इत्ती सी मिठास


क़िस्से लौट-लौट कर आ रहे हैं। बहुत दिन हुए हम किस्सों से दूर होने लगे। क़िस्से जो गली-कूचों में घटित होते, और फिर-फिर सुनाए जाते। उन में कभी मिर्च मसाले पड़ते और चटकारे लेकर खूब उड़ाए जाते, तो कभी रूमानियत के साथ पाग दिए जाते और चाय पानी के साथ मिठास की तरह परोसे जाते।

पता नहीं विश्व विद्यालयों के शास्त्र में क़िस्से, कहानियों, मिसालों, लघुकथाओं, उपन्यासों के लिए तय वर्गीकरण का क्या चकल्लस चल रहा है मगर इन सब की किताबों के पृष्ठ भाग पर फिक्शन चिपका हुआ है – माने की कहानी संग्रह। मेरी राय में तो पूर्ति खरे क़िस्से पागतीं हैं और परोस देतीं हैं। नहीं, पागी तो जलेबी – इमारती भी जाती है –  मगर उनके किस्सों में शकरपारों का स्वाद है – कभी चीनी -पगे तो कभी गुड़-पगे। कुछ क़िस्से तो बस खुरमे की तरह आपके मन में घुल जाते हैं।

उनके यहाँ न शैली का शोर है न द्वंद की कुश्ती – बस एक एक कर किस्सा आता है घुलता है और एक स्वाद छोड़ देता है – आप चाहें तो उस एक क़िस्से को कुलबुलाते रहें या फिर अगले को उठा लें। बात जो मन तक उतर जानी चाहिए – वह उतर जाती है। वह कोई बड़ा विमर्श नहीं खड़ा करतीं – किसी वाद का झण्डा नहीं है। उनके पास सरलमना पुरुष हैं – सहजमना स्त्रियाँ और मुस्कराते बच्चे। सब आम ज़िंदगी से आते हैं – हमारे अपने मझोले शहर के पुराने मोहल्लों से टहलते हुए। पास पड़ोस तो इतना है कि आप अपने बारहवें माले के फ्लेट से निकालकर यूँ ही टहलने लग सकते हैं।

इस सब को कहते हुए उन्हें कोई झिझक नहीं है, कोई हीन भावना नहीं है – क्रांति-आंदोलन थोड़े ही करनी है – जीना है – हँसना-मुसकराना है और सही समझ के साथ आगे बढ़ जाना है। उनकी स्त्री किसी मन चले को अगर झापड़ भी मारती है तो उसकी आवाज छेड़खानी करने वाले के गाल पर नहीं मन में होती है। उनकी स्त्री कराटे सीख कर मार्शल नहीं बनती – आत्मविश्वासी होती है। उनके पुरुष प्रेमिका का मन रखने के लिए विवाह को कुछ यूं ही दिन आगे बढ़ा देते हैं। उनकी नवयुवती नौकरी पर जाते समझ हो आत्मश्लाघा में हल्ला नहीं करती – जिम्मेदार बनती है। उनके पिता पराँठे बनाते हुए मेरी तरह चुपचाप पत्नी बच्चों के सामने परस देते हैं – कोई अहसान नहीं करते। उनका लेखन पितृसत्ता को चुनौती नहीं देता -उसे धीरे धीरे सुधारने की राह पर चलता है।

बस इतना सा ही तो है उनका इत्ती से बात – कहानी संग्रह – वेरा प्रकाशन, जयपुर से इसी साल आया है – मूल्य वही है 249/-। चलते फिरते मेट्रो में या किसी क्लीनिक पर अपनी बारी का इंतजार करते हुए पढ़ सकते हैं – बिना रक्तचाप बढ्ने – गिरने की चिंता किए।

हिन्दी साहित्य क्षेत्र में एक निंदा प्रस्ताव


मैं जो लिख रहा हूँ उसका तात्कालिक संदर्भ पटना के राइटर्स रेज़िडेंसी की घटना है परंतु सामान्य रूप से इसे इस घटना से इतर भी पढ़ा जाए:

