पेशेवर का शुल्क निर्धारण


चिकित्सक या वकीलों से प्रायः यह शिकायत रहती है कि बहुत पैसे माँगते हैं। लोगों को लगता है कि दो मिनिट की बात के लिए इतना पैसा माँग लिया जितना हम दो घंटे में कमाते हैं। जबकि वह चिकित्सक या वकील आदि पेशेवर अपने घर पर इतने पढ़ लिखकर भी ठीक से न कमाने के लिए ताने सुन रहे होते हैं। सभी पेशेवरों को शुल्क निर्धारण में बहुत कठिनाई आती है।

मैं यहाँ आमजन को यह बताने का प्रयास करूँगा कि आपको ज्यादा लगने वाला शुल्क वास्तव में कम क्यों है। पेशेवर समझ पाएंगे कि अपना शुल्क कैसे निर्धारित करें।

  •  सबसे पहले यह सोचा जाए कि पेशेवर को अपनी शिक्षा या अनुभव के महीने के अंत में अपने आप को कितना वेतन देना चाहिए। गणना की सुविधा के लिए इसे एक लाख मान लेते हैं।
  •  यदि पेशेवर बहुत छोटे कार्यालय से काम करेगा तो पहला और सरल तरीका है कि आयकर विभाग का साधारण गणित प्रयोग किया जाए। आयकर विभाग कुल जमा शुल्क के आधे को ही आपकी आय मानकर चलता है क्योंकि आधा तो व्यवसाय संबंधी खर्च है जैसे कागज, बिजली, पानी, इंटरनेट, वाहन-ईधन, सहायक, अन्य कार्यालय आदि के खर्च हैं। तो पेशेवर आमतौर पर कुल जमा प्राप्त शुल्क का आधा ही वेतन के रूप में घर ले जा पाएंगे। तो यदि पेशेवर अपने आप को एक लाख का वेतन देना चाहते हैं तो कम से कम दो लाख का शुल्क उन्हें कमाना होगा। ध्यान रहे, यह मानक है न कि वास्तविक आंकड़ा, इसमें थोड़ा कम ज्यादा हो सकता है।
  • यदि पेशेवर खासकर चिकित्सक को बड़ी मशीन या कार्यालय आदि में निवेश करना पड़ा है तो उसमें फँसे पैसे पर 12-15 प्रति शत ब्याज़ भी आपको कमाना चाहिए। यदि निवेश दस लाख तक है तो आप गणना के लिए इस पर अधिक श्रम न करें। वैसे मशीनों और कार्यालय में अधिकतम संभव निवेश ग्राहक को आपके प्रति आकर्षित करता है।  
  • अब यहाँ यह समझ लें, नौकरी की भाषा में पेशेवर को सीटीसी (cost to company) कमाना है और उसका आधा या उस से भी कम पेशेवर का वेतन रहेगा। 
  • अब समझिए कि पेशेवर सेवा प्रदाता के रूप में अद्यतन जानकारी के लिए पढ़ना लिखना है, सेमिनार जाना है, नेटवर्क भी बनाना है, और पेशे संबंधी अन्य कार्य भी हैं। तो पेशेवर आठ घंटे से कार्यालय समय में से कितना समय शुल्क कमाने वाला कार्य कर पाएंगे, उसे निर्धारित करें। तो समझना होगा कि वास्तविक कमाऊ समय कितना होगा। किसी भी पेशेवर के लिए मासिक कमाऊ घंटे औसतन (20*5)100 से अधिक कभी नहीं होंगे। 
  •  अब यह स्पष्ट है कि पेशेवर को एक लाख का वेतन कमाने के लिए प्रति घंटा कम से कम दो हजार रूपए का शुल्क कमाना होगा।
  •  अगर चिकित्सक का उदाहरण पकड़ें तो पहले मरीज के बाहर जाने से लेकर दूसरे मरीज के बाहर जाने तक आपको औसतन दस मिनिट लगेंगे तो सम्मानित जीवन जीने के लिए आपको प्रति मरीज चार सौ रुपए से अधिक शुल्क लेना होगा। यहाँ यह भी देख लें कि हर दस में से एक मरीज या तो अधिक समय लेगा या सीधे-सीधे ही शुल्क देने की स्थिति में नहीं होगा।
  • हर पेशेवर को दस में से एक क्लाईंट/प्रोजेक्ट के लिए लागत से कम पर काम करना होता है और सौ में से एक क्लाईंट/प्रोजेक्ट की फीस आप को छोड़ देनी होती है। तो इसका भी आकलन कर लें। सभी प्रकार के जोखिम के लिए 10-20 प्रतिशत जोखिम के खर्च भी मान कर चलें।
  •  तो हर पेशेवर को प्रति दस मिनिट में कम से कम पाँच सौ रूपए या प्रति घंटे 2500-3000 का शुल्क कमाना है।
  • आय बढ़ाने के लिए या तो शुल्क बढ़ाना होगा, या अधिक तेजी और प्रभाव के साथ काम करना होगा। कृपया काम के घण्टे बढ़ाकर जीवन को दुःखद न बनाया जाए। कोई भी कमाने के लिए जिंदा न रहे बल्कि जीने के लिए कमाए।
  • यह ध्यान रखें, पेशेवर समय का कठिन सदुपयोग करें। उन्हें अपने काम में से अधिकतम संभव कार्य किसी कर्मचारी/सहायक/प्रशिक्षु के सुपुर्द करना होगा। जैसे कुशल चिकित्सक तापमान, रक्तचाप, टेस्ट रिपोर्ट देखने ले लिए और कुशल वकील पुरानी फ़ाइल का सारांश तैयार करने के लिए किसी भी आगंतुक को पहले सहायक के पास भेजते हैं।
  • यदि पेशेवर खर्च प्राप्त शुल्क के पचास प्रतिशत से कम करने पर अधिक ध्यान देंगे तो न सिर्फ किसी जरूरतमंद को रोजगार/प्रशिक्षण/अनुभव नहीं दे पाएंगे और अपना और देश का वर्तमान और भविष्य दोनों कठिनाई में डालेंगे।
  • यदि पेशेवर अपने सहायकों से काम ठीक से नहीं ले पाते तो उन्हें कम आय और समाज को उनके कम योगदान से ही काम चलाना होगा। ऐसे में संतुष्ट रहना सीखना होगा। अपनी मेज खुद साफ करें। फ़ाइल खुद बनाएँ। समाज इस तरह के व्यवहार को महानता का लबादा सरलता से ओढ़ा देता है। अतः अधिक चिंता न करें।

