हिन्दी साहित्य क्षेत्र में एक निंदा प्रस्ताव


मैं जो लिख रहा हूँ उसका तात्कालिक संदर्भ पटना के राइटर्स रेज़िडेंसी की घटना है परंतु सामान्य रूप से इसे इस घटना से इतर भी पढ़ा जाए:

प्रतिक्रिया, विशेषकर तुरत-फुरत, प्रतिक्रिया आवश्यक नहीं होती। यह व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारक है। इसका विकसित रूप तुरत-फुरत न्याय और भी अधिक खतरनाक है, इस से पीड़ित को कृत्य से उत्पन्न पीड़ा की वास्तविक तीव्रता को समझने का समय नहीं मिलता तो आरोपी को भी कई बार अपने कृत्य उस उत्पन्न पीड़ा का एहसास कर-कर वास्तविक हृदयग्राही क्षमाप्रार्थना का समय नहीं मिलता। भले ही उसने एक त्वरित क्षमा-पत्र लिख दिया हो।

मैं पटना मामले में सबसे पहले सोशल मीडिया पर आईं उन पाँच-दस पोस्ट की असीमित और अन्य की कड़ी भर्त्सना करना चाहता हूँ जिन्होंने इस मामले को बिना सहमति सार्वजनिक किया। इस प्रक्रिया से उन्होंने वास्तव में, बिना नाम पता बताए हुए भी, न सिर्फ पीड़िता की निजता का हनन किया वरन प्राथमिक जांच और उसपर होने वाली कार्यवाही को प्रभावित करने का प्रयास किया।

इस घटना विशेष में तो स्थान बनाते मात्र से निजता का पूर्ण हनन हुआ, जो अपने आप में निंदनीय आपराधिक कृत्य है। जिसकी सजा दो वर्ष तक हो सकती है। आपकी हर पोस्ट अपने आप में आपराधिक कृत्य का सबूत है और यदि आपके ऊपर आपराधिक मुकदमा चलता है तो संयत से संयत पोस्ट पर भी मैं छह माह तक के कैद और जुर्माने की पूरी संभावना देख पा रहा हूँ।

इस के बाद मैं उन सब तुरत-फुरत पोस्ट की निंदा करता हूँ, जिन्होंने झुंड मानसिकता के साथ, पीड़ित अथवा आरोपी पर शिकार करने जैसी मानसिकता के साथ टिप्पणियाँ की। मैं उन सब तुरत-फुरत पोस्ट की भी निंदा करता हूँ जिन्होंने लगे हाथों आयोजकों या उस फेलोशिप की चयन समिति पर अवांछित टिप्पणियाँ की। यह सब न्याय और न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करता है। उपरोक्त सभी निंदा प्रस्ताव में मैं किसी भी व्यक्ति द्वारा पीड़ित या आरोपी का पक्ष लेने मात्र की निंदा नहीं करता। परंतु इस प्रकार पक्ष लेते समय असंगत और अनुचित भाषा और साक्ष्य विहीन व्यवहार नितांत निंदनीय है।

हम सब को भले ही लगता हो कि पीड़ित का पक्ष आना चाहिए, या आयोजकों को तुरंत कोई कार्यवाही करनी चाहिए, परंतु किसी भी जांच में न सिर्फ समय लगता है बल्कि जांच कर्ताओं को अपने आप को निष्पक्ष मन स्थिति में लाने में मानवीय समय लगता है। भले ही आपने आरोपी के पुराने व्यवहार के आधार पर उसे दोषी मन लिया हो मगर आयोजकों को कानून के अनुसार एक न्यायिक प्रक्रिया में पंच की भूमिका निभानी थी और घटना की वास्तविक गंभीरता, पीड़ा, आरोपी का पक्ष और तात्कालिक मानसिकता आदि बहुत सी बातें उनके पुराने रेकॉर्ड से बिना प्रभावित हुए देखनी होती हैं। इसके साथ उन्हें प्राथमिक जांच कर्ता के रूप में वह सभी सबूत जुटाने और सहेजने होते हैं तो न्यायिक प्रक्रिया के उचित और सम्यक निर्वाहन के लिए आवश्यक हों।

