बहुमत


 

हम संविधान के वैधानिक परिभाषाओं से हटकर किस प्रकार से “बहुमत” शब्द को देखते हैं?

  • क्या सदन में अधिकांश सदस्यों का समर्थन प्राप्त होना?
  • क्या पाँच वर्ष तक सत्ता में बनाये रखने वाला पूर्ण बहुमत?
  • क्या पाँच वर्ष के लिए पूर्ण वैधानिक निरंकुशता देने वाला दो तिहाई बहुमत?
  • क्या सिर्फ सत्ता देने का बहुमत या सरकार के मन मुताबिक हर काम को होने देने का बहुमत?

पिछले कुछ दशक से भारतीय सदनों में विधायी कामकाज नहीं के बराबर हो रहा है| जो हो भी रहा है उसमें विचार विमर्श लगभग समाप्त हो गया है और राजनितिक आकाओं के मन मुताबिक कागज पढ़ कर काम चलाया जा रहा है| बहुत सारे लोग भारतीय राजनितिक प्रणाली को दो या तीन दलीय व्यवस्था में बदलना चाहते है| भले ही संसद में ऐसा नहीं हो पा रहा हो, परन्तु दो तथाकथित प्रमुख दलों के लोग जनसाधारण के बीच इसी प्रकार का प्रचार या दिखावा कर रहे है| उनमें सहमति है कि जो मेरा विरोध करता है उसे तेरा आदमी बताया जायेगा और तेरे विरोधी को मेरा| किसी भी तीसरे चौथे दसवें पचासवें विचार को जबरन नाकारा जा रहा है|

इस प्रकरण में महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जिन राज्यों में यह तथाकथित प्रमुख दल कोई अस्तित्व नहीं रखते उन राज्यों के बारे में या तो बात ही नहीं की जाती या उन्हें राष्ट्रीय राजनैतिक मुख्यधारा से बाहर खड़ा कर दिया जाता है| जैसे कश्मीर, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु| कश्मीर को किसी ज़माने में रहे आतकवाद के नाम पर किनारे कर दिया जाता है तो उत्तर प्रदेश पिछड़ा मूर्ख गंवार बता कर और तमिल नाडू सांस्कृतिक भिन्नता की भेंट चढ़ जाता है||

परन्तु क्या सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से बहुआयामी भारत में यह विचार उचित हैं? क्या हमारे प्रमुख दल अपने देश के बहुत बड़े हिस्से से कट तो नहीं गए हैं? क्या बहुमत के नाम पर “अनेकता की एकता” को जाने अनजाने छिन्न भिन्न तो नहीं कर दिया जा रहा है?

देश की सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनितिक भिन्नता को परखने समंझने और उसके बारे में जागरूक होने में कोई कमी तो नहीं रह गयी है?

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