“भाषा” “वाद” और “अजेंडा”


लोग किसी भी घटना के बाद सोशल मीडिया पर लिखने का बहुत दबाव महसूस करते हैं, अपना क्रोध, चिंता, दुःख उड़ेल देना चाहते हैं। मगर अधिकतर आड़े आती है “भाषा” “वाद” और “अजेंडा”।

सब पहले भाषा वाले दो समूह:

आप में से अधिकतर सुविधा के लिए फॉरवर्ड करते हैं – बस आधा पढ़कर आगे बढ़ा देना – कहीं देर न हो जाए। इन्हें पीछे छूट जाने का भय है। भले ही यह पूरे तथ्य से सहमत हों, न हों। इस से गलत आख्यान बिना इनके चाहे आगे बढ़ जाता है। और बाद में यह लोग खुद भी उसे ही “लगभग सही” जानते-मानते अपने कुचक्र में फँस जाते हैं। आप कृपया, किसी भी फॉरवर्ड के तथ्य जांच लें, एक भी गलत नहीं हो। संदेश को संपादित कर-कर या उसमें से जांच परख कर सही तथ्य अपने आप से लिखकर उसे पोस्ट करें। वैसे इतनी कुछ लिखने की इतनी जरूरत भी नहीं है। जिसे तथ्य चाहिए उसे गूगल से लेकर ग्रोक तक उसे उपलब्ध है। जब सोशल मीडिया नहीं था तब भी ज्ञान उपलब्ध था।

दूसरा जो अपना विचार खुद लिखते हैं, मगर सही शब्द नहीं चुन पाते। एक तो लिखने में एक बड़ी कमी है, जो आप किसी के मुँह पर नहीं बोल सकते, बिना हिचक, बिना शर्म लिख सकते हो, खासकर तब जब आपको शब्द बरतना नहीं आता। उसमें बहुत से वह लोग है, जो बिना किसी चाहे अनचाहे अजेंडा के भी “इस्लामिक आतंकवादी” “कश्मीरी आतंकवादी” और “मुस्लिम आतंकवादी” की जगह “मुस्लिम” से काम चला ले जाते हैं। और फिर यह गलत शब्द उनकी भाषा और समझ में घुस जाता है। इनके सामाजिक संबंध, यदि हैं भी, तो उन्हें तोड़ देता है।

आजकल पिछले एक दो साल के कनाडाई संदर्भ को छोड़ कर भारत में सिखों को देशभक्त, समाजसेवी, माना जाता है। अगर आपके आसपास कोई सिख हैं तो सन 1982-1992 में समझदारी की उम्र में थे तो पता करें क्या झेला उन्होंने – आपके बड़ों की असहज करने वाली भाषा के कारण। फिर 1990 के आसपास न सिर्फ सिख इस आतंकवाद से पस्त त्रस्त हुए, बल्कि घृणावाद का निशाना भी बदल गया। तो उन्हें सम्यक तौर पर सोचने का मौका भी मिला। मुझे नहीं पता, कोई शोध आदि इसे रेखांकित करता है या नहीं, मेरे सामाजिक वार्तालाप से निकली समझ के अनुसार यह खालिस्तानी आतंकवाद खत्म होने का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है।

आप आतंकवादी और उनके समर्थकों को आँख में आँख डालकर गलत बोलिए उनसे भिड़ जाइए, मगर पूरा समाज मत घसीटिए, वह भी पीड़ित है।

इसके बाद, वाद:

जिसके दो बड़े पक्ष है भले ही मुझे इसकी कई परतें महसूस होती रही हैं। दोनों अपने-अपने एकांतिक समूह (एक्सक्लूसिव क्लब) चलाते हैं, इनके आख्यान से जरा भी अलग होने पर यह अपने नेता को भी लात मार दें और फिर किसी दूसरे मामले में उसे फिर सिर पर बैठा लें। उन्हें अपने तथाकथित वाद से आगे पीछे नहीं जाना, जब तक कि कोई बड़ा लालच या झटका न हो। यदि कोई वामपंथी सांस्कृतिक संवेदना व्यक्त कर दे या दक्षिणपंथी सामाजिक सरोकार व्यक्त कर दे तो उसे पंद्रह दिन तक शब्दों, शब्दजालों और निजी कटुता के साथ धोया पोंछा जाता रहता है। यहाँ तक कि आजकल नाते-रिश्तेदारी से भी निकाल फेंका जाने लगा है।