कोई भी पीड़ित इस निर्णय के लिए स्वतंत्र है कि वह कार्यवाही आगे बढ़ाए और किस स्तर तक आगे बढ़ाए या उस पर यथास्थान मिट्टी डाल दे। इसमें हार मनाने जैसी कोई बात नहीं होती। आपका समय, ऊर्जा, धन, और अन्य जिम्मेदारियाँ इस निर्णय में एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं। इस प्रकार के बहुत से मामलों में अकाट्य सबूत या निष्पक्ष और अडिग प्रत्यक्षदर्शी होने की संभावना बहुत कम होती है और निरंतर कम होती जाती है। न्यायालय यदि अकाट्य सबूत या निष्पक्ष और अडिग प्रत्यक्षदर्शी के अभाव में किसी आरोपी को छोड़ देता है तो वास्तव में उसे अपराध मुक्त नहीं कहता फिर भी पीड़ित के लिए यह एक अतिरिक्त और बड़ी पीड़ा हो जाता है। किसी भी पीड़ित को यह सब जाँचने समझने उस पर पारिवारिक और कानूनी सलाह लेने का और उसके लिए पर्याप्त समय लेने का पूरा अधिकार है।

इसके साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ, कि सोशल मीडिया में आयोजकों को “असुरक्षित” आयोजन और चयन समिति को “असंगत” चयन के लिए कटघरे में खड़ा किया गया। इन सभी प्रतिक्रियाओं का यह उदेश्य भले ही ऐसा करना नहीं था मगर इस प्रकार का अनुचित माहौल बना। चयनकर्ता रचनाकारों का चयन कर रहे थे और आप उस चयन के सहमत-असहमत हो सकते हैं, मगर ऐसा नहीं था कि चयनकर्ता पीड़ित के विरुद्ध कोई षड्यंत्र कर रहे थे। यदि किसी को ऐसे किसी षड्यंत्र की जानकारी है तो उसके पुख्ता सबूत तुरंत पीड़ित तक पहुंचाए। ऐसा न करने पर पीड़ित को समय रहते इस षड्यंत्र की जानकारी न देने के लिए उनपर खुद एक आरोप बनाता है।

कुछ लेखक संगठन आरोपी के विरुद्ध खड़े हुए हैं उनकी भाषा प्रायः उचित के निकट है। आरोपी अपना बचकाना बचाव करते नजर आए। उचित होता कि वह एक उचित कानूनी सलाह लेते और उस सलाह के अनुसार उचित व्यवहार या बचाव करते। मैं उनके कृत्य की असीमित और एकनिष्ठ भर्त्सना करता हूँ और आशा करता हूँ कि वह एक उचित सबक लेंगे। वह सामाजिक माध्यम में मेरे मित्र के रूप में दर्ज होने मात्र से मेरे मित्र नहीं हो जाते। मैं उन्हें इस तथाकथित मित्र सूची से नहीं हटा रहा हूँ। वह विद्वान है, अच्छे लेखक है, उसका आदर है उनके व्यक्तित्व के इस निंदनीय पहलू के प्रति मेरी कोई आस्था नहीं है।

पीड़ित मेरी मित्र सूचित नहीं है और इस अनुचित समय में उन्हें मित्रता अनुरोध भेजने के कोई अर्थ नहीं है। उनकी कई कविता मुझे पसंद आई और मैं उनकी कविता भविष्य में पढ़ता रहूँगा।

चयन समिति और आयोजकों के अभी तक तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, और तब तक कोई शिकायत नहीं है जब तक पीड़ित उन्हें किसी षड्यंत्र का भाग नहीं पाती। इस घटना से उन्हें जो क्लेश हुआ होगा मैं उसे समझ सकता हूँ।

