्सर लोग अपने साथ नक्काशीदार मूठ के बैंत ले जाते| गली के कुत्ते उन बैंतों को देखकर भौंकते थे या आवारा घूमते आदमी को, इसका पता शायद किसी को नहीं था| मगर बैंत शान दिखाने का तरीका था और रुतबे की पहचान थी|

मगर टहलने जाना भी कोई किसी ऐरे गैरे का काम नहीं था| अगर टहलने वाले के पीछे एक अर्दली भी टहल करता हो तो मजा कुछ था शान कुछ और|

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दिवाली अब भी मनती है


वर्षा उपरांत स्वच्छ गगन में झिलमिलाते असंख्य तारक तारिकाएँ रात्रि को गगन विहार को निकलतीं| लगता सप्तपाताल से लेकर सप्तस्वर्ग तक असंख्य आकाश-गंगाएं कलकल बह रहीं हों| दूर अन्तरिक्ष तक बहती इन आकाशगंगाओं में हजारों देव, देवेश्वर, देवादिराज, सहायक देव, उपदेव, वनदेव, ग्रामदेव आदि विचरण करते| देवियों देवेश्वरियों, सहायक देवियों, वनदेवियों, उपदेवियों, ग्रामदेवियों की मनोहर छटा होती| आकाश मानों ईश्वर का जगमगाता प्रतिबिम्ब हो| प्रतिबिम्बों अधिष्ठाता देव रात्रिपति चन्द्र को ईर्ष्या होती| कांतिहीन चंन्द्र अमावस की उस रात अपनी माँ की शरण चला जाता है| धरती पर कहीं छिप जाता है| उस रचे अनन्त षड्यंत्र इन आकाशगंगाओं की निर्झर बहने से रोकना चाहते हैं|

अहो! वर्षा उपरांत की यह अमावस रात!! देखी है क्या किसी दूर जंगल पहाड़ी के माथे बैठ कर| लहराता हुआ महासागर उससे ईर्ष्या करता है| उस के झिलमिल निर्झर प्रकाश में वनकुल की बूढ़ी स्त्रियाँ सुई में धागा पिरोती हैं| प्रकाश की किरणें नहीं प्रकाश का झरना है| प्रकृति की लहलहाता हुआ आँचल है| वर्षा उपरांत अमावस की रात यह रात अपने नेत्रों से देखी है!!

अकेला चन्द्र ही तो नहीं जो अनंत आकाशगंगाओं से ईर्ष्या करता है| सृष्टि विजय का स्वप्न है, मानव|

प्रकृति का दासत्व उसका उत्सव है| कोई आम उत्सव नहीं यह| स्वर्ग के देवों को भी प्रतीक्षा रहती है| मानव अनन्त आकाश गंगाओं से टकरा जाता है| धरती पर असंख्य दीप झिलमिला उठते हैं| आकाशगंगाओं में विचरण करते असंख्य देव, देवियाँ, देवेश्वर, देवेश्वारियां, देवादिराज, देवाधिदेवी, सहायक देव-देवियाँ, उपदेव-देवियाँ, वनदेव – देवियाँ, ग्रामदेव-देवियाँ घुटनों के बल बैठ जाते हैं| आकाशगंगा के किनारों से यह असंख्य देव देवियाँ पृथ्वी पर ताका करते हैं| अहा! यह दीपोत्सव है, यह दिवाली है| हर वर्ष हर वर्षा दीप बढ़ते जाते हैं| घी – तेल के दिया-बाती अपना संसार सृजते हैं| असंख्य देव भौचक रहते हैं| असंख्य देवियाँ किलकारियां भरती हैं| कौन किसको सराहे| कौन किसकी प्रशश्ति गाये| कौन किस का गुणगान करे| कौन किस की संगीत साधे|

अब देवता विचरण नहीं करते| अब देवियों की छटा नहीं दिखती| अब देव खांसते हैं| अब देवियाँ चकित नहीं होतीं| अब आकाश ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं होता| चन्द्र अमावस में मलिन नहीं होता| चन्द्र पूर्णिमा को मैला रहता है| चन्द्र चांदनी नहीं बिखेरता| इस चांदनी का चकोर मोल नहीं लगता| इस चांदनी में मिलावट है| इस चांदनी में शीतलता नहीं है|

मिठाइयाँ अब भी बनती है| पूड़ियाँ अब भी छनती हैं| बच्चे अब भी चहकते हैं| कपड़े अब भी महकते हैं| दीवारें अब भी चमकतीं हैं| प्रेमी अब भी बहकते हैं| दीपोत्सव अब भी होता है| दिवाली अब भी मनती है| आकाश में कालिख छाई है| हवाओं में जहर पलता है| दिग्दिगंत कोलाहल है| काल का शंख अब बजता है| ये मानव का अट्टाहास है| यह बारूद धमाका है| यह बारूद पटाखा है| यह बारूद का गुलशन है| यह बारूद की खेती है| यह बारूद का मन दीवाना है|

यह बारूद का उत्सव है| यहाँ दीपक किसने जाना है? यहाँ गंगा किसने देखी हैं? चाँद किसे अब पाना है? यहाँ खुद को किसने जाना?