फिर अजेंडा:

बाकी, जिनका अजेंडा है, वह खुलकर अपना कर ही रहे हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग के लोग हैं, जो “मुस्लिम आतंकवादी” शब्द सुनकर और देखकर उसे “सारे मुस्लिम” मान लेते हैं और बचाव की आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं। आप उनकी लिंचिंग के विरुद्ध बोलिए, अकारण परेशान करने के बोलिए, गलत तरीके से चले बुलडोजर के खिलाफ बोलिए। मगर इस सब का मतलब केवल मुस्लिम या केवल दलित या केवल किसी एक पक्ष के लिए ही लगातार तर्क देना या कुतर्क गढ़ना नहीं है।

तो दूसरा मुस्लिम विरोध का अजेंडा लेकर बैठे हैं वह भी किसी भी मुद्दे पर पहले धर्म ढूंढते हैं बाद में अपनी प्रतिक्रिया तय करते हैं। उन्हें ऐसे किसी मुद्दे पर नहीं बोलना, जहाँ कोई गैर मुस्लिम दोषी दिखाई दे जाए। अगर इन्हें तुलसी बाबा का “मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ” सुना दिया जाए तो यह बिना जाने कि यह उन्होंने मानस में नहीं लिखा, मानस को झुठला दें या फिर नए इतिहास की तर्ज पर नई मानस लिखने बैठ जाएँ।

देश के दो धुर दक्षिणपंथी धड़ों के एक आदि पुरखे हैं – मंगोल नायक चंगेज़ ख़ान – उनकी तलवार के दम पर दोनों धड़े “तलवार की ताकत पर इस्लाम का नारा बुलंद करते रहते हैं। एक को लगता है हमारे शेर ने दुनिया जीती और इस्लाम फैलाया तो दूसरे धड़े के हिसाब से उनके गीदड़ ने दुनिया नोची और इस्लाम थोपा। दोनों गलत हैं। चंगेज़ ख़ान बोद्ध था और उसका पोता कुबलई ख़ान भी। इस्लाम कुबलई के एक भाई ने कबूला और उसके बाद मध्य एशिया में उसके राज्य में फैला जो मूलतः तुर्किस्तान का इलाका है, तुर्की से थोड़ा अलग है। तो गलत आख्यान दोनों तरफ मजे से चल रहे हैं। आप जाँच करते रहें। हर दिन। अनचाही घृणा में तो कम से कम न फँसें।

आराम हराम है – 5


एक तरफ हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व चौबीस घंटे काम करने का जन-आग्रह करना चाहता है उधर वह नेतृत्व महत्वाकांक्षी मनरेगा योजना तक में एक वर्ष में सौ घंटे भी काम नहीं दे पा रहा है। जनता में इस रोजगार योजना के विरुद्ध इसे “रेवड़ी बाँटना” कहा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि श्रम के बदले दिया गया यह वेतन किसी भी तर्क-कुतर्क से “रेवड़ी” कहा जा सकता है। वास्तव में उन्हें देने के लिए काम नहीं निकल रहा। वह भी तब जब गाँवों में विकास का आना लगभग शेष है। सड़क पहुँचने के अतिरिक्त जो भी विकास वहाँ हो रहा है उसका स्थानीय निजी क्षेत्र और निजी प्रयास को जाता है।

फिर भी, यदि इस रोजगार योजना में दिया गया वेतन रेवड़ी मान लिया जाए, तो यह स्पष्ट है कि वास्तव में हमारे पास इच्छुक लोगों के लिए भी समुचित काम नहीं है। हम सिर्फ काम लेने के दिखावा कर-कर उन्हें खैरात बाँट रहे हैं। जब हम अपने लोगों को काम तक नहीं दे पा रहे, तब फिर हमारे पास अन्य लोगों से चौबीस घंटे काम करने का आग्रह करने का क्या आधार है?

