आराम हराम है – 5


एक तरफ हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व चौबीस घंटे काम करने का जन-आग्रह करना चाहता है उधर वह नेतृत्व महत्वाकांक्षी मनरेगा योजना तक में एक वर्ष में सौ घंटे भी काम नहीं दे पा रहा है। जनता में इस रोजगार योजना के विरुद्ध इसे “रेवड़ी बाँटना” कहा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि श्रम के बदले दिया गया यह वेतन किसी भी तर्क-कुतर्क से “रेवड़ी” कहा जा सकता है। वास्तव में उन्हें देने के लिए काम नहीं निकल रहा। वह भी तब जब गाँवों में विकास का आना लगभग शेष है। सड़क पहुँचने के अतिरिक्त जो भी विकास वहाँ हो रहा है उसका स्थानीय निजी क्षेत्र और निजी प्रयास को जाता है।

फिर भी, यदि इस रोजगार योजना में दिया गया वेतन रेवड़ी मान लिया जाए, तो यह स्पष्ट है कि वास्तव में हमारे पास इच्छुक लोगों के लिए भी समुचित काम नहीं है। हम सिर्फ काम लेने के दिखावा कर-कर उन्हें खैरात बाँट रहे हैं। जब हम अपने लोगों को काम तक नहीं दे पा रहे, तब फिर हमारे पास अन्य लोगों से चौबीस घंटे काम करने का आग्रह करने का क्या आधार है?

ऐसा भी तो नहीं है कि हमारे पास किसी भी क्षेत्र में कम उम्मीदवार हों। हम किसी भी क्षेत्र में सभी उम्मीदवारों को रोजगार नहीं दे पा रहे हैं। यहाँ तक कि पिछले दशकों में सर्वाधिक रोजगार देने वाले क्षेत्रों; सूचना तकनीकी, आधारभूत ढाँचा तंत्र, रेलवे, आदि में काम करने योग्य बहुत से उम्मीदवार बेरोजगार हैं।

रोजगार न देने के पीछे हमारा तर्क यह है कि हमारे उम्मीदवार रोजगार योग्य नहीं हैं। क्या हमारी शिक्षा दीक्षा में कमी है? यदि है तो क्या यह मुख्य मुद्दा नहीं होना चाहिए था?

हमारे युवाओं का काम करने योग्य न होना बहुत बड़ी समस्या है। भारतीय मनीषा शिक्षा का मूल उद्देश एक बेहतर इंसान बनना और आत्म उत्थान मानती रही है। हम आधुनिक शिक्षा के आने के साथ “शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी” कहकर दुःखी होते रहे हैं। परंतु अब क्या? अब क्या कहें? “शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम किस हित बनी?” हमने अपनी शिक्षा की फ़ैक्टरी में डिग्रीधारी बेरोजगार उत्पादित किए है। हम अपने समाचार पत्रों के मुखपृष्ठों पर विज्ञापन देते हैं हमारा उत्तीर्ण कराने के अनुपात दूसरों के बेहतर है। फिर यह सब क्या और क्यों है?

हाल के वर्षों में जितना हल्ला फीस बढ़ाने को लेकर हुआ है शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को लेकर नहीं हो रहा है। पिछले बीस तीस वर्षों में शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिया खुला छोड़ दिया गया है। फिर भी

शिक्षा के स्तर में गिरावट जारी हैं। हम उस विषय में क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं। हम उपलब्ध लोगों से काम चलाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे पास शिक्षक बनने के इच्छुक लोगों की कमी है। योग्य लोग जितना वेतन चाहते हैं शिक्षा क्षेत्र देना नहीं चाहता। जिस समय देश के सामने अपने विकास के लिए प्रतिभा का संकट है, हम प्रतिभा विकास के उपाय के स्थान पर उपलब्ध प्रतिभा का दोहन कर रहे हैं। आराम हराम कहने के हर नए नारे के पीछे हमारी यह विवशता है कि हमारा शिक्षा तंत्र पंगु हो चुका है। इस असहायता को सुधारने के स्थान पर हम राष्ट्र के नाम नारे लगा रहे हैं।

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