अंत में पुनः समझ लें यदि किसी पेशेवर को महीने में एक लाख रुपये कमाने है तो उसे हर दस मिनिट में पाँच सौ या घंटे में दो हजार रुपये का शुल्क वसूल करके लाना ही होगा।

मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ|


मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| क्यों हो तुम मेरे साथ – सदा, तब भी जब मैं तुम्हें चिन्हित नहीं कर पाता| सूर्योदय से पूर्व मैं तुम्हें खोजता हूँ – हर स्थान, हर कोण, हर दिशा, हर प्रतिस्थान,हर प्रतिकोण, हर प्रतिदिशा| हर एकांत मैं खोजता हूँ तुम्हें मन की ऊंचाइयों में, विचारों की गहराइयों में, तृष्णा के कूपों में, वितृष्णा के मेघदल में| यदाकदा मैं मिलता हूँ तुमसे आत्मा के गर्भगृह में अनावृत्त, सरल, सहज, स्थिर, मुझ में रमण करते हुए|

मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| कितनी अलग हो तुम मुझे से, मेरी होकर? तुम्हारी पारदर्शिता कितनी प्रभावशाली है, कितनी शुद्ध है, कितनी सरल स्वरूपा है? तुम कितनी निरंतर, निर्विकार, निर्गुण, निर्लिप्त और निश्चल हो? तब भी जब तुम सदा निर्मोही बनी रहती हो – तब जब तुम मेरे चिरंतर संग हो| तुम मेरे संग इतना निःसंग क्यों हो? 

मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| अपनी छाया के साथ एकाकार हो जाना निर्विवाद सुखकर होता है| इसमें रति का विलास नहीं है, रमण का सुख है| इसमें भोग का श्रम नहीं, उत्कंठा नहीं, क्षरण नहीं, अल्पमरण नहीं, और नहीं इसमें सुखातिरेक, जीवाकांक्षा या अमरणविलास| हे छाया! तुम्हारे साथ मेरा रमण संभोग नहीं संजीवन है|

मैंमैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| कितना उदास हो तुम प्रशांत शांति की तरह? कितना सन्न हो सन्नाटे की तरह? कितनी विराट हो जाती हो तुम विरत ब्रह्म की तरह? तब जब तुम नहीं दिखती हो मुझे मेरे साथ, मैं कितना वीरान हो जाता हूँ? मैं हर पल जानता हूँ, तुम मेरे साथ हो जीवन के हर अंधेरे में, उन उजालों से कहीं अति अधिक, जब मैं तुम्हें देख पाता हूँ, जान पाता हूँ, समझ पाता हूँ| 

मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| हर अंधेरी रात, हर धुंधलकी सुबह शाम, कुहासे के हर सर्द  दिन, हर तपती दोपहर, मैं तुम्हें शिद्दत से महसूस करता करता हूँ| तुम्हारी उपस्थिति उस समय मेरा सहारा और ताकत होती है जब मैं तुम्हें सिर्फ और सिर्फ महसूस कर पाता हूँ| तुम्हारी उपस्थिति उस समय मेरा जीवन होती है जब तुम्हें महसूस कर पाना भी मेरे लिए निरंतर कठिनतर होता जाता है| 

मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| सब कुछ, कुछ भी तो नहीं हो तुम|

ढाई वर्ष अंतराल पर मैट्रो ट्रेन यात्रा


शीतकालीन अतिप्रदूषण के अंतिम सप्ताह चल रहे थे| घुटन से जकड़े हुए फेफड़े आराम करना चाहते थे| मुझे ठीक से साँस नहीं आ रही थी और घुटी हुई खाँसी हर साल की तरह लगातार कष्टप्रद होती जा रही थी| हर दिन की तरह मेरे चेहरे पर लगा हुआ नकाब उर्फ़ मास्क लोगों के लिए कोतूहल का विषय था| 

नकाब वाला चेहरा लोगों को अतिरिक्त सहानुभूति के साथ व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता था| यदि मेरे मस्तक पर थकान की रेखाएँ होती तो लोग मुझे बैठने के लिए जगह दे देते| “अरे आप बैठे रहिए” कहते हुये मुझे शर्म, कृतज्ञता और अपराधबोध का अनुभव होता, वास्तव में मैं उनमें से अधिकतर से अधिक स्वस्थ और युवा था| प्रायः जब जरूरत होती, कोई बैठने के लिए जगह का प्रस्ताव नहीं करता|
कष्टप्रद यह नहीं होता कि आप को सहानुभूति न मिले, बैठने की जगह न मिले, कष्टप्रद होता है आपको जुगुप्सा के साथ देखा जाना और बीमार अछूत से बचने कि कोशिश होना|
कमजोर फेफड़े छूत की बीमारी नहीं थे पर अनुभव का असंभव संसार खोल रहे थे| हर दिन कोई न कोई निगाह आपको दुत्कारती थी| कुछ लोग दूसरी ओर मुँह कह भी देते हैं कि जब मास्क लगाने जितने बीमार हो तो मेट्रो में बीमारी फैलाने क्यूँ आए हो? बढ़ते प्रदूषण के इस दौर में भी नकाब, मास्क, एन-95 आदि शब्द आम शब्दावली और चलन में नहीं थे| इन्हें फैशन के रूप में ठीक से कल्पना करना भी मध्य वर्ग के लिए कठिन था|

कुल मिलाकर यह भी वैसा ही दिन था| मेरे मोबाइल पर विदेश समाचार पत्र में चीन में बीमारी की नाजुक हालात पर खबर खुली हुई थी, मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि अगर मानव डायनासोर कि तरह पृथ्वी से प्रस्थान करने जा रहा है तो यह सब शांति से हो और हमारे कंकालों और जीवाश्मों के साथ करोड़ों साल बाद कोई अनादर या छेड़छाड़ न हो| जिस समय मैं प्राचीन जीवों के कंकालों और जीवाश्मों के साथ मानवीय दुर्व्यवहार के लिए क्षमा माँग रहा था, सहानुभूति के एक पुतले ने मुझसे उस अज्ञात ला-इलाज़ बीमारी के बाबत बात की जिस की अतिगंभीरता के कारण मैंने मोटा विदेशी मास्क लगा रखा है| मुझे मास्क के विदेशी ब्रांड की उसकी समझ पर कोई प्रसन्नता नहीं हुई, इस बात पर ध्यान गया कि उसके सही प्रयोग के बारे में कुछ नहीं पता था| न ही उसे किसी वैश्विक महामारी के बारे में कोई जानकारी थी| उस से बात करते करते मैंने एक प्रसिद्ध ऑनलाइन स्टोर से दस मास्क की एक पुड़िया खरीद ली| उसने इसे नोटबंदी की सफलता माना| 

