खिचड़ी भोग भी अपने आप में एक मुहावरा है| हर किसी को पकी पकाई खीर खिचड़ी चाहिए| कोई पकाना नहीं चाहता| यह मुहावरा शायद उस जमाने में बना होगा जब खिचड़ी देग दम करके बनती होगी| आजकल तो प्रेशर कुकर का जमाना है मगर वक्त है कि आज भी कम पड़ता है| हमारे कुछ मित्र तो उस दिन का इंतजार कर रहे है जिस दिन कोई पकी पकी खिचड़ी फेसबुक या व्हाट्सएप पर भेज दे और वो उसका लुफ्त उठा लें|
हमारे बहुत से गीताप्रेमी मित्र बनिए की दुकान पर टंगा गीतासार पढ़कर बड़े हुए| आजकल उसकी फ़ोटो मोबाइल में देखकर वेद-वेदांग के ज्ञाता हुए जाते हैं| हमारे एक मित्र मोदी-मार्ग पर चलने का उपदेश रोज भेज देते थे| आजकल शांत हैं, उन्होंने मोदी-मार्ग घर के दामाद जी को भी भेजा था और उन्होंने इसे ग्रहण कर लिया| एक अन्य मित्र माताजी के स्नेह-दोष के कारण भारतीय सेना की सेवा न कर पाए आजकल रोज दो चार पाकिस्तानी चटका देते हैं|
उधर, कामरेड रोज इतनी क्रांति करते हैं कि सड़क पर उतरने और अपने कैडर से बात करने का वक़्त नहीं निकलता| उनकी अभिव्यक्ति की आजादी भी आजकल ट्विटर-फेसबुक वाले भैया के हाथ गिरवी पड़ी है, गाहे – बगाहे लुपलुपाती रहती है|
एक मित्र ने सावरकर के नाम पर गौहत्या रोकने की मांग कर रहे थे| मैंने बोला कि सावरकर गाय को पशु मानते थे, माता नहीं| दो चार छंद सुना कर बोले; गौहत्या विरोध का आन्दोलन किसने शुरू किया| अठारवीं शताब्दी के स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम लेने पर बोले आज से उनकी भक्ति| उनके हाथ सत्यार्थ प्रकाश थमा कर मुड़ा ही था कि उनकी जिव्हा पर पुनः सरस्वती विराजमान हो गई| एक दिन दोबारा मिलने अपर पूछने लगे, आप भगतसिंह को क्या मानते हैं| जानता था, कहाँ लपेटेंगे; जबाब दिया नास्तिक| उनका दिमाग भन्ना गया| “मैं नास्तिक क्यों हूँ” पकड़ाकर विदा किया| आजकल कन्नी काटने लगे हैं|
आजकल मित्र लोग मुझसे कानूनी बातों पर ही बात करते हैं| मगर नुक्ता निकल ही आता है| खैर, उसकी बातें फिर कभी| मुझे आज खाने में खिचड़ी बनानी है|