“आजकल क्या कर रहे हो?” जब भी रिश्तेदार यह सवाल पूछते हैं तो भारत का हर जवान जानता है कि वांछित उत्तर है – “बेरोजगार हूँ” और देय उत्तर है – “तैयारी कर रहा हूँ”| वास्तव में देश में कोई बेरोजगार नहीं है – नालायक, अच्छा निकल गया, प्रतियोगी, प्रतिभागी, हतोत्साहित, कुछ तो करना ही है, कुछ तो कर ही रहे हैं, और आत्महत्यारे|
हमारी मानसिकता ही ऐसे बनी हुई है – कोई शिक्षक नहीं पढ़ता, खुद पढ़ना होता है|कोई नौकरी नहीं देता – खुद ढूंढनी पड़ती है| कोई रोजगार नहीं देगा, खुद अपने लिए रोजगार पैदा करो|
रोजगार की अर्थशास्त्रीय परिभाषा से भी हमें कुछ नहीं करना| हमारे यहाँ गड्ढा खोदता लंगड़ा लूला और नाला साफ करता हुआ स्नातक अभियंता रोजगार में ही माने जाते हैं| जबकि यह साफ़ है कि पहला उदहारण सामाजिक शोषण है और दूसरा बेरोजगारी या छद्म रोजगार| बेरोजगारी की सामाजिक स्वीकृति पढ़ना शुरू करते ही शुरू हो जाती है|
शिक्षा का बुरा हाल, शिक्षक और विद्यालयों से अधिक हमारे अभिभावकों के कारण है| दस अभिभावक विद्यालय या शिक्षक से जाकर नहीं भिड़ते की पढ़ाते क्यों नहीं|स्कूल से तो हमें हमें केवल पढ़े होने का ठप्पा चाहिए| विद्यलय में हम बच्चे के लिए वातानुकूलन, आदि सुविधाएँ देखते हैं| पढाई के स्तर जानने के लिए उत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या /प्रतिशत और स्नातक होने पर पहली नौकरी देखते हैं| हम निजी विद्यालय जाना पसंद करते हैं मगर यह नहीं देखते कि उनके पास कैसा पुस्तकालय है, कैसी प्रयोगशाला है| यह निजी विद्यालय भी विद्यार्थियों को वाणिज्य और कला आदि विषय लेने ले लिए प्रेरित करते हैं| उदहारण के लिए निजी विद्यालयों में विज्ञान विषयों का घटता स्तर देख सकते हैं| यही बात निजी महाविद्यालयों और निजी विश्वविद्यालयों के बारे में है| उसके बाद भी हम निजी कोचिंग में रटने का अभ्यास और महत्वपूर्ण प्रश्नों का तोतारटंत करते हैं| मगर जिन समाचारतन्त्र में बिहार के प्रथम आये छात्रों का ज्ञान टटोला जाता है, वह निजी क्षेत्र के विद्यालयों पर तफ्सीश करने की हिम्मत भी नहीं करते| निजी विद्यालयों में शिक्षक अभिभावक बैठकों में अभिभावक मात्र उपदेश सुनने जाता है या अधिक हिम्मत करने पर उसे मात्र आश्वासन मिलता है| मगर सरकारी शिक्षकों पर लानत भेजने वाले हम निजी विद्यालय के अधपढ़ शिक्षक से प्रश्न करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते|
यहाँ से ही बेरोजगारी की स्वीकृति शुरू हो जाती है| हमारा बच्चा नालायक है, क्या पढ़ना है यह तय नहीं कर पाता और हमें इसे पैसा फैंक और दो लट्ठ मार कर किसी भी लायक बनाना है|
यहाँ से प्रतियोगिता और साक्षात्कार की तैयारी का अंतहीन सिलसिला शुरू होता है| सरकारी नौकरियां अस्वीकार्य तर्कों के साथ कम की जा रहीं है, मगर हम राजकोषीय घाटे के घटिया बहाने से बहला दिए गए हैं| क्या सरकार बिना संसाधन – मानव संसाधन के काम कर पायेगी| लगभग हर सरकारी विभाग कर्मचारियों की कमी का शिकार है| अधिकतर विभाग अनुबंध यानि गुलामीपत्र यानि संविदा पर अप्रशिक्षित कर्मचारी भर्ती कर रहे हैं| सरकार को अपने सचिव तक बाहर से अनुबंध पर लाने पड़ रहे हैं| मगर अगर सरकारी नौकरियां कम नहीं होंगी तो निजी क्षेत्र के सस्ती सेवा में कौन जाएगा| ध्यान दें कि जब सरकारी नौकरियां थीं तब लोग दोगुने वेतन में भी निजी क्षेत्र में नौकरी करने से कतराते थे| जब सरकारी नौकरियां नहीं है तो आरक्षण तो खैर बेमानी नाटकबाजी ही है|आरक्षण के समर्थन में मूर्ख और विरोध में महामूर्ख ही बात कर सकते हैं|