उच्चतम न्यायालय में उर्दू विवाद


भाषाओं के विवाद कितने गम्भीर और निर्णायक होते हैं इसे भारतीय महाद्वीप से अधिक और कौन समझ सकता है? अभी हाल ही में महाराष्ट्र की एक नगर परिषद के साइन बोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली याचिका को ख़ारिज करते हुए माननीय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया है. यह निर्णय भाषा और साहित्य से जुड़े सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. गहरी अंतर्दृष्टि, अध्यवसाय और न्याय-चेतना का यह रेखांकित करने योग्य उदाहरण है. ऐसे निर्णय कानूनी भाषा की पेचीदगियों के कारण सर्व समाज के लिए लगभग अपठनीय ही रहते हैं. ऐसे में इस निर्णय का सहज और पठनीय अनुवाद करके ऐश्वर्य मोहन गहराना ने भविष्य के लिए एक रास्ता निकाला है. क्या किसी साहित्यिक पत्रिका में ऐसे किसी निर्णय को आपने इतनी सुथरी भाषा में पढ़ा है? यह ऐतिहासिक है.

तो पढ़िए मेरा यह अनुवाद हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण ऑनलाइन पत्रिका समालोचन में 20 मई 2025 को प्रकाशित मेरा यह अनुवाद. नीचे दिए चित्र पर अथवा यहाँ क्लिक कीजिये.

“भाषा” “वाद” और “अजेंडा”


लोग किसी भी घटना के बाद सोशल मीडिया पर लिखने का बहुत दबाव महसूस करते हैं, अपना क्रोध, चिंता, दुःख उड़ेल देना चाहते हैं। मगर अधिकतर आड़े आती है “भाषा” “वाद” और “अजेंडा”।

सब पहले भाषा वाले दो समूह:

आप में से अधिकतर सुविधा के लिए फॉरवर्ड करते हैं – बस आधा पढ़कर आगे बढ़ा देना – कहीं देर न हो जाए। इन्हें पीछे छूट जाने का भय है। भले ही यह पूरे तथ्य से सहमत हों, न हों। इस से गलत आख्यान बिना इनके चाहे आगे बढ़ जाता है। और बाद में यह लोग खुद भी उसे ही “लगभग सही” जानते-मानते अपने कुचक्र में फँस जाते हैं। आप कृपया, किसी भी फॉरवर्ड के तथ्य जांच लें, एक भी गलत नहीं हो। संदेश को संपादित कर-कर या उसमें से जांच परख कर सही तथ्य अपने आप से लिखकर उसे पोस्ट करें। वैसे इतनी कुछ लिखने की इतनी जरूरत भी नहीं है। जिसे तथ्य चाहिए उसे गूगल से लेकर ग्रोक तक उसे उपलब्ध है। जब सोशल मीडिया नहीं था तब भी ज्ञान उपलब्ध था।

दूसरा जो अपना विचार खुद लिखते हैं, मगर सही शब्द नहीं चुन पाते। एक तो लिखने में एक बड़ी कमी है, जो आप किसी के मुँह पर नहीं बोल सकते, बिना हिचक, बिना शर्म लिख सकते हो, खासकर तब जब आपको शब्द बरतना नहीं आता। उसमें बहुत से वह लोग है, जो बिना किसी चाहे अनचाहे अजेंडा के भी “इस्लामिक आतंकवादी” “कश्मीरी आतंकवादी” और “मुस्लिम आतंकवादी” की जगह “मुस्लिम” से काम चला ले जाते हैं। और फिर यह गलत शब्द उनकी भाषा और समझ में घुस जाता है। इनके सामाजिक संबंध, यदि हैं भी, तो उन्हें तोड़ देता है।

आजकल पिछले एक दो साल के कनाडाई संदर्भ को छोड़ कर भारत में सिखों को देशभक्त, समाजसेवी, माना जाता है। अगर आपके आसपास कोई सिख हैं तो सन 1982-1992 में समझदारी की उम्र में थे तो पता करें क्या झेला उन्होंने – आपके बड़ों की असहज करने वाली भाषा के कारण। फिर 1990 के आसपास न सिर्फ सिख इस आतंकवाद से पस्त त्रस्त हुए, बल्कि घृणावाद का निशाना भी बदल गया। तो उन्हें सम्यक तौर पर सोचने का मौका भी मिला। मुझे नहीं पता, कोई शोध आदि इसे रेखांकित करता है या नहीं, मेरे सामाजिक वार्तालाप से निकली समझ के अनुसार यह खालिस्तानी आतंकवाद खत्म होने का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है।

