पढ़ी लिखी अयोग्यता


पिछले एक  आलेख में मैंने कंपनी सेक्रेटरी के बहाने देश के रोजगार परिदृश्य की विवेचना की थी| आज कंपनी सेक्रेटरी के बहाने देश में शिक्षा के स्तर की चर्चा करेंगे|

दिल्ली रेडिमेड कंपनी सेक्रेटरी का उत्पाद केंद्र है| यहाँ के उच्च स्तरीय कोचिंग सेंटर परीक्षा की बहुत श्रेष्ठ तैयारी कराते हैं| साथ ही बहुत से श्रेष्ठ कंपनी सेक्रेटरी बिना पैसे लिए संस्थान की ओर से छात्रों के ज्ञान बाँटते हैं|

परन्तु, पिछले वर्ष एक कंपनी के डायरेक्टर ने मुझे कहा था कि एक बार में कंपनी सेक्रेटरी परीक्षा पास कर कर आने वाले दस प्रत्याशी उसे पब्लिक कंपनी और पब्लिक सेक्टर कंपनी का अंतर नहीं बता सके| इसके लिए प्रायः भारतीय कंपनी सेक्रेटरी संस्थान को दोष दिया जाता हैं| मगर इसके कहीं अधिक दोषी हमारा समाज और शिक्षा के प्रति सामाजिक धारणा है| 

यह सब हुआ कैसे?

कहा जा रहा है कि कंपनी सेक्रेटरी मिनटबुक में दो लाइन भी बिना नक़ल के नहीं लिख सकते| कहीं यह भारतीय शिक्षा तंत्र का सामान्य परिदृश्य तो नहीं?

पहला तो छात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं वरन परीक्षा पास करने के लिए पढने लगे हैं| परीक्षा पास करने के लिए उन गूढ़ प्रश्नों के उत्तर याद कर लिए जाते हैं जिन्हें प्रायः परीक्षा में पूछा जाता है या पूछा जा सकता है| याद करने की यह प्रक्रिया इतनी मशीनी है कि उसमें कानूनी गहराई समझने के लिए गुंजाईश ही नहीं बची है|

जब यह छात्र किसी भी कोचिंग सेंटर में जाते हैं तो कोचिंग सेंटर का लक्ष्य होता है, पास हुए छात्रों की संख्या और प्रतिशत बनाये रखना| उनके यहाँ किसी भी सवाल जबाब का कोई स्थान नहीं रहता| केवल बचकाने प्रश्न छात्रों के सामने रखे जाते है जो उन्हें जबाब याद करने की ओर ले जायें, न कि समझने दें| हाँ, अगर कोई छात्र प्रश्न पूछता है तो उसे उत्तर दिया जाता है मगर इस भगदड़ में प्रायः छात्र प्रश्न पूछने की जगह उत्तर याद करने में लगे रहते है|

संस्थान अपने पुराने ढर्रे पर चल रहा है| प्रायः कोचिंग सेंटर और छात्र पूछे जाने वाले सवालों का पहले से जो अंदाजा लगाते हैं उस से मिलते जुलते सवाल आते है| परीक्षा में बहुत सटीक उत्तर के कमी रहती है| अभी हाल ही में एक सम्म्मेलन में बात उठी थी की अगर कोई परीक्षक जरा भी सख्ती से नंबर देता है तो उसके पास संस्थान की ओर से चेतावनी सन्देश आ जाता है|

जब यह छात्र उत्तीर्ण होकर नौकरी के लिए जाते हैं तो कंपनियां उनको अनुकूल नहीं पातीं| बहुत सी बातें जो छात्र जीवन में डट कर पढ़ी गयीं है वो कई बार कंपनी में नहीं होनी होतीं; जैसे मर्जर| जो कार्य कंपनी में रोज होते हैं उनपर छात्र जीवन में कभी ध्यान नहीं दिया गया होता जैसे; कानूनी विवेचना, रेजोलुसन, बोर्ड मीटिंग, समझौते| यह केवल छात्र की ही गलती है नहीं है वरन उस सिस्टम की भी है जो कोर्स को तैयार करता है| रोजमर्रा के काम पढाई में हल्के लिए जाते हैं जबकि उनमें अगर एक्सपर्ट हों  तो समय भी बचेगा और बोर्ड की निगाह में जगह भी बनेगी| मगर कहा जा रहा है कि आज कंपनी सेक्रेटरी मिनटबुक में दो लाइन भी बिना नक़ल के नहीं लिख सकते|

मगर क्या यह देश का परिदृश्य नहीं हो गया है| इसी कारण अंडर एम्प्लॉयमेंट भारत का एक स्वीकार्य सच बन गया है|

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लूज़र कहीं का


भले ही यह किताब २०१३ में प्रकाशित हुई मगर मैंने इसी साल पुस्तक मेले में इसे खरीदा|

कथानक अंत से लगभग कुछ पहले तक गठीला है मगर अचानक “कहानी ख़त्म होने के बाद” जैसा कुछ आ जाता है और पाठक के हाथ इस कहानी के दुसरे भाग “गेनर कहीं का” (जो अलिखित होने के कारण अप्रकाशित है) के कुछ अंतिम पन्ने हाथ आ जाते हैं| अगर आप इस कहानी को पढ़े तो अंतिम तो पृष्ठ फाड़ कर फैंक दें और दो चार महीने के बाद किसी पुस्तकालय से मांग कर पढ़ लें| इन दो पृष्ठों के साथ इस किताब की कीमत १२५ रुपये कुछ ज्यादा है और इनके बगैर कम|

