आराम हराम है – 3


ऐसे समय जब बेरोजगारी के साथ अर्ध-रोजगार और छद्म रोजगार के विकटता लगातार बढ़ती जा रही है हमें सभी के लिए समुचित रोजगार की व्यवस्था देखनी है। समुचित रोजगार के सुलभ होने के लिए न सिर्फ नए रोजगार पैदा करने की जरूरत है वरन उपलब्ध रोजगार के लिए उचित वितरण पर भी हमारा ध्यान होना चाहिए। एक व्यक्ति के पास एक से अधिक रोजगार होना मुझे लगता है रोजगार का समुचित वितरण नहीं है।

एक व्यक्ति के लिए रोजाना ही एक शिफ्ट से अधिक काम होना या करना घातक है।

किसी भी प्रकार का ओवरटाइम दो रोजगार और वेतन के दृष्टिकोण से भी उचित नहीं है। पहला यह किसी दूसरे व्यक्ति से उसका रोजगार छीन कर पहले से रोजगार प्राप्त व्यक्ति को देता है। दूसरा, ओवरटाइम इस बात का द्योतक है कि पहले व्यक्ति को अपनी आवश्यकता और क्षमता के अनुरूप रोजगार यदि है भी तो वेतन नहीं है।

अधिक वेतन की मांग के संबंध में प्रायः यह लचर तर्क दिया जाता है कि सब को पैसा कमाने हवस होती है और पैसा किसे बुरा लगता है। यह एक अतिपूंजीवादी तर्क है और वेतन संबंधी मोल भाव के समय कर्मचारी वर्ग को दबाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। वास्तविकता के धरातल पर हर कोई अपने योग्यता और शारीरिक क्षमता के अनुपात में ही आय की आशा करता है। मोलभाव के लिए अधिक मांगना एक तरीका भर है परंतु हर किसी को बाजार के अंदर ही रहना है अतः अनावश्यक मांग संभव नहीं है।

आज जबकि कर्मचारी संगठनों को साम्यवादी, समाजवादी और राष्ट्रविरोधी कहकर नकारा जा चुका है, एकल रूप से कर्मचारी अपने वेतन भत्ते के लिए उचित रूप से मोल भाव करने में अक्षम रहता है। यह स्थिति न सिर्फ उस एकल कर्मचारी के लिए घातक है वरन उस समान रोजगार के लिए उपलब्ध और इच्छुक हर उम्मीदवार के लिए निचला मापदंड तय कर देती है। एक प्रकार एक अच्छा भला रोजगार के लचर अर्ध रोजगार में बदल जाता है। ऐसे में कर्मचारी को न चाहते हुए भी ओवरटाइम करना पड़ता है।

इस कुचक्र से हम संसाधन और रोजगार होते हुए भी एक अनचाही बेरोजगारी पैदा कर देते हैं। कुल मिलकर आठ से अधिक घंटे काम करने का कोई भी विचार बात न सिर्फ काम कर रहे कर्मचारियों और उनके परिवार के शोषण को बढ़ावा देता है, बल्कि कृत्रिम रूप से बेरोजगारी पैदा करता है।

किसी भी प्रकार की बेरोजगारी हानिकारक है। बेरोजगारों को अपराध का रास्ता चुनते देखा जाता रहा है। ऐसे में कृत्रिम बेरोजगारी को घातक ही कहा जाएगा।

आराम हराम है –2


राष्ट्रीय और मानवीय विकास के नाम पर बारह-बीस घंटे काम करने की इस चर्चा में प्रभावित होने वाली सबसे पहली इकाई कोई ‘तुम’ या ‘वह’ नहीं ‘मैं’ है। यहाँ कर्मभूमि में बलिदान होने के लिए भगत सिंह पड़ोसी के घर से नहीं आ रहा। क्या ‘मैं’ चौबीस घंटे काम करने की स्थिति में हूँ?

हमें अपने ‘मैं’ को कतई कमतर नहीं आंकना चाहिए परंतु शारीरिक क्षमता क्या है?

विशेष व्यक्तित्वों के सच झूठ की बात नहीं है पर सामान्य जीवन जीने के लिए मनुष्य को लगभग आठ घंटे बिस्तर पर सोते और आराम करते हुए होना चाहिए। उसके बाद अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं के लिए लगभग दो घंटा निजी समय चाहिए। क्या हमने शौच, स्नान ध्यान व्यायाम आदि के लिए दो घंटे नहीं चाहिए?

