हिन्दू धर्म का बिगड़ता स्वरुप, जिसे पहले सनातन धर्म और आजकल हिंदुत्व कहा जा रहा है; कितबिया सम्प्रदायों से बुरी तरह से प्रभावित है| विश्व में तीन कितबिया संप्रदाय है और तीन मूल रूप से एक ही परंपरा उत्पत्ति है: बाइबल ओल्ड टेस्टामेंट वाला यहूदी, बाइबल न्यू टेस्टामेंट वाला ईसाई और क़ुरान वाला मुस्लिम| जब हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ हुआ तब हिन्दू धर्म “नव विद्वानों” को “प्रेरणा मिली” कि हमारी भी एक ईश्वरीय पुस्तक होनी चाहिए| इस प्रकार की पुस्तक लिखी तो जा सकती थी मगर आसानी से पकड़ी जाती; इसलिए पुराने धर्म ग्रन्थ खंगाले गए| हिन्दू धर्म के प्राचीनतम और मूल ग्रन्थ एक किताब नहीं है बल्कि चार पुस्तक है और उन्हें किसी ईश्वर ने नहीं बल्कि योग्य मुनियों और ऋषियों ने लिखा है| वेद एक साथ बहुत से धार्मिक सिद्धांतों और दार्शनिक विचारों की बात करते है और ईश्वरीय आदेशों के विपरीत विचार – विमर्श के लिए खुली छूट देते हैं| वेदों को वर्तमान में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ होने के नाते, ज्ञान का प्रारंभ बिन्दु माना जा सकता है| वेदों से प्रारंभ हुआ विमर्श हिन्दू धर्म को वेद, वेदांग, उपवेद, संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, षड्दर्शन (साथ ही चार्वाक, जैन और बोद्ध) तक ले जाता है| इन मूल ग्रंथों के बाद विभिन्न आख्यान जैसे वाल्मीकि रामायण, व्यास महाभारत और पुराण आदि धार्मिक शिक्षा में अपना स्थान रखते है|
लेकिन इनमे से कोई भी हिन्दू ग्रन्थ अपने ईश्वरीय होने का दावा नहीं करता भले ही उसके कुछ पात्रों को ईश्वर या देवता का स्थान समाज और धर्म में दिया है| ऐसे में “नव – विद्वानों” के समक्ष अपने अंग्रेजी आकाओं के सामने एक ईश्वरीय ग्रन्थ प्रस्तुत करने की चुनौती थी| “नव – विद्वाओं” की यह चाहत उन्हें श्रीमद्भागवतगीता तक ले जाती है; जिसे महाभारत के एक पात्र कृष्ण, जिन्हें समाज में ईश्वर का स्थान प्राप्त है, उच्चारित करते हैं| विशेष बात यह है कि महाभारत में मात्र बीस फ़ीसदी श्लोकों को ही मूल ग्रन्थ का भाग माना जाता है, अन्य अस्सी फ़ीसदी श्लोक क्षेपक की श्रेणी में आते है| उन्नीसवीं सताब्दी के धर्म सुधारक आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी श्रीमद्भागवतगीता को भी क्षेपक के संदेह से देखते थे|
श्रीमद्भागवतगीता को पढने से यह बात साधारण मतभेद के साथ स्वीकारी जा सकती है कि युद्ध प्रेरणा के रूप में यह वेद – वेदांगों में दिए गए विचारों में से कुछ विशेष विचारों का अच्छा संग्रह है| इसे इस प्रकार भी समझ जा सकता है कि यदि वेद – वेदांग आदि ग्रन्थ मूल पुस्तक है तो श्रीमद्भागवतगीता उनका संक्षिप्त नोट्स है, जिसे पढ़कर विषय में उत्तीर्ण हुआ जा सकता है मगर विषय में ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता|
ईश्वरीय महिमा युक्त श्रीकृष्ण के मुख से कही गयी, धर्म युद्ध की बात करने वाली, धर्म के लिए सभी सभी विमर्श – विचार, घर – परिवार का त्याग करने के लिए कहने वाली गीता “नव – विद्वानों” के उचित चयन मानी जा सकती थी| यह किसी भी पाठक को धर्म – भीरु बना कर “पूण्य, धर्म, स्वर्ग,” आदि के लिए अपने परिवार तक का उसी प्रकार नाश करने के लिए प्रेरित करती है जितना इसने कथित रूप से अर्जुन को किया था| ईश्वरीय वचन होने के कारण, गीता पर होने वाले किसी भी विमर्श को रोका जा सकता था|
भारत में भले ही अंग्रजों ने तीन सौ साल राज्य किया हो मगर 1857 में अपने राज्य की पूर्ण स्थापना के साथ ही उन्हें यह महसूस हो गया कि उन्हें न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में अन्य चुनौतियाँ मिलने वाली हैं| उस समय भारत में धार्मिक वैमनस्य और कट्टरता का प्रचार करने के लिए उन्होंने गीता के प्रचार प्रसार में अपना ध्यान लगाना शुरू किया| ईसाई मिशिनिरियों के लिए भी वेदादि ग्रंथों के समूह के स्थान पर एक पुस्तक से निपटना सरल समझा गया| |
आज दुखद रूप से गीता की बात करने वाले लोग, वेदादि ग्रंथों के बात करना पसंद नहीं करते| यह आवश्यक है कि लोग अधिक से अधिक वेदों को पढ़े जिससे हिन्दू धर्म के मूल भाव का ज्ञान प्राप्त हो सके|