इस सब के बाद हमारे पास तर्क होता है कि क्या नौकरियां पेड़ पर उग रहीं हैं? हमारे छात्र पढाई पूरी करने के बाद या तो घर पर बैठ कर तैयारी का प्रपंच करते हैं या फिर अपनी लिखित योग्यता से कमतर कोई भी रोजगार पकड़ लेते हैं| किसी शिकायत का न होना यह स्पष्ट करता है कि उन्हें पता है कि उनके कागज़ की असली कीमत क्या है|
कुछ समय पहले मैं एक कंपनी के लिए साक्षात्कार ले रहा था| मानव संसाधन विभाग की तरफ से सीधा संकेत था कि सरकारी डिप्लोमा होल्डर को निजी विद्यालय के स्नातक अभियंता से अधिक तरजीह देनी है| उनके तर्क साधारण थे| लाटसाहब ने पैसा फैंक कर कागज खरीदा है| यह बात हर अभिभावक और प्रतिभागी जानता है| किसी स्नातक ने अपने से कम पढ़े व्यक्ति के आधीन काम करने से मना नहीं किया|वह अनुभव और वास्तविक ज्ञान को समझते थे|
पिछले तीस वर्ष में सरकारें जनता को यह समझा पाने में कामयाब रहीं है कि शिक्षा और रोजगार सरकारी “खैरात” नहीं हैं, यह आपका निजी प्रश्न है|हमारे सरकारों के पास कोई नक्शा नहीं कि यह बता सकें कि अगले तीन पांच साल में कौन से और कितने रोजगार मिलने की सम्भावना हो सकती है| क्या पढाई की जाये, क्या नहीं? दूसरा इस जनसंख्या बहुल देश में भी हमने अपने कर्मचारियों को बारह घंटे काम करने की प्रेरणा दी है, जबकि अगर सब लोग केवल आठ घंटे काम करें तो डेढ़ गुना लोगों को रोजगार मिल जाये| संविदा आदि के चलते कर्मचारियों की गुणवत्ता घटी है| यह सब छद्म रोजगार और आधुनिक गुलामी या बंधुआ मजदूरी है|
देश में कश्मीरी पंडितों के पलायन से भी अधिक भयाभय तरीके से रोजगार सम्बन्धी पलायन हो रहा है| किसी भी योग्य युवा को अपने घर के आसपास उचित रोजगार अवसर नहीं मिल रहे| दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगर पलायन से भरे पड़े हैं| सब जानते हैं कि असंतुलित विकास इस रोजगारी पलायन का कारण है| मगर न हम विकास पर प्रश्न उठा रहे हैं, न बेरोजगारी पर| विकास के नाम पर दो चार चिकनी सड़के हमारा दिल खुश कर देतीं हैं| हम पलायन कर रहे हैं, विस्थापित हो रहे हैं, हम पढ़ लिख कर अग्रीमेंट मजदूर बन रहे हैं जैसे कभी अनपढ़ गिरमिटिया मजदूर बनते थे|(अग्रीमेंट और गिरमिट एक ही अंग्रेजी शब्द के रूप हैं)
कोई प्रश्न नहीं है| प्रश्न तब ही नहीं था जब सत्तर साल पहले आरक्षण घोषित करते हुए सरकार ने ऐलान किया था कि सबको रोजगार नहीं हो पायेगा| प्रश्न तब भी नहीं है जब बेरोजगारी की सबसे भयाभय स्तिथि की सरकारी सूचना आती है| प्रश्न तब भी नहीं जब बेरोजगारी की बढ़ती संख्या देखकर सरकार पकौड़े तलने की सलाह देने लगती है
आखिर हतोत्साहित, शिकायतहीन और सस्ता मजदूर किस मालिक को अच्छा नहीं लगता – मालिक सरकार हो या बनिया|
कृपया, इस पोस्ट पर सकारात्मक आलोचना करें – नकारात्मक आलोचना हमें सुधरने पर विवश कर सकती है|