जैविक और मानवीय आवश्यकता किसी भी राष्ट्रीय और मानवीय आवश्यकता से बड़ी हैं। यदि मानव नहीं होगा तो न राज्य होगा, न राष्ट्र और न धर्म। ध्यान रहे, सरकारी, धार्मिक, या आर्थिक प्रोपेगंडा इतर वास्तविक धरातल पर इस समय में ऐसी कोई प्रलयकारी स्थिति मानवता, राष्ट्र और धर्म के सामने नहीं है कि मानवीय जीवन को हाशिए पर डाल दिया जाए। मानव की जैविक और मानवीय पहली आवश्यकता शुद्ध सहज शब्दों में भोजन और यौन संबंधी आवश्यकता हैं। इनके पूरा न होने पर मानव स्वस्थ्य रहकर काम नहीं कर सकता। वह न गृहस्थ आश्रम का पालन नहीं कर सकता, पितृ ऋण नहीं चुका सकता। हमारे समय की अधिकांश मानवीय समस्याएँ इन्हीं दो आवश्यकताओं के समुचित, समन्वित और संतुलित रूप से पूरा न होने के कारण पैदा होती हैं। जिनके बाद अन्य शारीरिक और मानसिक विकारों का स्थान है।

इस प्रकार एक मनुष्य के लिए नितांत प्राकृतिक और जैविक आवश्यकताओं के बाद बारह घंटे से अधिक का समय नहीं बचता। यदि कोई भी व्यक्ति इन बारह घंटे से अधिक काम कर रहा है तो वह कर्मलोभी या कर्मलती तो हो सकता है कर्म योगी नहीं। कर्म योगी वह विशिष्ट व्यक्ति है जो पूरे ध्यान, मन कर्म वचन के साथ अपने काम को करता है। यह आवश्यक नहीं कर्म योगी बारह-बास घंटे काम करे।

आप इन बारह घंटे रोजाना काम कर सकते हैं परंतु यह सामाजिक संबंधों की कीमत पर होगा और इससे भी अधिक यह किसी भी व्यक्ति के अपनी संतान और माता-पिता के साथ सम्बन्धों की कीमत पर भी होगा। मेरी चिंता संतान है जो भले ही हमें माता-पिता का भविष्य नजर आतीं हैं परंतु वास्तव में देश और मानवता का भविष्य अधिक होती हैं। कोई संतान माता पिता के लिए कितनी ही कुसंतान हो, परंतु यदि उसका लालन पोषण शिक्षा दीक्षा सही रही तो वह मानवता, राष्ट्र और धर्म के लिए कुछ न कुछ सकारात्मक योगदान अवश्य देती है। राष्ट्र का वर्तमान नहीं राष्ट्र की संतानों का सामुहिक विकास ही राष्ट्र का भविष्य तय करता है। इसलिए हमें हर नागरिक के द्वारा अपनी संतान को दिए जाने वाले स्तरीय समय को सुनिश्चित करना ही चाहिए।

मुझे लगता है की कोई भी माँ-बाप मिलकर सोलह घंटे से अधिक काम करते हैं तो वह उनकी संतान और राष्ट्र के भविष्य के लिए उचित नहीं है।

यदि हम प्रति व्यक्ति आठ घंटे से अधिक काम पर जोर देते हैं तो वास्तव में प्रति युगल (पत्नी-पति) के सोलह घंटे काम के बदले प्रति युगल मात्र बारह घंटे काम को चुनते हैं। सामान्य सामाजिक पर्यवेक्षण से यह बहुत स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ को जैविक, मानवीय और सामाजिक दबावों के कारण संतान का भविष्य सँवारने पर अधिक ध्यान देना होता है। यदि हम स्त्रियों से आठ घंटे से अधिक काम का दबाव बनाते हैं तो वास्तव में हम उनकी प्रतिभा और श्रम से राष्ट्र और मानवता को वंचित कर रहे होते हैं। वह नौकरियाँ छोड़ देने के लिए विवश हो जातीं हैं। यह भी ध्यान रहे कि आठ घंटे के काम और दो-चार घंटे के आवागमन के समय के बाद वास्तव में सही प्रकार से जीवन शैली को बनाकर रखना कठिन होता है। साथ ही कार्यालय में थके मांदे लोग पूरा समय काम को नहीं दे पाते। वास्तव में हमें छह-आठ घंटे के स्तरीय और उचित कोटि का कार्य समय चुनना चाहिए। ऐसा कहते समय मैं कार्यालय के लिए होने वाले आवागमन समय को आठ घंटे की समय सीमा में रखूँगा। हो सके तो हमें घर से कार्य के तरीके को बढ़ाना चाहिए।

