लपूझन्ना


“बेते बखत ई एता एगा दब कोई किती के कते पे पेताब फ़ोकत में नईं कलता|”

ऐसे वक़्त में किताब का पहला संस्करण घंटों में बिक जाए तो समझ लो कि किताब निकल पड़ी| यह तब हो रहा है जब हर कोई हिंदी में पाठक न होने की बात कर रहा है|

यादों की ककैया ईंटों की हवेली मेरे सामने खड़ी हो रही है| उस वक़्त की जिंदगी जब न घरों पर मुखौटे चढ़े थे न चेहरों और किरदारों पर| छोटे मँझोले शहर में अपना जो बचपन छोड़ आए हैं उसकी अपनी पुरानी यादें का शामियाना मेरे सामने खड़ा है| यह बात अलग है कि इतिहास के जिस काल खण्ड में यह उपन्यास ख़त्म होता है वहां से मेरा जीवन शुरू होना चाहता है| इस किताब में बागड़बिल्लों, लपूझन्ना ढूंढोगे तो नहीं मिलेगा| बिन मांगे तो खैर बमपकौड़ा भी मिलता हैं और जीनतमान भी| किताब षडरस संतुलित है और भोलापन बिल्कुल नहीं खोती| 

बहुत कम उपन्यास हैं जिन्हें बचपन की उस जमीन पर लिखा गया है जब हम लफत्तू बनने की कोशिश कर रहे होते हैं| अगर आप छठी आठवीं पास कर चुके हैं तो इसे पढ़ने के बहाने मुस्कुरायेंगे और आत्मस्वीकृतियाँ करते चलेंगे| टीप देता चलूँ कि अगर कोट-पेण्ट वाले स्कूल के बेलबॉटम रहे थें तो आप जरूर पढ़ लें – आपने क्या क्या खोया जिंदगी में| पाने के लिए तो खैर सन सत्तर के बाद पैदा होने वालों में खुद खरीद दौलत की गुलामी पाई और दिखावे की खुशियाँ दोनों हाथ बटोरीं हैं| यह कहानी उस ज़िंदगी की भी है जब बचपन को टेलीविज़न का ग्रहण नहीं लगा था| बचपन गुजारा नहीं जिया जाता था| 

किसी भी अच्छी किताब को पढ़ते हमारे अपने परिदृश्य और निष्कर्ष सामने आते हैं| हम किताब और अपने जीवन स्वप्न को समानान्तर जीते चलते हैं| जब यह कथाएँ सरलता से साम्य स्थापित कर सकें तो भली प्रतीत होती हैं| लेखक की शैली तरलता के साथ यह साम्य स्थापित करने के लिए जानी जाती है| हम लेखकीय कल्पना को यथार्थ से निष्काषित नहीं कर पाते| यह बचपन का सादा सुंदर दस्तावेज़ बनकर सामने है| 

पुस्तक की सबसे महावपूर्ण बात है कि इसके हर अध्याय को आप अलग किस्से की तरह पढ़ सकते हैं| एक दो जगह लगता है| यह बात भी हो सकती है कि दोस्त की अनुपस्थिति में यादें अक्सर अतीत से उखड़ कर आ जाती हैं| 

यह कहानी इतनी सादा है कि आपका थोड़ा और सादा सा इंसान बना देती है| इस तरह की बातें अशोक पांडे हल्द्वानी वाले ही लिख सकते हैं| जिन्हें पिछली एक दो दहाई में ढूंढ कर पढ़ने का शौक रहा है उन्हें किताब की शैली और सादगी से अपना पुराना परिचय मिलेगा| यह अलग बात है कि लेखक खुद किताब का पिछाड़ा  न देखें तो यह न बता पाएं कि पिछली किताब कितने साल पहले आई थी| हाँ जब किताब आईं है तो पूरी तीन आई हैं सरदार जनवरी बाईस के पहले दो हफ्ते में| बाकी किताबों पर बाईस पड़ रही हैं|  

“वो ज़माने लद गए बंतू बेते जब गधे पकौली हगते थे|”  

पुस्तक: लपूझन्ना 

लेखक: अशोक पाण्डे (हल्द्वानी वाले)

प्रकाशक: हिन्दीयुग्म 

पृष्ठ संख्या: 224

प्रकाशन वर्ष: 2022 

विधा: उपन्यास

मूल्य: 199

आईएसबीएन: 978-93-92820-20-5

च्यवनप्राश


भारतीय घरों में आलू, प्याज, मिर्च और चाय – चीनी – दूध के बाद च्यवनप्राश शायद सबसे ज्यादा जरूरी खाद्य है| अगर जाड़े का मौसम है और घर में बच्चे हैं तो हो नहीं सकता कि आप इसे न पायें| च्यवनप्राश का घर में होना ठीक ऐसे ही है जैसे घर में किसी अनुभवी बुजुर्ग का होना| यह दादी नानी का अजमाया हुआ नुस्खा है और वैद्यों की पसंदीदा अनुभूत औषधि, भारतीय घरों में घर का वैद्य|

