सामाजिक माध्यमों में लिखी हुई बातों से यह लगता है कि गैर-मुस्लिम समाज में अफगानिस्तान के मुस्लिम समुदाय को लेकर बड़ी चिंता है| सब उन्हें तालिबान के जंगल राज से बचाना चाहते हैं| दो दिन पहले अमेरिका-परस्तों को लगता था तालिबान शत्रु है उन्हें कल के बम्ब धमाकों के बाद इस्लामिक स्टेट नामक संगठन शत्रु नज़र आता है| कल क्या खेल होगा पता नहीं|
विश्वराजनीति का यह खेल कितना और लम्बा चलेगा किसे पता? जब से मुग़ल साम्राज्य से काबुल छूटा, विदेशी साम्राज्यों की निगाह में खटकता रहा है| शुरू हुआ था विश्व का सबसे लम्बा कूटयुद्ध – द ग्रेट गेम – पूरे भरतखण्ड पर कब्ज़ा करने का|
अफ़ग़ानिस्तान – प्राचीन मद्र, गांधार और कम्बोज गणराज्यों का वर्तमान स्वरुप – प्राचीन आर्यावर्त के सोलह महाजनपदों में से तीन आज के अफगानिस्तान का भाग हैं|

महत्त्व इस बात का अधिक है कि यह वह मूल भाग है जिसे अंधयुगीन यूरोप अपने मानचित्रों में इण्डिया समझता रहा| सिकंदर को यहाँ आने तक यह नहीं पता था कि जिस भारत को जीतना चाहता है वह तो यहाँ मात्र प्रारम्भ होता है| सच यह है कि यूरोपीय अपने मानस के उस मूल भारत को आज तक जीत नहीं सके| शुरूआती अरबों के लिए भी यह भाग ही हिंदुस्तान थे, शेष इलाके उनके ज्ञान वृद्धि के साथ उनके मानस हिंदुस्तान के शामिल हुए|
यहाँ ध्यान रखने की बात यही कि भले ही भारत में आम धारणा है कि दिल्ली की और हुए मध्ययुगीन आक्रमण विदेशी थे, परन्तु लगभग सभी मुख्यः आक्रमण प्राचीन आर्यवर्त के भूभाग से ही हुए – यह अलग बात है कि हम आक्रमणक करने वालों के नए इस्लाम धर्म के कारण उन्हें विदेशी मान लेते हैं और उनके हिन्दू और बौद्ध पुरखों के आक्रमण को भारत की आपसी खींचतान|
यहाँ यह कहते जाना समीचीन होगा कि इस्लाम पूर्व अफ़ग़ानिस्तान (संस्कृत शब्द अश्वकान फ़ारसी रूप – अफ़ग़ान) में शासन करने वाले दो महत्वपूर्ण वंश तुर्कशाही और हिन्दूशाही क्रमशः बौद्ध और हिन्दू थे| तुर्कशाही वंशों का एक प्रमुख शासक राणा श्रीकरि बौद्ध था| क्या आपने राणा शब्द को देखा, जो बाद में जाटों और राजपूतों में प्रयोग हुआ है? काबुल के हिन्दूशाही राजा जयपाल द्वारा गज़नी के महमूद ग़जनवी का पतन होता है जो बाद में पुनः खड़ा होकर गुजरात और सिंध के इलाकों में तबाही मचाता है| एक बात और ध्यान देने की है कि जिस कालखंड में तुर्कशाही, हिन्दूशाही और तोमर उत्तर भारत के बड़े भाग के शासक थे, वह कालखंड उत्तर भारतीय इतिहास से न जाने क्यों गायब है? किताबों से ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि हर्षवर्धन के बाद सीधे चाहमना वंश का पृथिवीराज (पृथिवीराज चौहान) आ गया?
कहना न होगा कि आर्यावर्त में आपसी राजनैतिक लड़ाइयों ने हमारी बहुत क्षति की है| राज्य बढ़ाने को भारतीय क्षत्रियों का प्रमुख कर्तव्य तो माना गया पर दुर्भाग्य से हम चीन और यूरोप में राज्य बढ़ाने की जगह खुद आपस में लड़ते रहे| परन्तु इन आपसी राजनैतिक लड़ाइयों और यौद्धिक क्रूरताओं को धार्मिक मतभेदों का जामा पहना कर साम्राज्यवादियों ने इसके स्वरुप को और बिगाड़ा| जिहाद और जज़िया संबंधी विवरण इस साम्राज्यवादी षणयंत्र में मसाले का काम करते रहे|
धार्मिक कटुता की यह सब धारणाएं बढ़ाचढ़ाकर फ़ैलाने के पीछे साम्राज्यवाद और द ग्रेट गेम के षङयन्त्र भारत उपमहाद्वीप के जन मानस से बचाकर रखने की चाल भी रही है| द ग्रेट गेम के शुरूआती खिलाड़ी इंग्लैंड डच फ्रेंच जर्मन और रूस के राजा और राजपरिवार आपसी लड़ाई झगड़ों के बाबजूद रिश्तेदार थे और जानते थे कि द ग्रेट गेम को जीतने के बाद उन्हे आपस में लड़ने की जरूरत नहीं रहेगी| उनके इस द ग्रेट गेम को औद्योगीकरण और बदलती अर्थव्यवस्था ने सरल भी बनाया है तो उत्तर – साम्राज्यवाद ने नई चुनौती भी खड़ी कीं हैं|
आज द ग्रेट गेम को हमारे धर्मों से कोई वास्ता नहीं, न धार्मिक लड़ाइयों से, उन्हें अपना राजनैतिक और आर्थिक साम्राज्य खड़ा करना है| यही कारण है कि द ग्रेट गेम के नए उभरे खिलाडी अमेरिका, रूस और चीन सभी तालिबान के लिए रास्ता साफ करने में लगे हैं| हम फ़िलहाल अपनी धार्मिक और उपधार्मिक कटुताओं के कारण आपस में अलग खड़े हैं और अमरीका के प्यादे हिन्दुकुश पर शासक हैं|
इन तथ्यों को जानने का भी आज कोई मतलब नहीं, जब तक कि भारतीय उममहाद्वीप की आर्थिक और राजनैतिक शक्ति नहीं लौटती| पर इसको लौटने के लिए जरूरी है, हम मिलकर आगे बढ़ें|