यहाँ दमा का दम भी घुटता है| हर नाक पर यहाँ अब कपड़ा है|

पानी की पहली लड़ाई


धौलाधार के ऊँचे पहाड़ों पर दूर एक प्राचीन मंदिर मिलता है| कहानियाँ बताती हैं कि कोई प्राचीन जनजातियों के राजाओं की लड़ाई हुई थी यहाँ| दोनों राजा मरने लगे| दोनों के एक दूसरे का दर्द समझ आया| एक दूसरे की प्रजा का दर्द समझ आया| मरते मरते समझौता हुआ| एक युद्ध स्मारक बना| यह युद्ध स्मारक अगर आज उसी रूप में होता तो शायद दुनिया का सबसे प्राचीन जल-युद्ध का स्मारक होता| जैसा होता है – स्मारक समय के साथ पूजास्थल बन गया और धीरे धीरे चार हजार साल बाद और अब से पांच हजार साल पहले मंदिर| यहाँ आज पंचमुखी शिवलिंग मंदिर है| अब यह गोरखा रेजिमेंट का अधिष्ठाता मंदिर है|

आज यह शिव मंदिर – एक कहानी और भी कहता है – भूकम्प की| धरती काँप उठी थी| मंदिर नष्ट हो गया| दूर एक चर्च बचा रहा| हिमालय के धौलाधार पहाड़ों के वीराने में लगभग बीस हजार लोग मारे गए| मंदिर दोबारा बनाया गया| उस भूकंप की चर्चा फिर कभी|

तब थार रेगिस्तान रेगिस्तान न था, नखलिस्तान भी न था, हरा भरा था| रेगिस्तान में अजयमेरु का पर्वत था| वही अजयमेरू जहाँ पुष्कर की झील है| अरावली की इन पहाड़ियों पर मौर्य काल से पहले एक बड़े राज्य के संकेत मिलते हैं जिसका स्थापत्य सिन्धु सभ्यता से मेल खाता है| यही एक भाग्सू राक्षस का राज्य था| सुनी सुनाई कहानियों के विपरीत यह राक्षस जनता का बहुत ध्यान रखता था| पर ग्लोबल वार्मिंग तब भी थी| हरा भरा अजयमेरू राज्य सूखे का सामना कर रहा था| राजा भाग्सू राक्षस ने पानी की ख़ोज की और हिमालय पर धौलाधार के पहाड़ों पर के झरने से पानी लाने का इंतजाम किया|

कथा के हिसाब से राजा भाग्सू राक्षस कमंडल में सारा पानी भरा और अपने राज्य चल दिया| स्थानीय राजा नाग डल को चिंता हुई| अगर पानी इस तरह चोरी होने लगा तो उसके राज्य में पानी का अकाल पड़ जायेगा| उसके राज्य में बर्फ़ तो बहुत थी मगर पानी?? ठण्डे हिमालय पर आप बर्फ नहीं पी सकते|

युद्ध शुरू हुआ| स्थानीय भूगोल ने स्थानीय राजा नाग डल की मदद की| राक्षस हारने लगा| उसने समझौते की गुहार लगाई| दोनों राजाओं ने पानी का मर्म, पानी की जरूरत और आपसी चिंताएं समझीं और संधिपत्र हस्ताक्षरित हुआ| यह सब आज से ९१३० साल पहले द्वापरयुग के मध्यकाल में हुआ|

इस युद्ध का स्थल आज दोनों महान राजाओं भाग्सू राक्षस और नाग दल के नाम पर भागसूनाग कहलाता है| हिमाचल में धर्मशाला के पास जो नाग डल झील है, वह इसी युद्ध या समझौते से अस्तित्व में आई| अजयमेरू तक भी पानी पहुंचा| कोई पुष्टि नहीं, मगर पुष्कर झील की याद हो आई| हो सकता है, नाग डल और पुष्कर प्राचीन बांध रहे हों, जिनके स्रोत नष्ट होते रहे और ताल रह गए|

अपनी प्रजा को प्रेम करने वाले दोनों महान राजाओं के राज्य, उनके वंश, उनकी जाति, उनके धर्म आज नहीं हैं| उस महान जल संधि का नाम भी विस्मृत ही है| इस वर्ष उस युद्ध का कारक भाग्सू नाग झरना मुझे सूखता मिला|

उनका युद्ध स्मारक आज गोरखा रायफल के अधिष्ठाता देवता के रूप में विद्यमान है| ५१२६ साल पहले राजा धर्मचंद के राज्य में यहाँ शिव मंदिर की स्थापना हुई| भागसूनाग मंदिर का नाम बिगाड़कर भागसुनाथ लिखा बोला जा रहा है| कल संभव है भाग्यसुधारनाथ भी हो जाए|

जब भी जाएँ कांगड़ा, धर्मशाला, मैक्लोडगंज, भाग्सूनाग जाएँ, मंदिर के बाहर लगे पत्थर पर लिखे इतिहास को बार बार पढ़े| उसके बाद भाग्सुनाग झरने में घटते हुए पानी को देखें| बचे खुचे ठन्डे पानी में हाथपैर डालते समय सोचें; आज इस स्थान से थोड़ा दूर शिमला में सरकार पानी नाप तौल कर दे रही है|

मेरी जानकारी में भाग्सूनाग का युद्ध जल के लिए पहला युद्ध है| आज यह मिथक है, कल इतिहास था|

कहते हैं अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा| भारत पाकिस्तान और भारत चीन पहले ही पानी की बात पर अधिक कहासुनी कर ने लगे हैं|

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