इसमें क्या क्या औषधीय गुण हैं यह सब बाद की बात है, हमारे उत्तर भारतीय घरों में दो साल का बच्चा भी भरोसा करता है कि च्यवनप्राश खा लिया तो उसको दादी नानी का दुलार मिल गया; बीमारी से लड़ने की ताकत मिल गयी, कडकडाती ठण्ड से बचाव हो गया; और ठण्ड भरी शाम में भी घर से बाहर खेलने की अनुमति लगभग मिल ही गई|

कई बार तो शायद च्यवनप्राश से भरा चम्मच देखना ही बच्चे को हल्के सर्दी – जुखाम से मानसिक रहत दे देता है| एक चम्मच च्यवनप्राश खाकर सौठ वाले गुड से गुनगुना दूध – बचपन का पुराना नुस्खा|

मैंने कभी नहीं जाना कि च्यवनप्राश में क्या क्या पड़ता है मगर सदियों के इस भारतीय आयुर्वेदिक नुस्खे पर शायद किसी भी अत्याधुनिक औषधि से अधिक भरोसा रखता हूँ|

च्यवनपप्राश का स्वाद कम पसंद करने वाले बच्चे भी इसे चुपचाप खा लेते हैं| वैसे आजकल तो इसमें भी कई तरह के फ्लेवर्ड च्यवनप्राश बाजार में उपलब्ध हैं| मगर चयवनप्राश का अपना सदियों पुराना स्वाद हमेशा ही मुझे आकर्षित करता है| मेरे बचपन में, जब कभी मुझे फ्लेवर्ड मिल्क का मन करता था तो दूध में च्यवनप्राश भी एक विकल्प हुआ करता था जिसका स्वाद तो शायद मुझे बहुत पसंद नहीं था मगर मुझे यह आश्वस्ति रहती थे कि अब यह मेरे लिए फायदे का सौदा है|

मेरी माँ अक्सर पास पड़ौस की गर्भवती स्त्रियों और नई माताओं को भी जाड़े के दिनों में दिन में दो बार च्यवनप्राश खाने की सलाह देतीं थीं| उनका विचार था कि यह च्यवनप्राश हर हाल में गर्भस्थ और नवजात शिशु के खून में जरूर पहुंचेगा और लाभ पहुंचाएगा| च्यवनप्राश से जुड़े कई नुस्खे आपको देश भर के गाँव देहात में मिल जायेंगे| जैसे गुनगुने पानी से च्यवनप्राश ले लेने से सर्दी के दिनों का चढ़ता बुखार चढ़ना रुक जाता हैं| इसके साथ कई किद्वंती जुड़ी मिल जायेंगीं| कभी कभी आप पाएँगे कि कैसे मौसम से जुड़ी कई बीमारियों में मरीज च्यवनप्राश के खास विधि से सेवन करने पर ठीक हो जाता है| इनमें से बहुत सी सकारत्मक सोच और विश्वास के चलते आये मानसिक परिवर्तन से जुड़ी हो सकतीं है|

एक बाटी जरूर बताना चाहूँगा| कई बार जाड़ों में ठण्ड के कारण हम बच्चे खाना खाने से पहले और बाद में हाथ धोने से बचते थे| हमारा तर्क होता था, च्यवनप्राश खा लिया, अब बीमारी नहीं होगी| मेरे पिता हमेशा कहते, च्यवनप्राश अन्दर से रक्षा करेगा और हाथ धोना बाहर से|

च्यवनप्राश सिखाता है कि आप अगर अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देते रहेंगे तो आप अपने जीवन के सबसे जरूरी व्यक्ति अपने आप और अपने परिवार को न सिर्फ बिमारियों से मुक्त रख पाएंगे, वरन चिंता मुक्त होकर और जरूरी कामों में ध्यान दे सकेंगे| हमारी संस्कृति बीमार होकर ठीक होने में विश्वास नहीं रखती वरन अपने शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को लगातार बढ़ा कर बीमारियों से मुक्त रहने के विचार में निवेश करती है| च्यवनप्राश भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है जो हमें हमेशा से सिखाती है, इलाज से बचाव में समझदारी है और स्वास्थ्य में निवेश जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है|

टिपण्णी: यह पोस्ट डाबर च्यवनप्राश के सहयोग से इंडीब्लॉगर द्वारा आयोजित कार्यक्रम ले लिए लिखी गई है|