विश्व-बंदी २८ मार्च


उपशीर्षक – प्रसन्न प्रकृति के दुःख 

कौन कहता है कि यह दुःखभरा समय है? प्रकृति प्रसन्न है| दिल्ली के इतिहास में मार्च में कभी इतनी बारिश दर्ज नहीं दर्ज़ की गई| बसंत और वर्षा की प्रणय लीला चल रही है| यति और रति दोनों के लिए उचित समय है| इन्हीं फुर्सत के रात-दिन ढूंढने के लिए पिछली सात पुश्तें परेशां थीं|

पर्यावरण प्रदूषण का स्तर विनाशकारी चार सौ से घट कर चालीस पर आ चुका है| मेरे फैफड़े पिछले तीस साल ने पहली बार इतना प्रसन्न हैं| बार बार बदलते मौसम के बाद भी शायद ही कोई प्रदूषण से खांस रहा है|

परन्तु सावधानी हटने का ख़तरा हर घर के दरवाज़े पर खड़ा है| आजकल सब्ज़ी तरकारी भी घर के दरवाज़े पर ही शुद्ध की जा रही है – गंगाजल का स्थान एंटीसेप्टिक सेनिटाइजर ने ले लिया है| कुछ घरों में दरवाजे पर नहाने का भी इंतजाम है – जैसे शव-यात्रा से लौटने के समय होता है|

लोग भूले-बिसरों को फ़ोन कर कर हालचाल पूछ रहे हैं| चिंता नहीं भी है, कोई मलाल नहीं रखना चाहता|

बीमारी का आंकड़ा बढ़ रहा हैं| सरकार भी तो धर्मग्रन्थ के सहारे आ टिकी है| सरकारी दूरदर्शन “रामायण” “महाभारत” से सहारे जनता को घर में रोकना चाहती है| क्या पता गीता-पाठ (क़ुरान और बाइबिल) भी शुरू हो जाए? सब जिन्दा सलीब पर लटके हैं| देश भर के भूखे प्यासे गरीब अपने घरों के बड़े बूढों की चिंता में पैदल ही घर की दिशा में बढ़ रहे हैं| आजादी के बाद, कश्मीर के बाहर यह सबसे दुःख भरा पलायन है|

धृतराष्ट्र ने राज्य सरकारों से कहा है कि पलायन करने वालों को भोजन – पानी देकर रोका जाय| मगर उस बूढ़ी माँ – पिता का क्या जो आसराहीन गाँव में बैठे हैं| रोकेंगे कहाँ, कैम्पों में?? अगर अनहोनी हुई तो यह हिटलर के कैंप साबित होंगे|

सामान से भरे ट्रकों को लिए लाखों ट्रकचालक भूखें प्यासे सड़कों पर पड़े हैं? क्या मगर अमीरों और मध्यवर्ग को अपने गाल फुर्सत नहीं| पहले सत्ता नाकारा और  निकम्मी हुआ करती थी| अब जनता भी ऐसी ही है – सत्तर साल में यथा राजा, तथा प्रजा का चक्र पूरा हुआ|

शाम देश के सबसे बड़े टैक्सी ऑपरेटर ओला का सन्देश मिला, उनके ड्राइवर बिना काम के घर में बैठे हैं, सिर पर कार लोन भी है| उनके खाने का इंतजाम करने के लिए दान का अनुरोध किया जा रहा है|

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