ऐसा भी तो नहीं है कि हमारे पास किसी भी क्षेत्र में कम उम्मीदवार हों। हम किसी भी क्षेत्र में सभी उम्मीदवारों को रोजगार नहीं दे पा रहे हैं। यहाँ तक कि पिछले दशकों में सर्वाधिक रोजगार देने वाले क्षेत्रों; सूचना तकनीकी, आधारभूत ढाँचा तंत्र, रेलवे, आदि में काम करने योग्य बहुत से उम्मीदवार बेरोजगार हैं।

रोजगार न देने के पीछे हमारा तर्क यह है कि हमारे उम्मीदवार रोजगार योग्य नहीं हैं। क्या हमारी शिक्षा दीक्षा में कमी है? यदि है तो क्या यह मुख्य मुद्दा नहीं होना चाहिए था?

हमारे युवाओं का काम करने योग्य न होना बहुत बड़ी समस्या है। भारतीय मनीषा शिक्षा का मूल उद्देश एक बेहतर इंसान बनना और आत्म उत्थान मानती रही है। हम आधुनिक शिक्षा के आने के साथ “शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी” कहकर दुःखी होते रहे हैं। परंतु अब क्या? अब क्या कहें? “शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम किस हित बनी?” हमने अपनी शिक्षा की फ़ैक्टरी में डिग्रीधारी बेरोजगार उत्पादित किए है। हम अपने समाचार पत्रों के मुखपृष्ठों पर विज्ञापन देते हैं हमारा उत्तीर्ण कराने के अनुपात दूसरों के बेहतर है। फिर यह सब क्या और क्यों है?

हाल के वर्षों में जितना हल्ला फीस बढ़ाने को लेकर हुआ है शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को लेकर नहीं हो रहा है। पिछले बीस तीस वर्षों में शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिया खुला छोड़ दिया गया है। फिर भी

शिक्षा के स्तर में गिरावट जारी हैं। हम उस विषय में क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं। हम उपलब्ध लोगों से काम चलाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे पास शिक्षक बनने के इच्छुक लोगों की कमी है। योग्य लोग जितना वेतन चाहते हैं शिक्षा क्षेत्र देना नहीं चाहता। जिस समय देश के सामने अपने विकास के लिए प्रतिभा का संकट है, हम प्रतिभा विकास के उपाय के स्थान पर उपलब्ध प्रतिभा का दोहन कर रहे हैं। आराम हराम कहने के हर नए नारे के पीछे हमारी यह विवशता है कि हमारा शिक्षा तंत्र पंगु हो चुका है। इस असहायता को सुधारने के स्थान पर हम राष्ट्र के नाम नारे लगा रहे हैं।

आराम हराम है – 4


जीवेम शरदः शतम्। सपना सच होने के कगार पर है। कगार एक ऐसा स्थान जहाँ हमारी असावधानी की प्रतीक्षा मृत्यु हमारा वरण कर लेती है। इधर चिकित्सा शास्त्र हमें दीर्घायु से लेकर अमरत्व के तोहफ़े दे रहा है उधर हम रक्तचाप, मधुमेह, अतितनाव आदि समस्याओं के साथ जी रहे हैं। किसी भी चिकित्सक के पास जाएँ, सब से पहले तनाव और मोटापा कम करने की बात होती है। मानक शारीरिक द्रव्यमान सूचकांक ऐतिहासिक रूप से कमजोरी के निकट आ पहुँचा है। यह अधिकांश रोग अधिक कमाई संबंधी दबाव से जुड़े हैं। अति का काम और अति का तनाव बीमारियों का कारण है।

पहले लोगों के कार्यालय घरों में थे। बड़े सरकारी अधिकारी अपने बंगलों, व्यापारी अपनी कोठियों और पेशेवर अपनी बैठकों से अपना काम निपटाते थे। अपना काम पूरा करने के बाद सुकून था। आज हम काम के जोश में हैं। धन कमाने से अधिक अपने आपको काम करते हुए लत बन चुका है। आज लोग कार्यालयों में गप्प मारते और घर में काम करते देखे जाते हैं। हाल में यह भी देखने लो मिलने लगा है कि आम दिनों में काम करें न करें सप्ताहांत में काम अवश्य किया जाए। अपने आप को काम करता दिखाने के लिए लोग भेजे जाने वाले ईमेल में देर रात के लिए समयबद्ध तक कर देते हैं।

अपने लैपटॉप और मोबाइल के साथ हम चौबीस घंटे के नौकर बन गए हैं। भले ही हमारा वास्तविक काम चार पाँच घंटे का हो मगर उस के तनाव को चौबीस घंटे झेला जा रहा है। मगर क्या इस से वास्तव में हमारी तरक्की हो रही है? हम देश के रूप में और प्रतिष्ठानों के तौर पर आम विकास दर से आगे नहीं बढ़ पाएँ हैं। वास्तव में हमने तनाव के घंटे बढ़ाए हैं।