प्रतिक्रिया, विशेषकर तुरत-फुरत, प्रतिक्रिया आवश्यक नहीं होती। यह व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारक है। इसका विकसित रूप तुरत-फुरत न्याय और भी अधिक खतरनाक है, इस से पीड़ित को कृत्य से उत्पन्न पीड़ा की वास्तविक तीव्रता को समझने का समय नहीं मिलता तो आरोपी को भी कई बार अपने कृत्य उस उत्पन्न पीड़ा का एहसास कर-कर वास्तविक हृदयग्राही क्षमाप्रार्थना का समय नहीं मिलता। भले ही उसने एक त्वरित क्षमा-पत्र लिख दिया हो।

मैं पटना मामले में सबसे पहले सोशल मीडिया पर आईं उन पाँच-दस पोस्ट की असीमित और अन्य की कड़ी भर्त्सना करना चाहता हूँ जिन्होंने इस मामले को बिना सहमति सार्वजनिक किया। इस प्रक्रिया से उन्होंने वास्तव में, बिना नाम पता बताए हुए भी, न सिर्फ पीड़िता की निजता का हनन किया वरन प्राथमिक जांच और उसपर होने वाली कार्यवाही को प्रभावित करने का प्रयास किया।

इस घटना विशेष में तो स्थान बनाते मात्र से निजता का पूर्ण हनन हुआ, जो अपने आप में निंदनीय आपराधिक कृत्य है। जिसकी सजा दो वर्ष तक हो सकती है। आपकी हर पोस्ट अपने आप में आपराधिक कृत्य का सबूत है और यदि आपके ऊपर आपराधिक मुकदमा चलता है तो संयत से संयत पोस्ट पर भी मैं छह माह तक के कैद और जुर्माने की पूरी संभावना देख पा रहा हूँ।

इस के बाद मैं उन सब तुरत-फुरत पोस्ट की निंदा करता हूँ, जिन्होंने झुंड मानसिकता के साथ, पीड़ित अथवा आरोपी पर शिकार करने जैसी मानसिकता के साथ टिप्पणियाँ की। मैं उन सब तुरत-फुरत पोस्ट की भी निंदा करता हूँ जिन्होंने लगे हाथों आयोजकों या उस फेलोशिप की चयन समिति पर अवांछित टिप्पणियाँ की। यह सब न्याय और न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करता है। उपरोक्त सभी निंदा प्रस्ताव में मैं किसी भी व्यक्ति द्वारा पीड़ित या आरोपी का पक्ष लेने मात्र की निंदा नहीं करता। परंतु इस प्रकार पक्ष लेते समय असंगत और अनुचित भाषा और साक्ष्य विहीन व्यवहार नितांत निंदनीय है।

हम सब को भले ही लगता हो कि पीड़ित का पक्ष आना चाहिए, या आयोजकों को तुरंत कोई कार्यवाही करनी चाहिए, परंतु किसी भी जांच में न सिर्फ समय लगता है बल्कि जांच कर्ताओं को अपने आप को निष्पक्ष मन स्थिति में लाने में मानवीय समय लगता है। भले ही आपने आरोपी के पुराने व्यवहार के आधार पर उसे दोषी मन लिया हो मगर आयोजकों को कानून के अनुसार एक न्यायिक प्रक्रिया में पंच की भूमिका निभानी थी और घटना की वास्तविक गंभीरता, पीड़ा, आरोपी का पक्ष और तात्कालिक मानसिकता आदि बहुत सी बातें उनके पुराने रेकॉर्ड से बिना प्रभावित हुए देखनी होती हैं। इसके साथ उन्हें प्राथमिक जांच कर्ता के रूप में वह सभी सबूत जुटाने और सहेजने होते हैं तो न्यायिक प्रक्रिया के उचित और सम्यक निर्वाहन के लिए आवश्यक हों।

कोई भी पीड़ित इस निर्णय के लिए स्वतंत्र है कि वह कार्यवाही आगे बढ़ाए और किस स्तर तक आगे बढ़ाए या उस पर यथास्थान मिट्टी डाल दे। इसमें हार मनाने जैसी कोई बात नहीं होती। आपका समय, ऊर्जा, धन, और अन्य जिम्मेदारियाँ इस निर्णय में एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं। इस प्रकार के बहुत से मामलों में अकाट्य सबूत या निष्पक्ष और अडिग प्रत्यक्षदर्शी होने की संभावना बहुत कम होती है और निरंतर कम होती जाती है। न्यायालय यदि अकाट्य सबूत या निष्पक्ष और अडिग प्रत्यक्षदर्शी के अभाव में किसी आरोपी को छोड़ देता है तो वास्तव में उसे अपराध मुक्त नहीं कहता फिर भी पीड़ित के लिए यह एक अतिरिक्त और बड़ी पीड़ा हो जाता है। किसी भी पीड़ित को यह सब जाँचने समझने उस पर पारिवारिक और कानूनी सलाह लेने का और उसके लिए पर्याप्त समय लेने का पूरा अधिकार है।