एक आशंका ने मुझे घेर लिया, दिल्ली मेट्रो  में यह मेरी अंतिम या लंबे समय तक के लिए अंतिम यात्रा हो सकती है| उस दिन शाम भय हम सब के मेरूदण्ड की अस्थि-मज्जा तक पहुँच चुका था| कोविड -19 भारत में था| जल्दी ही विश्वगुरु तालियाँ और थालियाँ बजाकर बीमारी भगा रहे थे| फिर एक विदेशी टीका हमारे कारखाने में बनने लगा और हम ब्रह्माण्डगुरु बन गए| सब के घर कोई न कोई साथ छोड़ गया, फिर समय ने सब घाव भर दिए|

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समय गतिमान है और समाज स्थिर| 

लगभग ढाई वर्ष बाद में पुनः मेट्रो में चलने की हिम्मत जुटा पाया| दो दिन पहले तक का नीला आसमान आज प्रदूषण के वार्षिक उत्सव की धुंधलकी सूचना दे रहा था| इन ढाई वर्ष में मेरे कमजोर फेफड़ों ने कोविड को कम से कम दो बार झेल लिया| मैं कोविड को और नहीं झेलना चाहता| बुखार खाँसी जुकाम मुझे अब अधिक चिंताजनक लगते हैं| पूर्ण सुरक्षा, अनुशासन, नियमित व्यायाम और प्राणायाम के बाद काल मुझ से गलबहियाँ करकर गया था| 

मेट्रो में लोगों का व्यवहार देख कर नहीं लगता था कि लोग साल भर पहले तक भयाक्रांत थे| बहुतों ने शेष जीवन दोहरे मास्क लगाने की शपथ ली थी| कुछ दिन पहले तक बड़े बड़े फैशन स्टोर कर कपड़े के साथ मास्क दे रहे थे| सामाजिक दूरी जैसे शब्द का कहीं बहुत दूर सभी लोग एक दूसरे के श्वास-निःश्वास में रचे बसे थे| लगभग सभी कानों में फुसफुसिए लगे थे| यह फुसफुसिए हमारे लिए अपना अलग द्वीप बना देते हैं| अपनी दुनिया, अपना संगीत, अपनी बातें, अपना चलचित्र, अपना चरित्र, अपना घोटुल| यह आभासी द्वीप हमें समाज से मानसिक दूरी देते हैं, शारीरिक नहीं| ऐसे मैं हम अपराधों और बीमारियों से सुरक्षा का आभास पाते हैं और
नकाब की सुरक्षा हम भूल जाना चाहते हैं| बड़े बड़े दुर्ग प्राचीरों और खाइयों ने सुरक्षित रखे हैं|

बढ़िया यह है कि कोई भी आपको बीमार मानकर सहानुभूति नहीं दिखा रहा, बैठने के लिए जगह का प्रस्ताव नहीं कर रहा, कोई बेचारगी नहीं दिखा रहा| किसी के मन मे वितृष्णा जैसा भाव नहीं दिखाई देता| मेरी हल्की फुल्की खाँसी न तो सामान्य है और न इस बार कोई अनावश्यक सहानुभूति पैदा कर रही है| कुछ निगाह यह निश्चित करने के लिए उठ जाती है कि मैं अपने मास्क के अंदर ही खाँस रहा हूँ| ऐसे लोगों भयाक्रांत कायर अधेड़ के प्रति सहानुभूति है| 

फिर भी इन ढाई वर्ष में मानव नहीं बदला है|

ऐश्वर्य मोहन गहराना