इसके साथ घरों और कार्य स्थलों की लगातार बढ़ती भौतिक दूरियाँ हमारे स्तरीय समय में से दो-चार घंटे कम कर रहीं हैं। भीड़भाड़ और भगदड़ से भरे इस समय में आप कोई और उपयोग नहीं कर पा रहे। यहाँ तक कि सहयात्रियों से बातचीत, किताबें या अखबार पढ़ना या संगीत सुनना भी एक स्तरीय तरीक़े और ध्यानपूर्वक नहीं हो रहा। यह चार घंटे पूर्ण रूप से अनुत्पादक समय में बदल गए हैं। यह समय बेहद तनावपूर्ण समय में बदलने लगा है।

जिन लोगों के पास रोजगार है और जब वह अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता से अधिक काम करते हैं तो अपने किए रोग और मृत्यु को आमंत्रण देने के साथ वह जाने अनजाने किसी अन्य व्यक्ति के लिए बेरोजगारी पैदा करते हैं। यह बेरोज़गारी जितनी उस व्यक्ति के लिए घातक होती है उस से अधिक खुद रोजगार प्राप्त लोगों और देश के लिए हानिकारक होती है।

रोजगार योग्य बेरोजगार उदरपूर्ति के लिए अपराधों का सहारा लेते हैं। इस से कई खतरे पैदा होते हैं।

पहला, स्वाभाविक रूप से यह अपराधी उन्हीं व्यक्तियों कि अपना शिकार बनाएंगे को अच्छा खा-कमा रहे हैं। परंतु हो सकता है कि आप सुरक्षित इलाकों में रहते हो और आपका सीधे ही अपराध या अपराधी से सामना न हो। परंतु आपको अपने निवास, कॉलोनी, कार्यालय, रास्तों से लेकर अपने बैंक खातों तक की सुरक्षा बढ़ानी होती है। इसके अलावा सरकारी कानून व्यवस्था तंत्र को भी बढ़ाना पड़ता है।

दूसरा, आपपर अधिक कर का बोझ पड़ता है। सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है अधिकतर बेरोजगारों और उनके परिवारों को कम से कम पौष्टिक भोजन और कुछ नहीं तो साल में कुछ दिनों का रोजगार मिलता रहे। वरना यह लोग या तो भूखे मारे जाएंगे या अपराधों की दुनिया में बाढ़ आ जाएगी।

भले ही आप सस्ता गल्ला और भोजन देने की इन योजनाओं को मुफ़्त की रेवड़ियाँ कहें, विधिवेत्ता कल्याणकारी राज्य का नाम दें, पूंजीवादी साम्यवाद के अवशेष कहें, समाजसेवी मानवाधिकार कहें, वास्तविकता यह है कि यह योजनाएँ आपकी सुरक्षा का हित साधतीं है। वरना यह भूखे लोग यदि अहिंसक बगावत पर भी उतर जाएँ तो मध्यमवर्ग का जीवन दूभर हो जाएगा।

इसके अतिरिक्त आप अधिक काम करते समय घर में प्रसन्नता और भविष्य देने वाले बहुत से काम किसी अन्य को सोंपने पड़ते हैं: जैसे माँ या पिता के हाथ का खाना, बच्चों को पढ़ाना, नहलाना धुलाना, घर की साफ सफाई और सजावट आदि। आपका अपने बच्चों और बुजुर्गों से संपर्क लगातार कम होने लगा है।

काम के इस दबाव में हमारा सामाजिक दायरा बहुत छोटा हुआ है। हमारे तीज त्यौहार, शादी-ब्याह व्यवसाय बनकर दूसरों के हाथ चले गए हैं। हमारी पारिवारिक परम्पराएँ इस दबाव में गायब हो गईं हैं। इस सबसे बचने के जो तरीक़े हैं उनमें से सर्वप्रथम है अपनी क्षमता से अधिक कार्य और तनाव का बोझ ने लें और न दें। दूसरे व्यक्तियों के लिए काम छोड़ें। अधिक लोग काम करें। सब थोड़ा कम-कम काम करे।