गुरुवार प्रातः इकोनोमिक्स टाइम्स में खबर दी थी कि सरकार में भारतीय जनता पार्टी के दबाब में आकर कंपनी विधेयक २०११ को एक बार फिर से स्थायी समिति को भेज दिया गया है| कंपनी विधेयक सदन और समिति के बीच कई वर्षों से धक्के खा रहा है| आर्थिक सुधारों का जो बीड़ा पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव जी ने उठाया था वह इस समय खोखली राजनितिक अवसरवादिता के कारण दम तोड़ रहा है| पिछले कई वर्षों से हम देख रहे है कि हमारी सरकार नए कंपनी क़ानून की बातें करतीं रहतीं है परन्तु उन्हें मूर्त रूप देने में असमर्थ रहती है| जब हम सरकार की बात करते है तब हम किसी दलगत सरकार की बात नहीं कर रहे वरन पिछले बीस वर्षों में सत्ताधारी सभी दलों की बात करते है; भले ही वह कांग्रेस, जनता दल, भाजपा, वामपंथी कोई भी हों| अफ़सोस की बात है कि संसद में बैठे लोग संसद के प्रमुख कार्य, विधि-निर्माण और कार्यपालिका नियंत्रण के स्थान पर शोरगुल, हल्लाबोल, कूदफांद आदि कार्यों में व्यस्त हैं| दुखद बात है कि हमारे राजनीतिज्ञ संसद को राजनितिक उठा पटक का अखाड़ा समझ रहे हैं और संसद के पवित्र गलियारा सड़क की गन्दी राजनीति की चौपाल भर बन कर रहा गया है|
पिछले एक वर्ष से हम देख रहे है कि देश की जनता देश हित के एक क़ानून को बनबाने के लिए सड़क पर उतर आई है| आखिर क्यों?? पहले हमें कार्यपालिका के गलत आचरण, दु-शासन, क़ानून सम्मत अधिकारों के लिए ही सड़क पर आती थी और अधिकतर आंदोलन सत्ता की लड़ाई ही थे| परन्तु, हमारा दुर्भाग्य है कि जनतांत्रिक देश की जनता आज अपने को जनतंत्र और उसके मुख्य स्तंभ संसद और विधान सभाओं से कटा हुआ पाती है| कार्यपालिका का भ्रष्टाचार आज विधायिका का अभिन्न अंग बन गया है और खुले आम जनता कह रही है कि अब भ्रष्टाचार की लूट में भागीदार होने के लिए सत्ता का गलियारा जरूरी नहीं| सांसदों के संसद में व्यवहार को आज लूट में हिस्सेदारी की रस्साकशी के रूप ले देखा जा रहा है| यदि यह सब सत्य है तो देश और जनता दोनों का दुर्भाग्य है| परन्तु लगता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण परन्तु सत्य है; देश में विधायिकाएं विधि-कार्य के अतिरिक्त सभी कुछ कर रही हैं| कई महत्वपूर्ण विधेयक संसद में भूखी गरीब बाल विधवा की तरह मुँह लटकाए खड़े है और सरकार से लेकर उप-सरकार (विपक्ष बोलना गलत होगा) तक कोई उनकी सुध-बुध नहीं ले रहा है|
क्या कारण हैं कि देश की विधायिका आज देश की कानूनी आवश्यकता को समझ में नाकाम सिद्ध हों रही है? संस्थान दर संस्थान, भ्रष्टाचार की मार से नष्ट हों रहे है, तकनीकि परिवर्तन जीवन में नए विकास लाकर नए संवर्धित कानूनों की मांग खड़ी कर रहे हैं, समय नयी चुनौती पैदा कर रहा है| परन्तु; हाँ, परन्तु; विधायिका खोखली राजनीति के घिनोने नग्न नृत्य का प्रतिपादन, निर्देशन और संपादन में अतिव्यस्त है| अब यह दूरदर्शिता की कमी मात्र रह गयी है या इच्छा-शक्ति का नितांत आभाव है| इस समय जनतांत्रिक विचारधारा के बड़े बड़े स्तंभ यह विचार करने पर मजबूर है कि क्या वह संसद और संसदीय प्रणाली में आस्था रखते है? हमारी आस्था संसद में भले ही बनी रही हों परन्तु निश्चित रूप से हमारे सांसदों में तो नहीं बची रह गयी है|कंपनी विधेयक पिछले कई वर्षों से उठ गिर रहा है| पेंशन विधेयक अभी सोच विचार में डूबा है| भ्रष्टाचार उन्मूल्यन पर कोई उचित विचार नहीं है| गलत आचारण को उजागर करने वाले लोगो को सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हों रही है| आम नागरिक रिश्वत देने पर मजबूर है और शिकायत करने पर शोषित और दण्डित हों रहा है| न्यायपालिका पर अत्याधिक दबाब है और आवश्यक कानूनी व्यवस्था नहीं बन पा रही है| दूसरी ओर यही सांसद दमनकारी क़ानून बिना किसे हील-हुज्जत बहस आदि के पारित कर देते हैं|
क्या हमारा देश सदन में की गयी नारेबाजी, कुछ-एक स्थगन प्रस्ताव, विधायिक कार्यों में रोजमर्रा की बाधा आदि के सहारे ही चलेगा?? क्या हम चुनाव के दौरान दिए गए कुछ गलत वोट के कारण चुने गए ऐसे सांसद पांच वर्ष तक झेलने के लिए अभिशप्त है?? क्या हम अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को यह नहीं कह सकते कि वह फालतू के हल्ले-गुल्ले में न पड़े और कुछ काम-धाम कर ले? क्या हम अपने प्रतिनिधि से नहीं कह सकते कि वह आवश्यक क़ानून बनाएँ?
क्या संसदीय व्यवस्था निर्वाचित तानाशाही है? क्या संसदीय जनतंत्र दम तोड़ रहा है?? क्या प्रतिनिधिक जन तंत्र को भागीदारी जनतंत्र से बदलने पर यह संसद हमें मजबूर करने जा रही है???