आराम हराम है – 4


जीवेम शरदः शतम्। सपना सच होने के कगार पर है। कगार एक ऐसा स्थान जहाँ हमारी असावधानी की प्रतीक्षा मृत्यु हमारा वरण कर लेती है। इधर चिकित्सा शास्त्र हमें दीर्घायु से लेकर अमरत्व के तोहफ़े दे रहा है उधर हम रक्तचाप, मधुमेह, अतितनाव आदि समस्याओं के साथ जी रहे हैं। किसी भी चिकित्सक के पास जाएँ, सब से पहले तनाव और मोटापा कम करने की बात होती है। मानक शारीरिक द्रव्यमान सूचकांक ऐतिहासिक रूप से कमजोरी के निकट आ पहुँचा है। यह अधिकांश रोग अधिक कमाई संबंधी दबाव से जुड़े हैं। अति का काम और अति का तनाव बीमारियों का कारण है।

पहले लोगों के कार्यालय घरों में थे। बड़े सरकारी अधिकारी अपने बंगलों, व्यापारी अपनी कोठियों और पेशेवर अपनी बैठकों से अपना काम निपटाते थे। अपना काम पूरा करने के बाद सुकून था। आज हम काम के जोश में हैं। धन कमाने से अधिक अपने आपको काम करते हुए लत बन चुका है। आज लोग कार्यालयों में गप्प मारते और घर में काम करते देखे जाते हैं। हाल में यह भी देखने लो मिलने लगा है कि आम दिनों में काम करें न करें सप्ताहांत में काम अवश्य किया जाए। अपने आप को काम करता दिखाने के लिए लोग भेजे जाने वाले ईमेल में देर रात के लिए समयबद्ध तक कर देते हैं।

अपने लैपटॉप और मोबाइल के साथ हम चौबीस घंटे के नौकर बन गए हैं। भले ही हमारा वास्तविक काम चार पाँच घंटे का हो मगर उस के तनाव को चौबीस घंटे झेला जा रहा है। मगर क्या इस से वास्तव में हमारी तरक्की हो रही है? हम देश के रूप में और प्रतिष्ठानों के तौर पर आम विकास दर से आगे नहीं बढ़ पाएँ हैं। वास्तव में हमने तनाव के घंटे बढ़ाए हैं।

इसके साथ घरों और कार्य स्थलों की लगातार बढ़ती भौतिक दूरियाँ हमारे स्तरीय समय में से दो-चार घंटे कम कर रहीं हैं। भीड़भाड़ और भगदड़ से भरे इस समय में आप कोई और उपयोग नहीं कर पा रहे। यहाँ तक कि सहयात्रियों से बातचीत, किताबें या अखबार पढ़ना या संगीत सुनना भी एक स्तरीय तरीक़े और ध्यानपूर्वक नहीं हो रहा। यह चार घंटे पूर्ण रूप से अनुत्पादक समय में बदल गए हैं। यह समय बेहद तनावपूर्ण समय में बदलने लगा है।

जिन लोगों के पास रोजगार है और जब वह अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता से अधिक काम करते हैं तो अपने किए रोग और मृत्यु को आमंत्रण देने के साथ वह जाने अनजाने किसी अन्य व्यक्ति के लिए बेरोजगारी पैदा करते हैं। यह बेरोज़गारी जितनी उस व्यक्ति के लिए घातक होती है उस से अधिक खुद रोजगार प्राप्त लोगों और देश के लिए हानिकारक होती है।

रोजगार योग्य बेरोजगार उदरपूर्ति के लिए अपराधों का सहारा लेते हैं। इस से कई खतरे पैदा होते हैं।

पहला, स्वाभाविक रूप से यह अपराधी उन्हीं व्यक्तियों कि अपना शिकार बनाएंगे को अच्छा खा-कमा रहे हैं। परंतु हो सकता है कि आप सुरक्षित इलाकों में रहते हो और आपका सीधे ही अपराध या अपराधी से सामना न हो। परंतु आपको अपने निवास, कॉलोनी, कार्यालय, रास्तों से लेकर अपने बैंक खातों तक की सुरक्षा बढ़ानी होती है। इसके अलावा सरकारी कानून व्यवस्था तंत्र को भी बढ़ाना पड़ता है।

दूसरा, आपपर अधिक कर का बोझ पड़ता है। सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है अधिकतर बेरोजगारों और उनके परिवारों को कम से कम पौष्टिक भोजन और कुछ नहीं तो साल में कुछ दिनों का रोजगार मिलता रहे। वरना यह लोग या तो भूखे मारे जाएंगे या अपराधों की दुनिया में बाढ़ आ जाएगी।

भले ही आप सस्ता गल्ला और भोजन देने की इन योजनाओं को मुफ़्त की रेवड़ियाँ कहें, विधिवेत्ता कल्याणकारी राज्य का नाम दें, पूंजीवादी साम्यवाद के अवशेष कहें, समाजसेवी मानवाधिकार कहें, वास्तविकता यह है कि यह योजनाएँ आपकी सुरक्षा का हित साधतीं है। वरना यह भूखे लोग यदि अहिंसक बगावत पर भी उतर जाएँ तो मध्यमवर्ग का जीवन दूभर हो जाएगा।

इसके अतिरिक्त आप अधिक काम करते समय घर में प्रसन्नता और भविष्य देने वाले बहुत से काम किसी अन्य को सोंपने पड़ते हैं: जैसे माँ या पिता के हाथ का खाना, बच्चों को पढ़ाना, नहलाना धुलाना, घर की साफ सफाई और सजावट आदि। आपका अपने बच्चों और बुजुर्गों से संपर्क लगातार कम होने लगा है।

काम के इस दबाव में हमारा सामाजिक दायरा बहुत छोटा हुआ है। हमारे तीज त्यौहार, शादी-ब्याह व्यवसाय बनकर दूसरों के हाथ चले गए हैं। हमारी पारिवारिक परम्पराएँ इस दबाव में गायब हो गईं हैं। इस सबसे बचने के जो तरीक़े हैं उनमें से सर्वप्रथम है अपनी क्षमता से अधिक कार्य और तनाव का बोझ ने लें और न दें। दूसरे व्यक्तियों के लिए काम छोड़ें। अधिक लोग काम करें। सब थोड़ा कम-कम काम करे।

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