पेशेवर जीवन में होने वाले उतार चढ़ावों में पति पत्नी की कमाई और रोजगार ऊपर नीचे होते रहते हैं। अधिकतर ज्यादा कमाने वाला जाने अनजाने निरंकुश होने का प्रयास करता है या दूसरा पक्ष स्वतः ही आत्मसमर्पण मुद्रा में रहता है। पुरुषों को यह सुविधा है कि परंपरा से घर के काम नहीं करने को गौरव समझें। प्रायः कमाऊ औरतें को घर का काम भी करना होता है। पर स्त्री और पुरुष दोनों धन सत्ता आने पर एक जैसा व्यवहार करते हैं। प्रायः कम कमाने वाले का जीवन कठिन होता है चाहे “आपकी/तुम्हारी/तेरी कमाई से होता क्या है” जैसी बात सुननी पड़े। बेहद समझदार पति-पत्नियों को ऐसा करते देखकर मुझे आश्चर्य होता रहा था। हमारा किसी उच्च प्रशासनिक अधिकारी के जीवन साथी को लिपिक, प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक आदि के तौर पर नहीं देखना चाहता। वर्ग भेद में हमारा सामाजिक विश्वास दृढ है। आज वर्ग का निर्धारण आय से होता है, उसके बाद जाति अपना हस्तक्षेप रखती है।
विडंबना है कि हम विजातीय विवाह भले ही मान लें, विवर्गीय विवाह नहीं स्वीकार कर पाते। यदि वैवाहिक जीवन का एक पात्र न कमाता हो तब हम कमाऊ पात्र के वर्ग में स्वीकार कर लेते हैं। परंतु यदि दोनों कमाऊ पर अलग-अलग आय वर्ग में हों, तो समाज अपना अनावश्यक हस्तक्षेप करने से नहीं चूकता।
जब एक पति नौकरी छोड़कर अपना खुद का काम जमाने की कोशिश करता है, तब पत्नी पर घर चलाने से अधिक समाज में स्थान बचाने का अधिक दबाव रहता है। हमारा समाज पूछता है, “इस नालायक के साथ क्यों चिपकी पड़ी है”। ऐसा उसके मायके वाले ही नहीं ससुराल वाले भी कहने से नहीं चूकते। अगर पत्नी ऐसे में पति को छोड़ दे तो ससुराल तो छूट ही जाता है, मायके वाले ‘बोझ’ से ऐसे भागते हैं जैसे सर्प नेवलों से भागते हैं।
जब पत्नी की नौकरी न हो तो महानगरीय सभ्य समाज अपनी तमाम बौद्धिक उलझाव के साथ अङ्ग्रेज़ी में पूछता (जिसे समझाना कहा जाता है) “आजकल बीवी को घर बैठा कर कौन खिलाता है”। मजा यह, “गर्वित गृह निर्मात्री” भी अपनी भाभी और बहन के संदर्भ में पुरुष को ऐसा समझाने में नहीं चूकतीं। वही पत्नी यदि नौकरी कर ले तो समझदार लोग इसे बिना कहे, किस्तों वाला दहेज़ मान लेते हैं। कई सम्बन्धों में मुझे अनुभव होता है, आज शिक्षा स्त्री को आत्म निर्भर और स्वावलंबी बनाने का नहीं दहेज किस्तें काटकर उनका बोझ लड़की पर डालने की चाह अधिक है। प्रसंगवश, एक स्त्री ने जब पिता की संपत्ति में हिस्सा मांगा तो पिता ने कहा, तेरे पति को तू हर माह कमा कर दे रही है तो अब वह ‘यह और दहेज’ क्यों चाहता है। जब उस स्त्री ने कहा कि न मेरी कमाई दहेज है न शादी पर आपकी बेटी या दामाद ने दहेज मांगा तो माँ बाप भाई और बहनें अपने फूटे करम लेकर हल्ला करने लगे।
वापिस मुद्दे पर आएं। अगर कोई पत्नी कभी अपनी नौकरी छोड़ने पर विचार करे तो “शुभचिंतकों” को उस के आर्थिक स्वावलंबन से अधिक पति के आर्थिक से अधिक शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की चिंता होने लगी थी।
हमारे समाज में ऐसे तमाम उदाहरण है जहाँ माता-पिता से इतर परिवार के अन्य सदस्य प्रेमवश अपना जीवन, आर्थिक, सामाजिक और वैवाहिक स्थिति दाँव पर लगा कर परिवार के अन्य सदस्य को पढ़ाई और रोजगार में मदद करते हैं। यह सदस्य भाई, बहन, पति या पत्नी कोई भी हो सकते हैं और बहुत कम मामलों में उन्हें किसी प्रतिकार की आशा होती है। यदि कोई प्रतिकार की आशा रखता है तो प्रायः वह इतना अहसान जताता रहता है कि उसका ‘कर्ज’ अहसान जता-जता कर ही वसूल (भले ही वह खुद न माने) हो जाता है। जब भी मैं देखता हूँ, उन माँ बाप का बुढ़ापा कष्ट में रहता है, जो अहसान जता-जता कर या बुढ़ापे के सहारे की आशा में बच्चों की शिक्षा दीक्षा कराते हैं। यही बात पति या पत्नी को पढ़ाने के संदर्भ में भी सही है। यह भी होता है कि इस प्रकार के अहसान करने वाले लोग, खुद अपना बौद्धिक स्तर नहीं बढ़ाते। यह समस्या आम तौर पर पुरुषों में अधिक होती है अपने बच्चों, भाई, बहन, पत्नी या प्रेमिका के बढ़ते सामाजिक व बौद्धिक स्तर के साथ तादम्य बनाने के अभ्यस्त नहीं होते। पुरुष सत्ता समाज में स्त्रियाँ बचपन से ही कम से कम पिता व पति के बदलते सामाजिक व बौद्धिक स्तर से तादम्य बिठाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी तैयार की जाती हैं।
परंतु स्त्री के लिए इस प्रकार के तादम्य बिठाने की सीमा यह है कि दूसरा पक्ष जड़ नहीं बल्कि गतिशीलता से स्तर बदल रहा हो या अपने स्तर पर उन्हें स्वीकार कर रहा हो।
बेटी बहन या पत्नी को पढ़ा लिखा कर अफसर बनाने वाले पिता, भाई या पति अक्सर जड़ रहकर बौद्धिक स्तर पर सीढ़ियाँ चढ़ती स्त्री को सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर जड़ बनाए रखना चाहते हैं।

सच्ची बात है 👌👌🙏
पसंद करेंपसंद करें