आलू बीनता बचपन


दिनांक: 1 मार्च 2013

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कार्य विवरण:

कार्य: खेत में से आलू बीनना

कार्य अवधि: रोज 12 से 15 घंटा, (महीना – दो महीना सालाना)

आयु: 9 वर्ष से १२ वर्ष

लिंग: पुरुष (अथवा महिला)

आय: कुल जमा रु. 60/- दैनिक

वेतन वर्गीकरण: रु. 50/- माता – पिता को, रु. 10 अन्य देय के रूप मे कर्मचारी को

पता: जलेसर जिला एटा, उ. प्र.

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कर्मचारी विवरण

नाम: अज्ञात

शिक्षा: कक्षा 2 से 5 (हिंदी माध्यम)

ज्ञान: मात्र वर्ण माला, गिनती,

भोजन: रूखी रोटी, तम्बाकू गुटखा, पानी, (और बेहद कभी कभी दारु, आयु अनुसार)

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मैंने यह स्वयं ऊपर दी गयी दिनांक को स्वयं देखा| जलेसर से सिकंदरा-राऊ के बीच कई खेतो में आलू बीनने का काम महिला और बच्चे कर रहे थे, पुरुष बोझ धो रहे थे| खेत मजदूरों के लिए तो चलिए ये सपरिवार बोनस कमाने के दिन हैं, मगर दुःख की बात थी कि कुछ अन्य लोग भी अपने बच्चों से काम करने में गुरेज नहीं करते|

किस घर में बच्चे माँ – बाप का हाथ नहीं बंटाते हैं?

क्या बच्चे से एक वक़्त पंसारी की दुकान से सामान मांगना बाल मजदूरी नहीं है?

क्या बच्चे काम करने से नहीं सीखते? अगर नहीं तो स्कूलों में लेब किसलिए होतीं हैं?

क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे जिन्दगी की पाठशाला में कमाई का कुछ पाठ पढ़े, कुछ बोझ उठाना सींखे?

क्या बुराई है अगर बच्चे साल भर की अपनी किताबों, पठाई लिखाई का खर्चा खुद निकाल लें?

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नॉएडा में माओ का भूत


 

“ग्रेटर नॉएडा में कोई किसान सरकार का विरोध नहीं कर रहा है, कुछ “सशस्त्र असामाजिक तत्त्व” अराजकता फैला रहे है|”

 “किसी के माओवादी होने का निर्धारण इस बात से होता है की वह दिल्ली से कितना दूर रहता है, वरना नॉएडा के लोगो को अब तक माओवादी कहकर मार दिया जाता|”

 क्या कारण है कि हमें जगह जगह सरकार के विरोध में लगातार उग्र होते प्रदर्शनों की खबरें सुनाई पड रही है| सारे देश में क्या कोई गृह युद्ध चल रहा है? क्यों है इस लोकतंत्र में यह उथलपुथल?

कोई भी व्यवस्था हो सभी को संतुष्ट नहीं कर सकती है| लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था समझी जाती है, जिसमे बहुसंख्या को अपनी बात कहने का मौक़ा मिलता है और यह बहुसंख्या संतुष्ट पाई जाती है| परन्तु आज देश में बहुसंख्य का असंतोष व्यवस्था के परिपालन में किसी कमी का संकेत करता है| देश की बहुसंख्या मताधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहती| पहले राजतंत्र के समय में लोक कहावत थी, “कोई नृप हो हमें क्या हानि?” आज जनतंत्र में कहावत है, “कोई नृप हो हमें क्या लाभ?”

आज के निर्वाचित नृप नग्न नृत्य में लगे है और जनता की समस्याओं से उनके सरोकार नहीं जुड पा रहे है. वह न तो राजधानी में जाकर प्रतिनिधित्व करते है, न क्षेत्र में जाकर जनता से जुड़ते है| नेता, अधिकारी, व्यापारी और अपराधी के बीच का गठजोड़; भ्रष्टाचार बनकर, जनता और देश को असामान्य क्षति पहुंचा रहा है| पत्रकारों के रूप में खडा रहने वाला लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ नष्ट-भ्रष्ट होकर अपनी भूमिका निभाने मे असफल रहा है.

देश भर मे फ़ैल रहे असंतोष को कोई नहीं सुन रहा है, मजबूरन आमजन उग्र हो रहा है| आज के निर्वाचित नृपो को लग रहा है कि इस सब को देशद्रोह कहकर दबा लेंगे| हमारे तंत्र की प्रवृत्ति हो गयी है कि पहले असंतोष को बढ़ने दो, फिर उसको उग्र होने पर हथियारों की राह दिखाओ, उसके बाद क्रूर सैनिक कार्यवाही कर कर उसको गृह युद्ध में बदल दो| जब सत्ता किसी को राजद्रोही करार देती है तब हमारा सारा तंत्र उसके पीछे पड़ जाता है| उसे न्याय की आशा मिटने लगती है और विद्रोह को और बढ़ावा मिल जाता है| हमारी सरकारों को इस सबसे बचना चाहिए|

आज जो कुछ नॉएडा में हो रहा है उससे देश का संभ्रांत समझा जाने वाला समाज भी सोच रहा है कि माओ का भूत हमारे भ्रष्ट निर्वाचित नृपों का खड़ा किया गया बबंडर तो नहीं| कहीं नेताजी, सेठजी से पगार लेकर कोई बाबूजी को बन्दर बना कर नचा रहे हो और दिल्ली में हम बंदरों के नाच पर ताली बजा रहे हों|

देश में भ्रष्ट पूंजीवाद और पंगु लोकतंत्र ही वास्तविक समस्याए है|