बापू की दिल्ली बिल्ली


गबरू नौजवान अपनी शाहना अकड़-धकड़ के साथ चला आ रहा है| उसकी चाल में गजब की मस्ती है मगर चहरे पर लगता है कि बदलते वक़्त ने थोड़ी पस्ती ला दी है| दूर सामने मैदान में दो तीन बूढ़े किसी बात पर संजीदगी से गुफ्तगू कर रहे है| बाद पेचीदा लगती है; नौजवान ने मन ही मन सोचा| वो दूर से ही मामला समझना चाहता है मगर काला कुहासा कुछ देखने नहीं देता| गौर से देखने पर महसूस होता है, बूढ़े मिलकर खों खों खांस रहे है| खांसना भी दिल्ली शहर में गुफ्तगू करने के सलीकों में शुमार होने लगा है|

“क्या इसी कालिख भरे मुल्क के लिए जिए मरे थे?” नौजवान बूढों की तरफ़ बढ़ते हुए सर झटकता है|

उसे अपनी तरफ आता देख बूढ़े शांत होने लगे| पीढ़ियों में सोच का फ़र्क यूँहीं तो नहीं जाता|

“क्या बापू! आज क्या कोई हड़ताल है?” नौजवान ने कुछ परेशानी और कुछ हमदर्दी से पूछा|

मजबूत कद काठी वाला बूढ़ा खों खों कर हंसने लगा|

“अब न वोट क्लब है न जंतर मंतर। हड़ताल करने पर पड़ते हैं हंटर।“ जैकिट वाले बूढ़े ने उदास लहजे में कहा|

“मामला क्या है, कुछ नहीं तो बापू अपनी समाधि पर ही जाकर बैठ जाइएगा|” नौजवान ने मजाकिया मगर इज्जतदार लहजे में कहा|

“आप क्यों नहीं कोई धमाका कर लेते, बरखुरदार?” मजबूत कद काठी वाला बूढ़ा बोला|

“ब्राउन ब्रिटिश से क्या लड़ें? साँस लेना दूभर हो चुका है| अब तो फ़िजाओं में स्वदेशी गर्द और गंदगी है|” नौजवान मायूस लहज़े से कहने लगा| दिल के दर्द से कहिये कि फैफड़े के दर्द से, नौजवान के गले से खों खों के दबी आवाज़ धमाके होने लगे| तीनों बूढों की खाँसी और बढ़ गई|

बापू धरने पर बैठने की जगह ढूंढ रहे थे कि बिना साँस फुलाएं बैठ सके। जगह न मिली दिल्ली में| बिल्ली बने और मास्क पहन लिया ज़नाब।

Delhi pollution (c) vikram nayak

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