उपशीर्षक – करोना खड़ा है द्वारे पर
रोटी सूखी चार पड़ी थी, जो जा चुके थे उनके हाथों में| दुनिया की सबसे डरावनी तस्वीर थी वो, देख दिल में न हौल उठता था न हूक| जिस भूखी मौत – भूखे पेट वाली मौत से डरकर पैदल भागे थे, वो रात मालगाड़ी बनकर आई थी|
उस रात जब मौत हर घर के दरवाजे पर अपने डर को बैठा गई थी – जब तुम उस डर को थाल बजाकर भगा रहे, दिए दिखाकर जला रहे थे – मौत हर उस घर घूमकर गई थी जिस घर न थाल था न दिए| ताली बजाई, मगर मौत का डर हवा में तैरता रहा| जो मौत बड़े बड़े गाल बजने से न डरी, उसे मजदूर की मरियल ताली क्या डराती|
उस सपने में मौत आई थी – अनजान सड़क के किनारे भूखें पेट दम तोड़ते, गों गों करता नई उम्र का लड़का, बेसुध रहा| न रोटी लेने जाने की ताकत थी – न किसी में रोटी देने आने की हिम्मत| बन्दूकिया से बुखार नापने वाले भी पास गुजरने में हिचकते थे| उस माँ को देखा जिसे करोना छू गया था – बेटों ने कहा – संस्कार सरकार कर दे – दूध का श्राद्ध हम कर देंगे| तुम मरना चाहते हो ऐसी मौत?
उस रात जागते सोते करवटें बदलती उस घर की याद आई जहाँ की दीवार आज भी माँ की तरह दुलारती थी| गाँव नाते का दुश्मन भी होली पर हाल पूछ जाता था| यहाँ न रोजगार, न रोटी, न ठौर, न ठिकाना| खैराती पर ही जिन्दगी गुजारनी थी न साहब मजूरी क्यों करते? भीख न माँगने के हजार उपदेश देने वाले, खैराती खाने का रास्ता बताते हो?
घर, दौलत, कार, प्यार, और उधार कमाने वाले क्या जानो, दो रोटी और इज्ज़त कमाना क्या है? जो ख़ुशी ख़ुशी जड़ से कट चुके उन्हें गाँव के बरगद का क्या मान? जिन्होंने अस्पताल की गोद में मरना सीखने ने जिन्दगी गुजारी है उनसे क्या पूछें, घर की गोद में मरने की कशिश क्या होती है?
तुम पूछो ट्रेक पर क्यों सोये; शौक था साहब! ये अय्याशी तुम क्या जानो?
जरा दो दिन चालीस मील तो चलो खाली पेट, फिर पूछेंगे, तुम्हारे कंधे पर टंगे पिठ्ठू में शामियाना सजाने का सामान क्या है? तुम औकात तो गाली खाने की नहीं रखते|
मौत उस की भी है, इस की भी, तेरी भी और मेरी भी| करोना खड़ा है द्वारे पर तेरे भी और मेरे भी|