यह पैक्स की कहानी है जो “साला” बिहारी है और पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में मगध एक्सप्रेस टाइप किसी ट्रेन से जीवन भर की पढाई करने दिल्ली आया है| जिसके पास “जाओ जीत लो दुनिया का” आदेश है| विद्यार्थ पलायन की भारतीय विडंबना इस कथा का विषय न होकर भी एक गंभीर प्रश्न की तरह प्रस्तुत है| दुनिया जीतने का लक्ष्य हमेशा ब्याह के बाजार में उतरने तक हासिल करना होता है जो कथानायक और अन्य पात्रों का सबसे बड़ा दबाव है|

अगर आपने दिल्ली में यूपी – बिहार बनाम हरियाणवी – पंजाबी द्वन्द अपने छात्र जीवन में महसूस किया है तो आप इस पुस्तक से जुड़ा महसूस करेंगे| कुछ स्थानों पर दो – तीन बार की लिखत महसूस होती है| गंभीर पाठकों को पुस्तक में बिहारी पुट के ऊपर चढ़ाया गया बीबीसी हिंदी तड़का भी कुछ जगह महसूस हो सकता है, यह पंकज दुबे के लिए दुविधा और चुनौती है| दरअसल पुस्तक को आम हिंदी पाठक के लिए सम्पादित किया गया है जिससे भाषाई प्रमाणिकता में कमी आती है और महानगरीय पठनीयता में शायद वृद्धि होती है| पुस्तक को दोबारा पढ़ते समय, आपको चेतन भगत का बाजारवादी तड़का महसूस होने लगता है|

भले ही पुस्तक के पीछे इसे हास्य कथा कहा गया हो, मगर यह साधारण शैली में लिखा गया सामाजिक व्यंग है जो समकालीन दिल्ली पर हलके तीखे कटाक्ष करता है और अगर आपको वर्तमान दिल्ली का मानस समझना है तो इसे पढ़ा जाना चाहिए| इसके साधारण से कथानक की गंभीर समाजशास्त्रिय विवेचना की पूरी संभावनाएं है, यद्यपि साहित्यिक चश्मे से यह किताब कुछ गंभीर विवेचन नहीं देती|

अगर आप खुद को साधारण हिंदी साहित्य से जोड़ते है तो इसे जरूर पढ़ें|

अक्षर ज्ञान: चूल्हा नीचे चूल्हा


आज मेरा ढाई साल का बेटा स्कूल में पहली बार कलम पकड़ेगा| अपना बचपन याद आया|

मेरा स्कूल पाँच साल की आयु में शुरू हुआ था| माँ ने घर पर ही सौ तक गिनतियाँ, दस तक पहाड़े और हिंदी अंग्रेजी वर्णमाला याद करा दी थी| साथ में उर्दू वर्णमाला को लेकर एक कविता भी थोड़ी बहुत याद थी| बाकि कुछेक कविता याद थीं| मगर तख्ती से अपना वास्ता केवल इतना था कि वो गेंद – बल्ला (क्रिकेट) खेलने के लिए उम्दा थी|

जब स्कूल पहुंचे तो तख्ती का हमेशा के लिए बल्ला बन गया| और एचबी की पेंसिल और पच्चीस पैसे की कॉपी ने बाजी मार ली| कॉपी के कागजों से हवाई जहाज बनाना हमें आता था, मगर स्कूल के पहले हफ्ते में बारिश का जोर था तो स्कूल में आया ने हमें कागज की नाव बनाना सिखा दिया| आया जल्दी ही हमारी दोस्त और अध्यापक दोनों हो गईं| दरअसल हमारी टीचर गाँव नाते से चाची लगती थीं तो लाड़ – प्यार में हम पढ़ते नहीं थे और आया दोस्त थी तो वो खुद पढने का नाटक कर कर पढ़ाती थीं|

अब आया तख्ती पर पढ़ी थी और कागज पर लिखना उन्हें आता नहीं था तो तख्ती और कलम एक बार फिर से जिन्दगी में वापस आये|

चूल्हा नीचे चूल्हा मतलब उ

चूल्हा नीचे चूल्हा मतलब छोटा उ

पहले हफ्ते में चुल्हा बनाना सिखाया गया, जिसे आप आज अंग्रेजी का उल्टा C या लेता हुआ U कह सकते हैं| उसके बाद उ और ऊ की बारी आईं| मेरे लिए पढ़ने और लिखने पढने की वर्णमाला कुछ दिन अलग रहीं| उ ऊ अ आ अं अः ओ औ इ ई ए ऐ
आया ने शायद दो माह में स्वर लिखना सिखाये|

चूल्हे के नीचे चूल्हा बना कर उ बना और उ के ऊपर कुते की दुम लगा कर ऊ| अ और आ के बीच भी कुछ कहानियां थी जो याद नहीं रहीं| मगर याद है जब दो बहुओं में लड़ाई हो गयी तो एक एक ने सीधा और दूसरी ने उल्टा चूल्हा बना दी थी जिससे इ बन गया था|

बाद में जब आया ने क ख ग घ की जगह सबसे पहले व और ब सिखाना चाहा तो उसको कुछ भी सिखाने से मना कर दिया गया और क ख ग घ से शुरू किया गया| मगर जब भी मुझे लिखने में दिक्कत होती तो आया ही मेरी मदद करती|