तेरी प्यास मेरी प्यास


तेरी प्यास तू जाने, जब मैं प्यास से मरूँगा अपना पानी ढूँढ लूँगा| जाने अनजाने हम सभ्य शहरी यही कहते आए हैं अपने जंगली जाहिल और गंवारों से| अब…

अब पानी जा रहा है| बहुत लूट लिया हमने जंगली जाहिल और गंवारों का पानी| खेती किसानी और सिचाई के नाम पर बने बांध शहरों को पानी देते रहे| कुछ पैसे का बूता था तो कुछ प्रचार तंत्र पर मजबूत पकड़| आज भी हम उन्हें पानी के लिए दोष दे देते हैं| मगर कब तक…

जिन लोगों के लालच ने गाँवों और जंगलों के ताल तालाब तलैया लूट लिए थे वो कब से शहरों में आ बसे| उनके साथ उनका पाप भी| हमेशा पानी का घड़ा नहीं भरा करता पाप का घड़ा भी भरता है|

जंगली जाहिल और गंवारों के पास पानी दस बीस किलोमीटर में पानी तो था जो उनकी औरतें ढो ढो कर ले आतीं थीं| हम और हमारी औरतें… बाजार से खरीदोगे… हा हा हा… कितनी कीमत दे पाओगे?

जो साफ पानी कभी प्रकृति मुफ़्त देती थी आज बीस रुपये बोतल में खरीदते हो… कल… परसों… आज भी एक साल का हमारा पीने का पानी बाजार में पंद्रह हजार साल का पड़ता है| अब परिवार का सोचो…

दिल्ली शहर… इस किनारे से उस किनारे तक कंक्रीट से मड़ा हुआ… यहाँ सड़क किनारे की हरियाली को खोदो तो  नीचे पुरानी सड़क निकल आती है… कुछ तो प्रकृति प्रदत्त भी छोड़ देते| मगर अब वर्षा जल संचयन की भी मशीन लगाओ…|

वर्षा… सुनकर तुम्हें कीचड़ और सड़क पर भरा पानी याद आता है| पुराण में एक कथा आती है.. अमृत जब दैत्यों के गले में उतरा तो तामसिक हो गया… हम वही दैत्य हैं… हमारे नगर महानगर दैत्य का वह गला हैं| जहाँ वर्षा का जल बिना बाढ़ के भी प्रलय बनता है, बीमारी लाता है|

जब एक करोड़ पढ़े लिखे सभ्य लोग पानी के लिए दुकानों पर चीख रहे होंगे… गुहार लगा रहे होंगे… और पानी की कंपनी पानी लाने की कीमत बढ़ा रही होगी… तब एक दिन पैसे ख़त्म होंगे और हमें मरना होगा|

हमें मरना होगा एक साथ प्यासा, तड़पता हुआ, बिना अर्पण के, बिना तर्पण के| मरते हुए सोचना होगा… उन जंगली जाहिल गंवारों को तर्पण तो मिला था… हमारे पास तो मरने वक़्त आंसू भी नहीं होंगे तर्पण के लिए|

पानी रखिये

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