आराम हराम है -1


कम पड़ते हैं चौबीस घण्टे।

कम पड़ते हैं चौबीस घण्टे उनके लिए जिन्हें मशीनों और मानवों में अंतर नहीं करना होता। ऐसा नहीं है कि उन्हें यह अंतर करना नहीं आता। इंसान को मशीन समझने का काम तो उस समय भी होता रहा है जब आज के हिसाब से तो बेहद कम और साधारण मशीनें थीं। मानवता का इतिहास दासों, गुलामों और जन्मना जाति शूद्रों का इतिहास रहा है। हर सत्ता केंद्र सामंतवाद या ब्राह्मणवाद हो या पूंजीवाद यहाँ तक कि समाजवाद और साम्यवाद भी, अपने-अपने गुलाम लेते है। हर सत्ता नारा देती हैं – “आराम हराम है”, “नौ से पाँच की नौकरी खराब चुनौती रहित खराबी है”, या “राष्ट्र हित में चौबीस घंटे काम करना चाहिए”।

उस देश का उदाहरण दिया जाता है जिसकी अस्मिता पर संकट था जिसके पास काम करने लायक हाथ नहीं बचे थे। उसका हासिल क्या है, विकसित पर बूढ़ा देश जिसके पास बच्चे नहीं है भविष्य का युवा आयात करना होगा।

हमारे पास रोजगार के लिए ताकती हुई दो तिहाई आबादी है। हम एक तिहाई को आठ की जगह चौबीस घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं। मर रहे हैं हमारे युवा – तनाव से, जीवन शैली की बीमारियों से संवेदन-हीनता से और मर रहे हैं और वास्तव में तंत्र द्वारा यंत्र बना दिये जाने से। हमारे युवा मर रहे हैं ज़ोम्बी बन जाने से।

क्या लाभ चिकित्सा क्रांति का जब लगभग अस्सी तक पहुँचती मानव आयु इस यांत्रिक तनाव से घटकर चालीस पर जा लगे?

और देश के बुजुर्ग (बूर्जुआ या बूर्झ़वाज़ी कहने की गुस्ताखी नहीं कर रहा हूँ) प्राचीर से आवाज लगाते हैं: आराम हराम है, हमें बारह या बीस घंटे काम करना चाहिए।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि देश का विकास श्रम मांगता है, यह एक सामूहिक श्रम की मांग है न कि गिने चुने लोगों द्वारा यंत्र बनकर काम करने की।

पर जब देश का युवा रोजगार मांग रहा हो और जब रोजगार उपलब्ध हों। तब काम का यह अनावश्यक दबाव मुझे पूंजीवाद या राष्ट्रवाद का नहीं अतिपूंजीवाद का पाप दिखाई देता है। क्या दो हाथ से चार हाथ का काम लेने के स्थान पर चार हाथ को काम नहीं दिया जा सकता। हमारा यह अतिपूंजीवाद जानता है कि ऐसा करने में प्रबंधन श्रम और खर्च बढ़ सकते हैं। ध्यान देने की बात हैं कि नारा चौबीस घंटे काम का है इसे आप चौबीस घंटे मजदूरी या कमाई का नारा न समझें। यही कारण है कि ओवरटाइम जैसी अवधारणा काम के लक्ष्य के दबाव की ओट में छिपा दी गई है।

साथ ही हमारा अतिपूंजीवाद हाल फिलहाल यह समझने समझाने में सफल रहा है कि सामूहिक चेतना से बचना चाहिए। यदि दस हाथ खड़े होंगे तो अपने पूंजीवादी हक भी मांगेंगे – श्रम का मूल्य। उनका मोलभाव भी बढ़ेगा और ओवरटाइम की मांग भी होगी।

इसलिए हर एक को दो गुना काम करने के लिए राजी करना उनके अतिपूंजीवादी हित में है। परंतु क्या यह राष्ट्र हित में हैं? परंतु क्या यह व्यक्तिगत हित में है? नहीं। इस पर आगे बात करेंगे।

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