आराम हराम है -1


कम पड़ते हैं चौबीस घण्टे।

कम पड़ते हैं चौबीस घण्टे उनके लिए जिन्हें मशीनों और मानवों में अंतर नहीं करना होता। ऐसा नहीं है कि उन्हें यह अंतर करना नहीं आता। इंसान को मशीन समझने का काम तो उस समय भी होता रहा है जब आज के हिसाब से तो बेहद कम और साधारण मशीनें थीं। मानवता का इतिहास दासों, गुलामों और जन्मना जाति शूद्रों का इतिहास रहा है। हर सत्ता केंद्र सामंतवाद या ब्राह्मणवाद हो या पूंजीवाद यहाँ तक कि समाजवाद और साम्यवाद भी, अपने-अपने गुलाम लेते है। हर सत्ता नारा देती हैं – “आराम हराम है”, “नौ से पाँच की नौकरी खराब चुनौती रहित खराबी है”, या “राष्ट्र हित में चौबीस घंटे काम करना चाहिए”।

उस देश का उदाहरण दिया जाता है जिसकी अस्मिता पर संकट था जिसके पास काम करने लायक हाथ नहीं बचे थे। उसका हासिल क्या है, विकसित पर बूढ़ा देश जिसके पास बच्चे नहीं है भविष्य का युवा आयात करना होगा।

हमारे पास रोजगार के लिए ताकती हुई दो तिहाई आबादी है। हम एक तिहाई को आठ की जगह चौबीस घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं। मर रहे हैं हमारे युवा – तनाव से, जीवन शैली की बीमारियों से संवेदन-हीनता से और मर रहे हैं और वास्तव में तंत्र द्वारा यंत्र बना दिये जाने से। हमारे युवा मर रहे हैं ज़ोम्बी बन जाने से।

क्या लाभ चिकित्सा क्रांति का जब लगभग अस्सी तक पहुँचती मानव आयु इस यांत्रिक तनाव से घटकर चालीस पर जा लगे?

और देश के बुजुर्ग (बूर्जुआ या बूर्झ़वाज़ी कहने की गुस्ताखी नहीं कर रहा हूँ) प्राचीर से आवाज लगाते हैं: आराम हराम है, हमें बारह या बीस घंटे काम करना चाहिए।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि देश का विकास श्रम मांगता है, यह एक सामूहिक श्रम की मांग है न कि गिने चुने लोगों द्वारा यंत्र बनकर काम करने की।

पर जब देश का युवा रोजगार मांग रहा हो और जब रोजगार उपलब्ध हों। तब काम का यह अनावश्यक दबाव मुझे पूंजीवाद या राष्ट्रवाद का नहीं अतिपूंजीवाद का पाप दिखाई देता है। क्या दो हाथ से चार हाथ का काम लेने के स्थान पर चार हाथ को काम नहीं दिया जा सकता। हमारा यह अतिपूंजीवाद जानता है कि ऐसा करने में प्रबंधन श्रम और खर्च बढ़ सकते हैं। ध्यान देने की बात हैं कि नारा चौबीस घंटे काम का है इसे आप चौबीस घंटे मजदूरी या कमाई का नारा न समझें। यही कारण है कि ओवरटाइम जैसी अवधारणा काम के लक्ष्य के दबाव की ओट में छिपा दी गई है।

साथ ही हमारा अतिपूंजीवाद हाल फिलहाल यह समझने समझाने में सफल रहा है कि सामूहिक चेतना से बचना चाहिए। यदि दस हाथ खड़े होंगे तो अपने पूंजीवादी हक भी मांगेंगे – श्रम का मूल्य। उनका मोलभाव भी बढ़ेगा और ओवरटाइम की मांग भी होगी।

इसलिए हर एक को दो गुना काम करने के लिए राजी करना उनके अतिपूंजीवादी हित में है। परंतु क्या यह राष्ट्र हित में हैं? परंतु क्या यह व्यक्तिगत हित में है? नहीं। इस पर आगे बात करेंगे।