आप आतंकवादी और उनके समर्थकों को आँख में आँख डालकर गलत बोलिए उनसे भिड़ जाइए, मगर पूरा समाज मत घसीटिए, वह भी पीड़ित है।

इसके बाद, वाद:

जिसके दो बड़े पक्ष है भले ही मुझे इसकी कई परतें महसूस होती रही हैं। दोनों अपने-अपने एकांतिक समूह (एक्सक्लूसिव क्लब) चलाते हैं, इनके आख्यान से जरा भी अलग होने पर यह अपने नेता को भी लात मार दें और फिर किसी दूसरे मामले में उसे फिर सिर पर बैठा लें। उन्हें अपने तथाकथित वाद से आगे पीछे नहीं जाना, जब तक कि कोई बड़ा लालच या झटका न हो। यदि कोई वामपंथी सांस्कृतिक संवेदना व्यक्त कर दे या दक्षिणपंथी सामाजिक सरोकार व्यक्त कर दे तो उसे पंद्रह दिन तक शब्दों, शब्दजालों और निजी कटुता के साथ धोया पोंछा जाता रहता है। यहाँ तक कि आजकल नाते-रिश्तेदारी से भी निकाल फेंका जाने लगा है।

फिर अजेंडा:

बाकी, जिनका अजेंडा है, वह खुलकर अपना कर ही रहे हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग के लोग हैं, जो “मुस्लिम आतंकवादी” शब्द सुनकर और देखकर उसे “सारे मुस्लिम” मान लेते हैं और बचाव की आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं। आप उनकी लिंचिंग के विरुद्ध बोलिए, अकारण परेशान करने के बोलिए, गलत तरीके से चले बुलडोजर के खिलाफ बोलिए। मगर इस सब का मतलब केवल मुस्लिम या केवल दलित या केवल किसी एक पक्ष के लिए ही लगातार तर्क देना या कुतर्क गढ़ना नहीं है।

तो दूसरा मुस्लिम विरोध का अजेंडा लेकर बैठे हैं वह भी किसी भी मुद्दे पर पहले धर्म ढूंढते हैं बाद में अपनी प्रतिक्रिया तय करते हैं। उन्हें ऐसे किसी मुद्दे पर नहीं बोलना, जहाँ कोई गैर मुस्लिम दोषी दिखाई दे जाए। अगर इन्हें तुलसी बाबा का “मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ” सुना दिया जाए तो यह बिना जाने कि यह उन्होंने मानस में नहीं लिखा, मानस को झुठला दें या फिर नए इतिहास की तर्ज पर नई मानस लिखने बैठ जाएँ।

देश के दो धुर दक्षिणपंथी धड़ों के एक आदि पुरखे हैं – मंगोल नायक चंगेज़ ख़ान – उनकी तलवार के दम पर दोनों धड़े “तलवार की ताकत पर इस्लाम का नारा बुलंद करते रहते हैं। एक को लगता है हमारे शेर ने दुनिया जीती और इस्लाम फैलाया तो दूसरे धड़े के हिसाब से उनके गीदड़ ने दुनिया नोची और इस्लाम थोपा। दोनों गलत हैं। चंगेज़ ख़ान बोद्ध था और उसका पोता कुबलई ख़ान भी। इस्लाम कुबलई के एक भाई ने कबूला और उसके बाद मध्य एशिया में उसके राज्य में फैला जो मूलतः तुर्किस्तान का इलाका है, तुर्की से थोड़ा अलग है। तो गलत आख्यान दोनों तरफ मजे से चल रहे हैं। आप जाँच करते रहें। हर दिन। अनचाही घृणा में तो कम से कम न फँसें।