विश्व-बंदी १ मई


उपशीर्षक – करोना काल में पूंजीपतिवाद का दबाब

मेरे मन में कभी भी इनफ़ोसिस के किसी भी संस्थापक सदस्य के लिए कोई विशेष सम्मान नहीं रहा| यह लोग पूँजीपतिवाद (न कि पूंजीवाद) का उचित उदहारण मालूम देते हैं| जिस देश में बेरोजगारी व्याप्त हो और कर्मचारियों पर पहले से ही १२ घंटे काम करने का पूंजीपतिवादी दबाब हो वहां यह महोदय और अधिक काम करने का प्रवचन दे रहे हैं|

वास्तव में मैं पिछले कई दिनों में सरकार का इस बात के लिए ही धन्यवाद कर रहा हूँ कि सरकार पूंजीपतिवाद के दबाब में आकर लॉक डाउन को न लागू करने या उठाने पर आमादा नहीं हुई| प्रकृति ने पूंजीपतिवादी समझी जाने वाली सरकार से लोकहितकारी राष्ट्र का पालन करवाने ने कुछ हद तक सफलता प्राप्त की है| करोना काल की सबसे बड़ी सीख अर्थव्यवस्था को सकल उत्पाद से नहीं बल्कि सकल प्रसन्नता से नापने में है|

शाम तक इस आशय की ख़बरें आ गई कि लॉकडाउन को दो हफ्ते के लिए बढ़ाते हुए इस में जबरदस्त परिवर्तन किए गए हैं| सरकारी अधिसूचनाओं को पढ़ना इतना सरल नहीं होता|  तमाम दबाब के बीच सरकार लोकहित, सकल प्रसन्नता, सकल स्वास्थ्य, सकल उत्पाद जैसी अवधारणाओं में उचित समन्वय बैठाने का देर दुरुस्त प्रयास कर रही है|

देश को पहले से ही लाल, संतरी, हरे मुख्य ज़ोन में बाँट दिया गया है| इन के अतिरिक्त राज्य सरकारों के आधीन कन्टेनमेंट ज़ोन भी है, जो सबसे गंभीर है| अब कुल मिला कर पूर्ण लॉक डाउन केवल कन्टेनमेंट ज़ोन में ही रह जाएगा| देश का हर बड़ा शहर नक्शे पर लाल रंग से रंगा हुआ दिखता है| अब कम महत्त्व के समझे जाने वाले पिछड़े इलाके हरे रंग में रंगते हुए ग्रामीण भारत के साथ देश की अर्थव्यवस्था संभालेंगे| विकास इस समय उत्तर नहीं प्रश्न है|

करोना काल कतई सरल नहीं| कोई आश्चर्य नहीं कि लॉक डाउन के टोन डाउन होते समय श्रेय लेने के लिए श्रेय-सुखी प्रधानमंत्री जनता के सामने नहीं आ रहे|

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