इसे रॉक गार्डन क्यों कहते हैं? यह मेरा पहला सवाल था| इसमें बहुत कुछ हैं| चट्टानें भीं हैं और जल प्रपात भी मगर इसमें बहुलता से हैं मूर्तियाँ| मूर्तियाँ भी किसी चट्टान से नहीं बनीं हैं वरन अलग अलग चीजों से उन्हें बनाया गया है| शायद प्रारंभिक कल्पना में इसे पत्थरों की दुनियाँ बसाने की रही होगी या फिर इस अवैध (जी हाँ, वैध घोषित किये जाने तक अवैध) दुनियाँ को पत्थरों के सहारे छिपा लेने के कारण इसे रॉक गार्डन कहा गया हो|
जाड़ों की जिस शाम हम इसे देखने पहुंचे तो आखिरी कुछ मिनिट थे टिकेट मिलने के, हम आखिरी पर्यटक थे| शाम का धुंधलका एक तिलिस्म रच रहा था| लगता था किसी पुराने जंगली राज्य का भुतहा चित्रण किया गया हो| इधर किसी परी कथा के जैसे पतले रास्ते, बहता, टपकता पानी तो उधर चीनी मिट्टी के सेनिकों की फ़ौज| इधर चूड़ियों के जानवर तो उधर अनगढ़ प्राणी| अगर पता न होता तो दर के मारे शायद सांस छोड़ देते| बेमकसद सीढियां, टेड़ी मेढ़ी दीवारें, संकरे रास्ते, सूखे पेड़ों का आंगन| चीनी मिट्टी और कांच आदि की इस दुनियाँ में रोशनी का आना, जाना टकराना सब अजब नजारा पेश करता था| इस तिलिस्मी दुनियाँ में एक जीवन्तता थी| थोड़ी देर बाद जब हमें इस सब में आनंद और सकून मिलने लगा तो ध्यान आया की जाना भी है| लगभग हमारे साथ ही चल रहा एक जोड़ा इस तिलिस्मी माहौल में कुछ रोमानी साथ ढूंढ़ता लगता तो हम आगे बढ़ने लगते मगर फिर वो शायद अकेले रह जाने डर से जल्दी जल्दी हमारे लगभग बराबर आ जाते|
हमने तय किया कि दिन में इसे दोबारा देखा जाए| अगले दिन दोपहर बाद आने का निर्णय लिया|
जी हाँ! दुनिया बदल गई थी| रौशनी, भीड़, और शोर ने कल रात का तिलिस्म तोड़ दिया था| आज यह जंगल का भुतहा किला नहीं वरन पुराने गाँव का भीड़ भरा मेला था जिसमें जमीन से कटे शहरी हवा में उड़ते उड़ते देख रहे थे| बहुत से लोगों को कबाड़ की यह बकवास समझ नहीं आती थी| अनगढ़ मूर्तियाँ उनके लिए कला की असफलता का नमूना थीं और चूड़ियों के टुकड़े गवईं| बहुत से लोग इसलिए यहाँ थे की यह जगह देखना चड़ीगढ़ देखने का पहला सबूत था, बहुत से लोगों ने एक दो सेल्फी के लिए बहुत महंगी टिकेट ली थी| यह धोखा भी गजब था| अगर आपके पास कला को समझने वाला दिमाग न हो और आप प्रसिद्धि के फेर में आ जाएँ तो यही होता है| नव धनपतियों और सॉफ्टवेयर मजदूरों की भीड़ अपने को दुनियाँ का सबसे अक्लमंद होने का जो यूटोपिया बना बैठी है उसे इस तरह की जगह पर निराशा होती ही है|
दिन के प्रकाश में दुनियाँ बदल गई थी| आज तिलिस्म नहीं था और मूर्तियाँ भीड़ के बीच शांत और थकीं हुई लगतीं थी| आप काम की बारीकी अच्छे से देख सकते थे| कबाड़ का इससे बढ़िया क्या सदुपयोग होगा, आप सोचते हैं|
अगर आपको कला देखनी हैं तो जाड़ों के शाम आयें| यहाँ का हर जर्रा बोलता है और बात करता हैं| आप इस से किसी परीकथा को समझ सकते हैं या किसी प्राचीन युद्ध का जायजा ले सकते हैं तो किसी भुतहा गाँव का भी| कलाकार की अपनी कला आपके लिए एक बड़ा वितान प्रस्तुत करती है, जिस से आप अपनी कल्पना लिख सकते हैं| आपके पास तकनीकि बारीकी को समझने का दिमाग है तो दिन की रौशनी बेहतर हैं| दिन में यह तिलिस्म सिर्फ कला बन जाता है| इसके रचयिता ने इसे रात में ही तो रचा होगा| आप भी रात में विचरें| मगर समय आपका साथ नहीं देता| इसके बंद होने का अपना सरकारी समय है|

देर शाम रॉक गार्डन
चित्र: ऐश्वर्य मोहन गहराना

दिन में रॉक गार्डन
चित्र: ऐश्वर्य मोहन गहराना