आज सुबह सुबह मुझे नया फितूर चढ़ा; भारत में आम आदमी कौन है? इतना तो तय है कि आम आदमी की इस खास जमात से संतरी से मंत्री तक सब जुड़े रहना चाहते है| सरकारों की तमाम नीतियां, कंपनियों के तमाम विज्ञापन, टेलीविज़न के तमाम कार्यक्रम और क्रिकेट के तमाम खेल सब आम आदमी के लिए बनाये जाते हैं| मगर, आम आदमी की परिभाषा तो दूर अवधारणा भी स्पष्ट नहीं हो रही है|
आम आदमी की अवधारणा प्रायः उस नकारात्मकता के निर्धारित होती है जिसमें कौन आम आदमी नहीं है, यह परिभाषित होता है| अपवाद के रूप में वरिष्ठ अधिकारी और बड़े व्यवसायी, ही अपने समूह को आम आदमी के दायरे से बाहर रखने का प्रयास करते हैं|
प्रायः लोग मध्यम वर्ग को आम आदमी के रूप में देखते है| जिसे सुविधा के लिए मैं स्वीकार कर लेता हूँ| मगर न तो मध्यम वर्ग परिभाषित है और न ही मध्यम वर्ग के सभी लोग आम आदमी माने जाते हैं| हर व्यक्ति के लिए आम आदमी शब्द का अर्थ अलग अलग होता है| मीडिया भी इसमें भूमिका निभाता है, पत्रकार भले ही आम आदमी को कुछ भी परिभाषित करें मगर व्यक्ति विशेष का पूर्वाग्रह अपनी भूमिका निभाता है| प्रायः लेखक और वक्ता उस समूह के लिए इस शब्द का प्रयोग करते हैं जिस में वो खुद आते हैं| सोशल मीडिया में आम आदमी को लेकर अवधारणा में स्पष्ट विभेद देखा जा सकता है|
आम आदमी की अवधारणा में व्यक्ति का अपना आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, जातिगत, और स्थानीय समुदाय प्रायः उसके लिए आम आदमी शब्द की रूपरेखा राय करता है|
दिल्ली और बिहार के चुनावों में, मनरेगा के अनुपालन में, और धर्मनिरपेक्षता, आरक्षण, शाकाहारी भोजन आदि के बारे में हुईं हालिया बहसों में आम आदमी की इसी संकुचित अवधारणा के कारण अधिकांश नीति निर्माताओं ने हाल में भिन्न प्रकार के निर्णय लिए हैं| देश में बहुसंख्य को आम आदमी की अवधारणा से बाहर कर देने से नीति निर्धारण संबंधी दिक्कते पेश आ रहीं हैं|
मीडिया और सामाजिक मीडिया में हो – हल्ला करने वाली भीड़ को आम आदमी नहीं माना जा सकता|
आम आदमी निश्चित रूप से वह व्यक्ति है जिसका शासन – प्रशासन में हित हो मगर मतदान से अधिक मत न हो, वह आम आदमी है|