इसके साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ, कि सोशल मीडिया में आयोजकों को “असुरक्षित” आयोजन और चयन समिति को “असंगत” चयन के लिए कटघरे में खड़ा किया गया। इन सभी प्रतिक्रियाओं का यह उदेश्य भले ही ऐसा करना नहीं था मगर इस प्रकार का अनुचित माहौल बना। चयनकर्ता रचनाकारों का चयन कर रहे थे और आप उस चयन के सहमत-असहमत हो सकते हैं, मगर ऐसा नहीं था कि चयनकर्ता पीड़ित के विरुद्ध कोई षड्यंत्र कर रहे थे। यदि किसी को ऐसे किसी षड्यंत्र की जानकारी है तो उसके पुख्ता सबूत तुरंत पीड़ित तक पहुंचाए। ऐसा न करने पर पीड़ित को समय रहते इस षड्यंत्र की जानकारी न देने के लिए उनपर खुद एक आरोप बनाता है।

कुछ लेखक संगठन आरोपी के विरुद्ध खड़े हुए हैं उनकी भाषा प्रायः उचित के निकट है। आरोपी अपना बचकाना बचाव करते नजर आए। उचित होता कि वह एक उचित कानूनी सलाह लेते और उस सलाह के अनुसार उचित व्यवहार या बचाव करते। मैं उनके कृत्य की असीमित और एकनिष्ठ भर्त्सना करता हूँ और आशा करता हूँ कि वह एक उचित सबक लेंगे। वह सामाजिक माध्यम में मेरे मित्र के रूप में दर्ज होने मात्र से मेरे मित्र नहीं हो जाते। मैं उन्हें इस तथाकथित मित्र सूची से नहीं हटा रहा हूँ। वह विद्वान है, अच्छे लेखक है, उसका आदर है उनके व्यक्तित्व के इस निंदनीय पहलू के प्रति मेरी कोई आस्था नहीं है।

पीड़ित मेरी मित्र सूचित नहीं है और इस अनुचित समय में उन्हें मित्रता अनुरोध भेजने के कोई अर्थ नहीं है। उनकी कई कविता मुझे पसंद आई और मैं उनकी कविता भविष्य में पढ़ता रहूँगा।

चयन समिति और आयोजकों के अभी तक तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, और तब तक कोई शिकायत नहीं है जब तक पीड़ित उन्हें किसी षड्यंत्र का भाग नहीं पाती। इस घटना से उन्हें जो क्लेश हुआ होगा मैं उसे समझ सकता हूँ।

उच्चतम न्यायालय में उर्दू विवाद


भाषाओं के विवाद कितने गम्भीर और निर्णायक होते हैं इसे भारतीय महाद्वीप से अधिक और कौन समझ सकता है? अभी हाल ही में महाराष्ट्र की एक नगर परिषद के साइन बोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली याचिका को ख़ारिज करते हुए माननीय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया है. यह निर्णय भाषा और साहित्य से जुड़े सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. गहरी अंतर्दृष्टि, अध्यवसाय और न्याय-चेतना का यह रेखांकित करने योग्य उदाहरण है. ऐसे निर्णय कानूनी भाषा की पेचीदगियों के कारण सर्व समाज के लिए लगभग अपठनीय ही रहते हैं. ऐसे में इस निर्णय का सहज और पठनीय अनुवाद करके ऐश्वर्य मोहन गहराना ने भविष्य के लिए एक रास्ता निकाला है. क्या किसी साहित्यिक पत्रिका में ऐसे किसी निर्णय को आपने इतनी सुथरी भाषा में पढ़ा है? यह ऐतिहासिक है.

तो पढ़िए मेरा यह अनुवाद हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण ऑनलाइन पत्रिका समालोचन में 20 मई 2025 को प्रकाशित मेरा यह अनुवाद. नीचे दिए चित्र पर अथवा यहाँ क्लिक कीजिये.