नींव में बिहारी


बिहार में चुनाव होने वाले है| बिहार जिसकी बदहाली की चर्चा शायद दरभंगा – मधुबनी – पटना से ज्यादा दिल्ली मुंबई कोलकाता में होती है| बिहार को महानगरीय सामंत देश पर एक कलंक की तरह देखते है और जब भी उन्हें अल्पसंख्यक और दलितों को कोसने से मुक्ति मिलती है तो बिहारी को कोसते हैं| घृणा का यह आलम है कि कृष्ण के मंदिरों के बाहर लिखा हुआ “श्री बिहारी जी” महानगरीय सामंतों को अच्छा नहीं लगता|

बिहारियों से मेरा पहला परिचय उस समय हुआ जब मैंने गृहनगर अलीगढ़ से दिल्ली आना जाना शुरू किया| पटना से आने वाली मगध एक्सप्रेस की जनरल बोगी में एक के ऊपर एक लद कर आने वाले बिहारी मजदूरों को देख कर उनकी हालत पर तरस आता था मगर मगर दिल्ली आकर देखता था कि नवसामंत उन्हें घृणा से अधिक देखते है| बिहारी मजदूरों अपने गाँव से दिल्ली तक का सफ़र उन्हें आत्मसम्मान से लगभग विहीन कर देता है| शायद सभी मजदूर गाँव ही तब छोड़ते है जब धन और आत्मसम्मान भूख और जीवन संघर्ष की बलि चढ़ जाता है|

बाद में मेरा संपर्क मध्य वर्गीय बिहारियों से हुआ तो बेहतर जीवन की तलाश में महानगरों में आते हैं| अधिकतर पढ़े लिखे हैं| सब हमारे देश के असमान विकास की बलि चढ़ कर दिल्ली आते हैं|

जब भी मैं दिल्ली – मुंबई में विकास के महानिर्माण देखता हूँ तो मुझे लगता है कि उन बहुमंजिला इमारतों की नींव में बिहारी मजदूरों का पसीना दफ़न है| जब भी मैं देश के किसी भी बड़े व्यासायिक प्रतिष्ठान को देखता हूँ तो उसके आधारभूत पदों पर बिहारी अकसर दिखाई देते हैं|

मगर बिहार को राष्ट्र निर्माण में उसके योगदान का प्रतिदन क्यों नहीं मिल पाता? दिल्ली मुंबई के नवसामंत विकास का खून चूस कर रख देते हैं और विकास देश के आम शहरों और गांवों तक नहीं पहुँचता| महानगरीय गौरव का हर निर्माण यह सुनिश्चित करता है कि विकास बड़े शहरों का बंधुआ होकर रह जाये और अधिक से अधिक आमजन विकास की तलाश में महानगरों की और पलायन करें|

जब तक देश के साधारण शहर और साधारण ग्रामीण तक विकास नहीं पहुँचता, वहां से होने वाला पलायन महानगरीय विकास को शुन्यतर करता रहेगा|

प्रकृति जगत में साम्य बिठाने का अच्छा काम करती है – विकास विहीन बिहार में टूटी फूटी सड़कों पर बैल – गाड़ी और कारें 10 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से चलती है और विकसित दिल्ली मुंबई में नवसामंतों की दसकरोड़ी कारें भी जाम और रेड – लाइट के चलते उसी रफ्तार से चलती हैं| जब तक बिहार में अच्छी सड़कें बनकर वहां पर वाहनों की रफ़्तार जब तक नहीं बढेगी विकसित दिल्ली मुंबई में नवसामंतों की दसकरोड़ी कारें इसी प्रकार उसी रफ़्तार से चलती रहेंगी|

पुनश्च – दिल्ली में मेरे एक नियोक्ता की पत्नी ने मुझे कहा था दिल्ली और मुंबई के बाहर सब बिहार ही तो है… उसे याद कर कर सच मानने में मुझे “प्रसन्नता” है|

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लूज़र कहीं का


भले ही यह किताब २०१३ में प्रकाशित हुई मगर मैंने इसी साल पुस्तक मेले में इसे खरीदा|

कथानक अंत से लगभग कुछ पहले तक गठीला है मगर अचानक “कहानी ख़त्म होने के बाद” जैसा कुछ आ जाता है और पाठक के हाथ इस कहानी के दुसरे भाग “गेनर कहीं का” (जो अलिखित होने के कारण अप्रकाशित है) के कुछ अंतिम पन्ने हाथ आ जाते हैं| अगर आप इस कहानी को पढ़े तो अंतिम तो पृष्ठ फाड़ कर फैंक दें और दो चार महीने के बाद किसी पुस्तकालय से मांग कर पढ़ लें| इन दो पृष्ठों के साथ इस किताब की कीमत १२५ रुपये कुछ ज्यादा है और इनके बगैर कम|

यह पैक्स की कहानी है जो “साला” बिहारी है और पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में मगध एक्सप्रेस टाइप किसी ट्रेन से जीवन भर की पढाई करने दिल्ली आया है| जिसके पास “जाओ जीत लो दुनिया का” आदेश है| विद्यार्थ पलायन की भारतीय विडंबना इस कथा का विषय न होकर भी एक गंभीर प्रश्न की तरह प्रस्तुत है| दुनिया जीतने का लक्ष्य हमेशा ब्याह के बाजार में उतरने तक हासिल करना होता है जो कथानायक और अन्य पात्रों का सबसे बड़ा दबाव है|

अगर आपने दिल्ली में यूपी – बिहार बनाम हरियाणवी – पंजाबी द्वन्द अपने छात्र जीवन में महसूस किया है तो आप इस पुस्तक से जुड़ा महसूस करेंगे| कुछ स्थानों पर दो – तीन बार की लिखत महसूस होती है| गंभीर पाठकों को पुस्तक में बिहारी पुट के ऊपर चढ़ाया गया बीबीसी हिंदी तड़का भी कुछ जगह महसूस हो सकता है, यह पंकज दुबे के लिए दुविधा और चुनौती है| दरअसल पुस्तक को आम हिंदी पाठक के लिए सम्पादित किया गया है जिससे भाषाई प्रमाणिकता में कमी आती है और महानगरीय पठनीयता में शायद वृद्धि होती है| पुस्तक को दोबारा पढ़ते समय, आपको चेतन भगत का बाजारवादी तड़का महसूस होने लगता है|

भले ही पुस्तक के पीछे इसे हास्य कथा कहा गया हो, मगर यह साधारण शैली में लिखा गया सामाजिक व्यंग है जो समकालीन दिल्ली पर हलके तीखे कटाक्ष करता है और अगर आपको वर्तमान दिल्ली का मानस समझना है तो इसे पढ़ा जाना चाहिए| इसके साधारण से कथानक की गंभीर समाजशास्त्रिय विवेचना की पूरी संभावनाएं है, यद्यपि साहित्यिक चश्मे से यह किताब कुछ गंभीर विवेचन नहीं देती|

अगर आप खुद को साधारण हिंदी साहित्य से जोड़ते है तो इसे जरूर पढ़ें|