हे राम!
याद होगा तुम्हें
छू जाना उस पत्थर का, पथराई अहिल्या का,
मुझे भी याद है – तुम्हारा अधूरा काम||
कभी कभी मौका मिलने पर,
धिक्कारते तो होगे तुम, अपनी अंतरात्मा को||
सहज साहस न हुआ तुम्हें,
लतिया देते इंद्र को, गौतम को,
गरिया देते कुत्सित समाज को,
उदहारण न बन सके तुम||
हे राम!!
तीन अंगुलियाँ मेरी ओर उठीं हैं,
और इंगिता तुम्हारी ओर||